वोट डालने के पहले कृपया एक मिनट ...

विजय मनोहर तिवारी

Update: 2023-11-15 20:15 GMT

वोटिंग का क्या महत्व है? क्या केवल एक वोट डालने की रस्म? एक वोट की क्या ताकत है? क्या केवल एक प्रतिनिधि का चुनाव? एक विधानसभा की क्या ताकत है? क्या एक पार्टी को सत्ता सौंप देना? किसी भी पार्टी को सत्ता सौंप देने के क्या अर्थ, परिणाम और दुष्परिणाम हो सकते हैं, अब तक सब प्रकार के चुनावी अनुभव जनता को हैं। सबको आजमाया गया है। कोई बचा नहीं है। किसी को सत्ता में लंबा समय भी मिला और और कोई लंबे समय तक वंचित भी रखा गया। सत्ता परिवर्तन के सब तरह के स्वाद हमने चखे हैं। एक बार पुन: निर्णय की वेला है। ये चुनाव राज्य के हैं। केंद्र की शक्तियाँ राज्य से होकर ही जनपदों तक प्रवाहित होती हैं। जब केंद्र और राज्य एक फ्रिक्वेंसी पर होते हैं तो डबल इंजन का लेबल लगता है। डबल इंजन के परिणाम भी हमारे अनुभव में हैं और विपरीत दिशा में लगे दो अलग इंजनों के अनुभव भी।

विकास एक लंबी यात्रा है, जिसमें हरेक सरकार कुछ न कुछ ईंट-गारा-पत्थर जोड़ती है। विजन साफ है, इच्छा शक्ति मजबूत है तो अल्प समय में कोई एक ही सरकार कमाल करती हुई दिख जाती है और कमजोर विजन के साथ लचर इच्छा शक्ति वाली सरकारें समय काट कर चल बसती रही हैं। वे राज्यों को बीमारू और रोता-बिलखता अपने पीछे छोड़ जाती हैं। उनके छोड़े गड्ढों को भरने में जिसने तत्परता दिखाई, जनता ने उन्हें बार-बार भी चुनकर आजमाया है। सत्ता में आकर किसी ने खाने-कमाने में दिलचस्पी ली और कोई ओवर कॉन्फिडेंस में इतराया है तो आपके ही एक वोट ने उसे बेलेट बॉक्स से लेकर ईवीएम तक टंगड़ी मारी है और मुँह के बल उन्हें गिराया है, जिनकी गर्दनें अकड़ गई थीं।

एक वोट की यही ताकत है। यह केवल रस्म अदायगी नहीं है। यही शक्ति है जो स्वतंत्रता ने आपको दी है। धैर्य और बुद्धिमत्तापूर्वक इस शक्ति के सदुपयोग की सर्वाधिक आवश्यकता आज है। मौजूदा सरकार को गिराने के जितने कारण आपके पास होंगे, विपक्ष को सत्ता में नहीं लाने के भी उतने कारण आपको मिल जाएँगे। तो दो तरह से सोचने की जरूरत है, पार्टियों से हमारी क्या अपेक्षाएँ हैं और देश को पार्टियों से क्या अपेक्षाएँ है? पार्टियाँ हमारी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरी हैं और देश की अपेक्षाओं पर कितना? वोट डालने के ठीक पहले वाले सेकंड तक 360 डिग्री पर इन दोनों सिरों पर सोच विचार आवश्यक है।

सत्ता में आकर पार्टियों का काम केवल विकास करना भर नहीं है। मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर की अहमियत प्राइमरी क्लास के पेपर से ज्यादा नहीं है, जिसे हर हाल में ठीक होना ही चाहिए। वह तो करना ही है। मगर किसी भी देश की मजबूती किसी विचार और किसी दर्शन पर निर्भर करती है। विचारधाराएँ ही देश, सभ्यता और संस्कृति को एक आकार में ढालती हैं। विश्व पटल पर कोई देश किसी विचार के सहारे ही आगे बढ़ा हुआ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है या गर्त में पड़ा रहता है। विचार महत्वपूर्ण है, दर्शन महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता का महान विचार एक दल को संघर्ष के सहारे देश की सत्ता तक लाया था और विभाजन की विभीषिका से निकलकर भारत ने आधुनिक विश्व में कदम रखा था। हर समय के अपने सवाल होते हैं। हर समय की अपनी चुनौतियाँ होती हैं। हर समय के अपने संकट होते हैं। पुरानी दवाएँ अक्सर काम नहीं आतीं। हमें नए तरीके और नए-नए विचार आजमाने ही होते हैं। हर समय की चुनौतियों के अनुसार देश को नई दिशाओं और नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए नए विचारों की आवश्यकता होती ही है। केवल संघर्ष के योगदान के सहारे कोई कब तक टिका रहता। ऐसे दिमाग दिवालिया हो चुके थे। एक्सपायरी डेट की केवल दवाएँ ही नहीं होतीं, विचार भी हो सकते हैं!

