संसद लोकतंत्र का मंदिर है जहां देश की जनता के कल्याण से जुड़े विषयों पर गहन चर्चा की जाती है और ज़रूरी फ़ैसले लिए जाते हैं। वहीं भारत का संविधान अंगीकृत किया गया था और अभी भी वहाँ क़ानून बनाए जाते हैं जिनका राष्ट्रीय जीवन और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के लिए बड़ा महत्व होता है। इस तरह संसद एक बेहद गंभीर परिवेश में जिम्मेदारी से काम करने का परिसर होता है।
देश की जनता अनुभव कर रही है कि विगत वर्षों में संसद में माननीय जन प्रतिनिधियों का आचरण शिष्टाचार और संसदीय कार्यकलाप की मर्यादाओं को सुरक्षित रखने में लगातार गिरावट दर्ज कर रहा है। विपक्ष के लिए संसद आंदोलन का रंगमंच होता जा रहा है। विरोध जतलाने का विपक्ष का अधिकार है और वह उनका कर्तव्य भी बनता है। इसका अतिरेक और उद्दंडता जैसा रुख़ अख्तियार करना किसी भी तरह शोभा नहीं देता। पर इससे संगीन बात यह है कि संसद के सदनों की कार्यवाही को रोकना, ठप करना और सरकार को बाधित करना जायज़ नहीं ठहरता।
उल्लेखनीय है कि माननीय सांसद गणों द्वारा इस तरह ग़ैर ज़िम्मेदारी से काम करना करोड़ों रूपयों की भी बर्बादी करता है। यह फ़िजूल खर्ची का सबब बनाता है जो संसद की कार्यवाही संचालित करने पर खर्च होता है जिसकी भरपाई जनता से की जाती है। सांसद की गरिमा को तार-तार करते विभिन्न घटनाओं और अवसरों का दर्शन आम जनता भी करती रहती है। टीवी पर प्रसारित संसद की कार्यवाही देखने का नुक़सान देने वाला असर दर्शकवृंद पर यदि पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। भारत में बड़े लोगों का आचरण देख उसको अपनाना एक सहज स्वाभाविक व्यवहार है जैसा कि इस उक्ति से प्रकट होता है महाजनो येन गत: सपंथा:।
संसदीय हंगामे की भेंट चढ़ता संसद का यह सत्र लोकतंत्र पर दाग सरीखा लगता है। यह बेहद खेदजनक घटना है जब सौ से ज्यादा- 143 सांसद निलम्बित किए गए हैं। अपने कि़स्म की यह शायद पहली वारदात होगी। लोकतंत्रीय जीवन का यह हादसा बताता है कि देश का संसदीय जीवन का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। सांसद गण की आचरण में ग़ैर संजीदगी कम होने का कोई आसार नहीं दिखता। माननीय उपराष्ट्रपति की एक माननीय सांसद द्वारा मिमिक्री करना और उसे अपनी कलाप्रदर्शन का हिस्सा कहना सभ्य आचरण से परे ही कहा जाएगा। याद करें यह थोड़े दिनों के बाद ही हुआ जब एक सांसद को असंसदीय ढंग से प्रश्न पूछने के मामले में अपनी संसदीय सदस्यता से हाथ धोना पड़ा था। संसद में वक्तव्यों, विवेचनों और प्रस्तुतियों का तथ्यपरक होना एक आधारभूत मानक है जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वैसे ही आचरण का औचित्य भी एक गंभीर मसला है।
भारतीय संसद की गौरवशाली परंपरा ऐसी न थी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू संसद में थे और अध्यक्ष की कुर्सी पर डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन आसीन थे। नेहरू जी एक अन्य सांसद से बात करते दिखे । यह देख अध्यक्ष ने भरी सभा में टोका कि आप क्या कर रहे हैं और नेहरू जी ने इस व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी थी। इसी तरह श्री मावलंकर लोकसभा के स्पीकर थे और नेहरू जी एक बार किसी मुद्दे पर बोल चुके थे और दुबारा बोलने के लिए उठने पर स्पीकर ने मना कर दिया था क्योंकि तब ऐसी ही व्यवस्था थी।
स्मरणीय है कि वह ऐसा समय था जब नेहरू जी की पूरे देश में हार्दिक जनस्वीकृति थी और नेतृत्व सर्वस्वीकृत था परंतु नियमों और मानकों का सम्मान उनके लिए और सबके लिए आवश्यक था। आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश के कल्याण की ही बात करते हैं। संसद की सुरक्षा में बाहरी व्यक्ति द्वारा सेंध लगाना अक्षम्य है पर उस पर संसद की व्यवस्था को भंग करते हुए हंगामा क्या कहा जाएगा? यह दुखद है कि इससे मिलते-जुलते विरोध प्रदर्शन लगातार होते आ रहे हैं। संसद कोई रंगमंच नहीं है और सांसद कोई अभिनेता नहीं हैं। लोकतंत्र की रक्षा सबका दायित्व है और इसके लिए सांसदगण संसद के संचालन को हल्के में न लें।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)