चुनाव लोकतंत्र का पवित्र महोत्सव कहा जाता है । अब इसकी संस्कृति का पूरी तरह से काया कल्प हो गया है। चुनाव आने के थोड़े दिन पहले गहमा गहमी तेज होती है और अंतिम कुछ दिनों में हाई कमान अपने केंडिडेट का एलान करता है। साथ ही भूली बिसरी जनता की सुध आती है। चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल अपना अपना जादू का पिटारा खोलते है और उनकी सोई हुई जन - संवेदना जागती है। आहत जनता को राहत देने के लिए कमर कसते हुए सभी दल सुविधाओं की फेहरिस्त तैयार करने में जुट जाते हैं । रेल , सड़क , स्कूल , अस्पताल , नौकरी , कर्ज यानी जीने के लिए जो भी चाहिए उस सूची में शामिल किया जाता है। चुनावी राज्यों में पुलिस द्वारा करोड़ों रुपयों की ज़ब्ती और शराब की आवाजाही आम बात हो गई है जिनका कोई दावेदार नहीं मिलता । यह सब इसलिए होता है ताकि जनता को अधिकाधिक मात्रा में लुभाया जा सके । जन-प्रलोभनों की यह अजीबोग़रीब पेशकश यह सिद्ध करने के लिए मीडिया में ख़ूब प्रचारित की जाती है कि वैसा लोक - शुभेच्छु कोई दूसरा नहीं है । इस सिलसिले में विभिन्न दल एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर जन सेवा की हुंकार भरते नहीं थकते और धन सम्पदा लुटाने की घोषणा करते हैं । बोली लगने के माहौल जैसी यह क़वायद चुनी सरकार के बजट की याद दिलाती है । अलादीन के चिराग़ न होने पर कमी सिफ़र् यही रहती है कि नेतागण यह नहीं बताते कि इन ख़र्चों के लिए राजस्व और संसाधन का जुगाड़ कैसे होगा और यह सब कहाँ से आएगा।चुनाव की चर्चा में देश , देश का भविष्य और देश की नीतियों के सवाल ग़ायब रहते हैं और सभी दल एक दूसरे पर दोष मढ़ने को बेताब रहते हैं । तूँ तूँ मैं मैं करते हुए बात बढ़ कर व्यक्तिगत अपमान और लांछन पर आ टिकती है। नेताओं पर भद्र अभद्र आरोप लगते हैं और सभ्य शिष्ट आचरण से भटक कर सही ग़लत प्रवाद फ़ैक्टर जाते हैं । चुनावी दंगल में रैली, रोड शो और रेला के आयोजन करते हुए राजनीतिक दल अपना दम ख़म दिखाने का स्वाँग करते हैं। उस दौरान यातायात और जनसुविधाएँ ज़रूर ठप हो जाती हैं ।
गौर तलब है कि घोषित हो रही सुविधाओं का फ़ौरी आकलन और आख्यान जनता को मुफ़्तखोरी की राह दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है । वंचित उपेक्षित समुदायों के लिए आरक्षण का ब्रह्मास्त्र चलाया जाता है और जातिगत आरक्षण का प्रावधान निरंतर व्यापक किया जा रहा है । गौर तलब है कि संविधान की यह व्यवस्था अल्प काल के लिए की गई थी । वोट बैक की राजनीति को प्रश्रय देते हुए उसका विस्तार नाना प्रकार से बढ़ाया जाता रहा । भारत में जातिमुक्त समाज के लक्ष्य को जाति की सत्ता की तीव्र पुष्टि की नीतियों से प्राप्त करने की अनवरत चेष्टा के अंतर्विरोध बार-बार सामने आते रहे हैं परंतु समाधान के लिए ध्यान देना नहीं हो सका । राजनीति की दृष्टि से यह मुफ़ीद नहीं लगता और योग्यता और अवसर का तालमेल बिठाने की कोशिश धरी रह जाती है ।
चुनाव और सरकार बनाना लोक तंत्र के उपकरण हैं जिनका उपयोग लोकतंत्र को और लोक की गरिमा को सुरक्षित और संवर्धित करने के लिए होनी चाहिए । देश के हित में समाज के विधान का कोई विकल्प नहीं है । राजनीति एक सेवा धर्मी उपक्रम होना चाहिए जिसका दीर्घ कालिक नियोजन आवश्यक है। सामान्य जीवन में इसके प्रति उदासीनता के भाव ने राजनीति में मूल्यहीनता को बढ़ावा दिया है। आज भारत एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभर रहा है। इस अवसर पर राजनीति में मूल्यों की पुनर्स्थापना ज़रूरी हो रही है ।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)