नए भारत की नई समस्याएँ थीं। नए संकट थे। नई चुनौतियाँ थीं और वे कश्मीर से लेकर अयोध्या तक पर्याप्त पसरी थीं। नीति-निर्णयों में मनमानियाँ थीं, पक्षपात थे, कमजोरियाँ थीं, सामंतवाद था, परिवारवाद था, करप्शन तो जड़ों में जाकर जम गया था। एक वोट की ताकत ने वह सड़ी-गली व्यवस्थाएँ राज्यों से लेकर केंद्र तक उलट दीं। एक नया विचार नई आशाएँ लेकर आया। भारत की जड़ों को पोषण देने का विचार और विचारों के अनुसार निर्णय लेने का साहस। केंद्र या राज्य की सत्ताओं को वह साहस हमारे-आपके एक वोट से ही मिलता है। भारत आज जिस प्रकार की वैश्विक चुनौतियों के बीच खड़ा है, उसके लिए आवश्यक है कि भारत केंद्रित एक स्पष्ट विचारधारा को जनता को जहाँ अवसर मिले, हर स्तर पर शक्ति प्रदान करे। विचारों के चुनाव की इस प्रक्रिया में व्यक्ति एक निरीह निमित्त मात्र है, जो प्रत्याशी के रूप में अवसर पा गया है। प्रत्याशी वोटर के सबसे निकट, पार्टी का जीवंत, साकार और परिचित प्रतिनिधि होता है। अगर वह पहले से चुना जाता रहा है तो उसके 'विराट रूपÓ के बारे में वोटरों को सब पता है। वोटर की दुविधा का वही एकमात्र कारण है। उसका विराट रूप ऐसा है कि विचार का पक्ष वोटर के लिए व्यर्थ हो सकता है। बस उसे निपटाना है, यही लक्ष्य हो सकता है। भाग्य के धनी ऐसे प्रत्याशियों को निपटना ही चाहिए, जो एक या दो अवसर मिलने पर भी जनता का विश्वास प्राप्त न कर सके हों। ये लोग जनता की नजर में तो बोझ हैं ही, पार्टियों के लिए भी बड़े बोझ बन चुके हैं। बस जनता की निगाह से उतरे हुए ऐसे नेताओं की आर्थिक क्षमता ही उनकी सफलता की कसौटी बन जाती है कि उनके आगे पार्टियाँ भी पानी भरती दिखाई देती हैं। वह अपने नेताओं को परम प्रसन्न कर सकते हैं, चुनाव का खर्चा हँसते-हँसते वहन कर सकते हैं, जीतने लायक भरपूर ताकत है, पार्टियों को और क्या चाहिए?मगर वोटर को चाहिए। वोटर को चाहिए कि वह ऐसे संवेदनशील समय में विचार को महत्व दे, व्यक्ति को नहीं। विचार की आयु दीर्घ होती है और किसी भी राष्ट्र के जीवन में वही दूर तक गति करता है। व्यक्तियों को कौन कब तक याद रखता है? एक वीडियो उनकी शान में चार चाँद भी लगा सकता है और एक ही वीडियो उनकी साख धूल में मिलाकर हमेशा के लिए हाशिए पर ले जा सकता है। वे हमेशा टिकट नहीं पाते रह सकेंगे, पा भी गए तो कभी हारेंगे भी, कभी तो मरेंगे। कितने बड़े-बड़े नेता आए और चले गए। कितनों के नामलेवा शेष हैं। विचार की सत्ता अक्षुण्ण है। वही देश को ऊर्जा और दिशा देती है। व्यक्तियों के कलपुरजे घिसते-गिरते रहते हैं!

