सैकड़ों साल बाद भारतीय समाज का स्वरुप, चरित्र एवं चिंतन की व्याख्या का दायरा और उसके मूल्यों को मापने व परखने का मापदण्ड क्या होगा इसकी भविष्यवाणी आज संभव नहीं है। लेकिन जब भी असमानता और अन्याय पर आधारित समाज के खिलाफ तनकर खड़े होने वाले राजनीतिक पुरोधाओं का मूल्यांकन होगा किसान नेता चौधरी चरण सिंह सदैव याद किए जाएंगे। उनका सामाजिक-राजनीतिक अवदान दबे-कुचले वंचितों, शोषितों एवं पीड़ितों की चेतना को मुखरित करने के लिए याद किया जाएगा।
हर समाज की भेदभावपरक व्यवस्था ही व्यक्ति के विचारों को तार्किक आयाम और जोखिम उठाने की ताकत देती है और साथ ही सामाजिक अन्याय से मुठभेड़ का माद्दा भी। चौधरी चरण सिंह इसमें सफल रहे। हाशिए पर खड़े लोगों में राजनीतिक चेतना का संचार किया और समाज में असमानता पैदा करने वाली परंपराओं और मूल्यों पर जमकर हमला बोला। राजनीति के विराट संसार में उनका प्रवेश तब हुआ जब गांधी ब्रिटिश पंजे से भारत को मुक्त कराने की जंग लड़ रहे थे। 1930 में गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान चरण सिंह ने हिंडन नदी पर नमक बनाकर उनका समर्थन किया। उन्होंने गांधी जी के साथ जेल की यात्रा की। दिल्ली से नजदीक गाजियाबाद, हापुड़, मेरठ, मवाना और बुलंदशहर के आसपास क्रांति का बीज रोपा। गुप्त संगठन खड़ा कर ब्रितानी हुकूमत को चुनौती दी। इससे खौफजदा ब्रितानी ताकत ने उन्हें गोली मारने का फरमान सुनाया। लेकिन उनके इंकलाबी तेवर कमजोर नहीं पड़े। उन्होंने भारत माता की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प ठान लिया। उन्होंने डटकर ब्रितानी हुकूमत की चुनौतियों का आंलिगन किया। जनता के बीच सभा करते हुए एक दिन पकड़ लिए गए। राजबंदी के रुप में डेढ़ वर्ष की सजा हुई। किंतु इस सजा कालखंड का भी उन्होंने सदुपयोग किया। जेल में रहकर 'शिष्टाचारÓ नामक ग्रंथ की रचना की जो भारतीय संस्कृति और समाज के शिष्टाचार के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालती है। आजादी के उपरांत वे किसानों के ताकतवर नेता बनकर उभरे और भारत के किसानों ने उनमें एक मसीहा की छवि देखी। 1952 में उन्हें डा. संपूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में राजस्व तथा कृषि विभाग का उत्तरदायित्व संभालने का मौका मिला। इस उत्तरदायित्व का भली प्रकार निर्वहन किया। उनके द्वारा तैयार किया जमींदारी उन्मूलन विधेयक कल्याणकारी सिद्धांत की अवधारणा पर आधारित था। इस विधेयक की बदौलत ही 1 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और गरीबों को उनका अधिकार मिला। लेखपाल पद के सृजन का श्रेय भी चौधरी चरण सिंह को ही जाता है। किसानों के इस मसीहा ने 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया। 1960 में भूमि हदबंदी कानून को लागू कराने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। आसमान छूती लोकप्रियता के दम पर वे 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने समाज व अर्थव्यवस्था के गुणसूत्र को बदलने का मन बना लिया। उन्होंने किसानों, मजदूरों और हाशिए पर खड़े लोगों की समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण फैसले लिए। उनकी बढ़ती लोकप्रियता से विरोधी उनके खिलाफ मुखर होने लगे। उन पर जातिवादी, दलित और अल्पसंख्यक विरोधी होने का आरोप चस्पा किया जाने लगा। 17 अप्रैल 1968 को वे मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिए लेकिन जनमानस के नायक बने रहे। किसानों में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी। मध्यावधि चुनाव में वह 'किसान राजाÓ के नारे के साथ मैदान में उतरे और विरोधियों पर शानदार जीत अर्जित की। 17 फरवरी 1970 को वे पुन: मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए। अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कृषि में आमूलचूल परिवर्तन का रोडमैप तैयार किया। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए उर्वरकों से बिक्री कर हटा ली। सीलिंग से प्राप्त भूमि को गरीबों में वितरित किया। चरण सिंह अपनी योग्यता और लोकप्रियता के दम पर केंद्र सरकार में गृहमंत्री बने। पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उनका हक दिलाने के लिए मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। 1979 में वे वित्तमंत्री और उपप्रधानमंत्री बने और राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की। 28 जुलाई, 1979 को वे देश के प्रधानमंत्री बने। तब उन्होंने कहा था कि 'देश के नेताओं को याद रखना चाहिए कि इससे अधिक देशभक्तिपूर्ण उद्देश्य नहीं हो सकता कि वे यह सुनिश्चित करें कि कोई भी बच्चा भूखे पेट नहीं सोएगा, किसी भी परिवार को अपने अगले दिन की रोटी की चिंता नहीं होगी तथा कुपोषण के कारण किसी भी भारतीय के भविष्य और उसकी क्षमताओं के विकास को अवरुद्ध नहीं होने दिया जाएगा।Ó किंतु देश का दुर्भाग्य कि उन्हें यह सपना पूरा करने का मौका नहीं मिला। वह प्रधानमंत्री के पद पर कुछ ही दिन रहे। इंदिरा गांधी ने बिना बताए ही उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया। दरअसल इसका कारण यह रहा कि इंदिरा गांधी पर जनता पार्टी की सरकार ने कई मुकदमे लगा रखे थे। वह चाहती थी कि चौधरी साहब समर्थन के एवज में उन मुकदमों को हटाने का भरोसा दें। लेकिन चौधरी साहब को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने सौदेबाजी को खूंटी पर टांग प्रधानमंत्री पद को ठोकर लगाना बेहतर समझा। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपनी ईमानदार और सिद्धांतवादी राजनेता की छवि को खंडित नहीं होने दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)