एक साथ, एक लक्ष्य, एक जुनून लेकर जब देश भर के लोग मैदान में उतरे तभी स्वतंत्रता मिली। विश्वविद्यालयों ने इस दौरान देश की चेतना को जाग्रत किया। विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने युवा पीढ़ी में नई चेतना और विचार का संचार किया। 'कोई चरखा चलाता था वो भी आजादी के लिए, कोई विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करता था, वह भी आजादी के लिए, कोई काव्य पाठ करता था, वह भी आजादी के लिए। कोई किताब या अखबार में लिखता था वो भी आजादी के लिए। कोई अखबार के पर्चे बांटता था वह भी आजादी के लिए। यह बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकसित भारतञ्च2047 के लॉन्चिंग पर कहीं। जाहिर है प्रधानमंत्री समझते हैं कि युवा शक्ति साथ हो तो कोई भी लक्ष्य मुश्किल नहीं। इसी युवा शक्ति को संवारने के लिए उन्होंने 2014 से अब तक कई प्रयास किए। वो समझ रहे हैं कि कालखंड कोई भी हो युवा शक्ति के सहारे मुश्किल राहें आसान हो जाती हैं। छोटी-छोटी पहल जन अभियान का रूप ले लेती हैं। इस युवा शक्ति को संवारने में शिक्षकों का भविष्य सबसे अधिक मायने रखता है। उनके जीवन का स्थायित्व देश के वर्तमान और भविष्य को और अधिक उड़ान देगा।
कुछ ऐसा ही नजारा दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों का है, जहां तदर्थवाद से मुक्ति और स्थाई नौकरी की दिशा में पहल ने जनअभियान का रूप ले लिया है। युवा शक्ति को दिशा देने की जिम्मेदारी जिस शिक्षक समुदाय पर है वही तदर्थवाद का शिकार लंबे समय से रहा है। चाहे बात दिल्ली विश्वविद्यालय की हो या देश भर में रुकी अन्य स्थायी नियुक्तियों की। मोदी सरकार ने दस लाख लोगों को रोजगार देने की दिशा में पहल की। समय-समय पर रोजगार मेले कर खुद प्रधानमंत्री और सरकार लाखों लोगों को स्थाई रोजगार के सपने को साकार कर चुकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय सहित अन्य विश्वविद्यालयों में 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुई। पाठ्यक्रम को समयानुकूल बनाया गया, ताकि छात्रों का भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।
दिल्ली विश्वविद्यालय भी इस पहल से अछूता नहीं रहा। कुलपति प्रो.योगेश सिंह ने पांच हजार से अधिक सीटों को भरने का बीड़ा उठाया। जाहिर है कोई भी समाज विद्यार्थियों का भविष्य शिक्षकों के भविष्य से अलग करके नहीं देख सकता है। शिक्षकों के जीवन की अनिश्चितता दूर करने के लिए स्थायी नियुक्ति आवश्यक है। शिक्षा में लंबे समय से चल रही तदर्थवाद की व्यवस्था दोनों पीढ़ी के साथ खिलवाड़ था। 15 दिसंबर 2023 तक चार हजार नियुक्तियां दिल्ली विश्वविद्यालय में हो चुकी हैं। इसमें तीन हजार तदर्थ शिक्षक शामिल हैं जो कि स्थायी नियुक्ति पाने में सफल हुए। नौ सौ साथी रोस्टर में परिवर्तन के कारण बाहर हुए। बाहर होने वालों में 550 तदर्थ की नियुक्ति कहीं न कहीं हो चुकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय में समय से इंटरव्यू न होने से बैकलॉग निरंतर बढ़ता गया। नियुक्ति समय से नहीं होने के कारण ही आज यह दशा हुई कि एडहॉक से कई साथी रिटायरमेंट लेने को विवश है।
कुलपति प्रो.योगेश सिंह ने यह बीड़ा उठाया और एक वर्ष में चार हजार स्थायी नियुक्तियां करवाई। अभी भी एक तिहाई इंटरव्यू होने बाकी है। इन वेकेंसिस पर एडहॉक, गेस्ट और कॉन्ट्रैक्ट टीचर्स काम कर रहे हैं। उन्होंने कुछ दिन पूर्व नवनियुक्त शिक्षकों को एकत्र किया। वह दृश्य देखने योग्य था। स्टेडियम में बैठने का स्थान नहीं दिख रहा था। सभी कुर्सियों पर नवनियुक्त शिक्षक बैठे थे। यह कार्य यदि समय पर हुआ होता तो यह स्थिति नहीं होती। कितने ही लोगों का भविष्य इस गेस्ट और तदर्थवाद के चंगुल से मुक्ति पाने को छटपटा रहा था। कई पीढ़ियां गेस्ट और तदर्थ पद से रिटायर तक हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय में एक विभाग ऐसा भी है जहां 1991 के बाद स्थायी नियुक्तियां नहीं हुई है। ऐसी ही स्थिति कई विभागों में देखी जा सकती है।
किसी को तदर्थ शिक्षकों का दर्द नहीं दिखाई दिया। ऐसा भी नहीं है कि इस दौरान शिक्षक संगठन सक्रिय नहीं थे, लेकिन तदर्थवाद से मुक्ति का यह दौर राजनीति की भेंट चढ़ता रहा। पांच हजार से अधिक प्रोफेसर को प्रमोशन दिलाने को भी सफल कार्य कुलपति के माध्यम से अब तक किया जा चुका है। कई नये विभाग भी इस दौरान खोले गये है जो भारतीय ज्ञान परंपरा को पोषित करने में सफल योगदान देते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय का नजारा बदला-बदला सा प्रतीत हो रहा है और यह सुखद भी है। उम्मीद की जा सकती है कि प्रधानमंत्री के संकल्पों पर खरा उतरने का जिस तरह का प्रयास कुलपति प्रो.योगेश सिंह ने शुरू किया वह सिलसिला अन्य जगहों पर भी चल रहा होगा। बदलाव की बयार का लाभ शिक्षक और छात्र समान रूप से उठाने में कामयाब होंगे।
(लेखिका दिल्ली विवि के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में सहायक आचार्य हैं)