मैं किसी पार्टी या किसी प्रत्याशी विशेष के समर्थन या विरोध में नहीं हूँ। मगर मानता हूँ कि देश जिस मोड़ पर आकर खड़ा है, उसे स्पष्ट विचार और मजबूत इच्छाशक्ति वाले विश्वसनीय नेतृत्व की पंचायत से लेकर प्रदेश और केंद्र तक सत्ता की हर कड़ी में आवश्यकता है। कम से कम स्वतंत्रता के सौ वर्ष तक भारत को इसकी आवश्यकता है। अगले 25 वर्ष देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

वोटरों को मैं कहूँगा कि वे एक मिनट संतुलित होकर विचार करें। अगर उन्हें लगता है कि किसी कम्बख्त प्रत्याशी को हराना हर हाल में आवश्यक है, इतना कि एक पल के लिए अन्य आवश्यक पक्षों को तिलांजलि दी जा सकती है तो बिना देर किए उसके विरुद्ध ही वोट करें, उसे सबक सिखाने में बिल्कुल देर न करें और पार्टियों को यह संदेश दें कि उम्मीदवार के रूप में आपने एक गलत आदमी को हमारे पास भेजा, हमें यह मंजूर नहीं था। अगर पल भर के लिए लगता है कि प्रदेश या देश के दूरगामी हित के लिए व्यक्ति से ऊपर उठकर सोचने की गुंजाइश है तो वैसा ही करना उचित है। यह जताकर वोट करें कि आपका वोट पार्टी और विचारधारा के लिए ही है, प्रत्याशी तो दो कौड़ी का दिया गया था।

पहली बार आपका यह एक वोट, दोयम दरजे के प्रत्याशियों के लिए भी एक दर्पण की तरह हो गया, जिसमें नतीजे आने तक उन्हें अपना कालिख भरा चेहरा अवश्य देखना चाहिए। अगर बुद्धि है और वह केवल धन अर्जित करने के एकसूत्रीय काम में नहीं लगी रही है तो ऐसे प्रत्याशियों को यह सचमुच आत्मदर्शन का समय है कि वे राजनीति में क्यों आए? वे यह न भूलें कि जागरूक जनता की पैनी नजर उन पर है। उनकी हर हरकत पहले से अधिक स्पष्ट रूप से देखी, सुनी और समझी जा रही है। अगर वे सत्ता दल में हैं तो उन्हें दूसरों से बहुत अधिक चौकन्ना होने की जरूरत है, क्योंकि उनसे अपेक्षाएँ भी कुछ अधिक हैं। जनता से जुड़ाव, जनहित की बेदाग राजनीति और साहसी निर्णय लेने की क्षमता उन्हें जीवन भर राजनीति में टिकाए रखेगी। वर्ना दो-एक चुनाव बाद ही वे इतिहास के कूड़ेदान में चले जाएँगे, जहाँ पहले का भी काफी कचरा जमा है। यह उन्हें तय करना है कि वे समय के अनुसार सुधरने को तैयार हैं या नहीं!

मेरी दृष्टि में विधानसभा के होकर भी ये चुनाव देश के भावी और दूरगामी हित के चुनाव हैं। पंचायत से लेकर हर विधानसभा एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में एक मजबूत ईंट है। एक-एक सीट भूमिगत जल की उस बूंद की तरह है, जो सोर्स को रिचार्ज करती है। वोट की शक्ति का उपयोग करने से पहले हममें से कौन नहीं चाहेगा कि भारत जातिवादी जहर से मुक्त हो, भारत की जड़ों से गर्वपूर्वक जुड़ा नेतृत्व हर स्तर पर हर पार्टी में उभरे, भारत की आध्यात्मिक शक्ति की ध्वजा विश्व में फहराए, वह अंदर-बाहर आतंकी शक्तियों का साहसपूर्वक सामना कर सके, हर स्तर पर आर्थिक भ्रष्टाचार खत्म हो, प्रशासन जनहितैषी हो, एक समान कानून सबके लिए हो, एक ऐसा देश जो अपनी समस्याओं पर खुलकर बात कर सके और जब स्वतंत्रता के सौ साल का उत्सव आए तो नई पीढ़ी को उजले भविष्य के प्रति यह देश आश्वस्त कर सके। यह एक विचार है, जो देश के लिए है। एक प्रत्याशी की भूमिका भी इसमें बड़ी है, यह उसे भी सोचना है और पसंद या नापसंद के उस प्रत्याशी से ऊपर सोचना वोटर का काम है, क्योंकि वोटर का निर्णय पूरे प्रदेश के लिए प्रभावकारी होगा, जो अंतत: केंद्र की दिशा और गति दोनों में सहायक या बाधक सिद्ध होने वाला है!

(लेखक मध्यप्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त हैं )

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