भारत में कथावाचकों की प्राचीन परम्परा रही है। आम जनता को धर्म की शिक्षा देने का कार्य भ्रमण करने वाले संन्यासियों, घर-घर जाकर गीतों के माध्यम से कथा सुनाने वाले जोगियों, कथावाचकों और नृत्य,नाटक आदि के माध्यम से भगवान की लीलाएँ प्रदर्शित करने वाले कलाकारों के हाथ में था। स्थानीय पुजारी भी त्योहारों और व्रतों के अवसर पर उनसे संबंधित कथाएँ सुनाते थे। ऐसे ही कथावाचक परिवार में 1 नवंबर 1924 को जबलपुर में जिस बालक का जन्म हुआ उसे रामकिंकर अर्थात् राम का सेवक नाम दिया गया। बचपन से ही मेधावी रामकिंकर 18 वर्ष की उम्र में अपने पिता के साथ बिलासपुर गये जहाँ उनके पिता की कथा का आयोजन था। संयोग से वहीं उन्हें कथा सुनाने का अवसर मिला और इस 18 वर्षीय युवा की शैली की नवीनता और चिन्तनप्रधान विचारधारा ने श्रोताओं को विस्मय विमुग्ध कर दिया। रामकथा का यह जादू समय के साथ बढ़ता गया और रामकिंकर जी के प्रशंसकों में प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद, अटलविहारी बाजपेयी, महादेवी वर्मा जैसे दिग्गजों के अलावा संत सिरोमणि उड़िया बाबा, हरिबाबा, स्वामी अखंडानन्द और स्वामी तेजोमयानंद जैसी आध्यात्मिक हस्तियाँ शामिल होती गईं। उनके श्रोताओं की संख्या तो लाखों में थी। उन्होंने हजारों प्रवचन दिये जिन पर 100 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 1999 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
कथाएँ प्रत्येक धर्म का अनिवार्य अंग हैं। सेमेटिक धर्मों, जिसमें इस्लाम, ईसाई और यहूदी शामिल हैं, की कथाओं में चमत्कार का तत्व बहुतायत से है। यह धर्म अपने अनुयायियों को विश्वास कराते हैं कि वह जो कह रहे हैं वही अंतिम सत्य है। उनके अलावा धर्म का अन्य कोई सच्चा मार्ग संभव ही नहीं है। दूसरी ओर सनातन धर्म, सत्य की ओर संकेत भर करता है और अनुयायी का कार्य है कि वह मार्ग पर चलकर अपनी अनुभूति स्वयं करे। इसलिए इसकी कथाएँ, चमत्कार के माध्यम से किसी पराशक्ति पर विश्वास करने को बाध्य नहीं करतीं वरन् बोध पैदा करती हैं।
रामकिंकर जी को अन्य कथावाचकों से पृथक करने वाली बात को जानने के लिए जरूरी है कि पहले परम सत्य की अनुभूति और उसे अभिव्यक्त करने की पहेली को समझा जाए। संसार में मृत्यु जितनी रहस्यमय है उतना ही जन्म भी, और जीवन भी उससे कम रहस्यमय नहीं है। इसी पहेली को सुलझाने का प्रयास धर्म ने किया है। सनातन महर्षियों ने शरीर, मन, बुद्धि और अहंकार को मिथ्या माना क्योंकि इनका जन्म हुआ है और यह समाप्त भी होते हैं। उन्होंने ध्यान की अवस्था में शरीर से परे जाकर उस तत्व का अनुभव किया जो अनादि-अनन्त है और जिसके कारण जीवन का अस्तित्त्व है। इसे उन्होंने ब्रह्म कहा । इस अनुभव को बताने के लिए वाणी अर्थात् शरीर का सहारा लेना पड़ेगा जबकि जो अनुभूति है वह शरीर से परे की चीज है। इसलिए वाणी उसे व्यक्त करने में असमर्थ है। यह अनुभव मन्त्र के रूप में वेदों में प्रकट हुए। पर मंत्र भी हर किसी के वश की बात नहीं हैं। इसलिए उसका दार्शनिक विस्तार उपनिषदों में किया गया। रामायण और महाभारत जैसे इतिहास ग्रंथों और पुराणों में कथाओं के माध्यम से परोक्ष रूप से इसी सत्य का बोध कराने का प्रयास किया गया। यदि वेदों का सामान्य परिचय नहीं होगा तो यह कथा कपोल कल्पनाएँ लगेंगीं और यदि इन कथाओं की जानकारी नहीं होगी तो वेद समझ में नहीं आएंगे। संस्कृत का एक श्लोक है कि पुराण न जानने वाला व्यक्ति यदि वेद अध्ययन करता है तो वेद भी भयाक्रांत हो जाते हैं कि वह उनका न जाने क्या अनर्थ कर देगा।
इस प्रकार, पहले अंतर में सत्य का बोध होता है और फिर दूसरों के लिए उसकी अभिव्यक्ति कथाओं के रूप में होती है। सत्य की अनुभूति असंख्य लोगों को असंख्य तरीके से हुई इसलिए कथाएँ भी असंख्य हैं। यह अनुभूति ही ब्रह्म (राम) का अवतार है और उसकी अभिव्यक्ति की कथा ही रामायण है। इसलिए तुलसीदासजी ने लिखा है- नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा।। इसी क्रम में उन्होंने रामचरितमानस की रचना की जो जन-जन का ग्रंथ बन गया। मानस के पाठन, पारायण, वाचन और रामकथा की परम्परा चल पड़ी। परंतु इसकी व्याख्या कथा और लीला के रूप में अधिक होने लगी थी। अध्यात्मिक तत्व विलुप्त सा होने लगा था। इस कमी को पूरा किया रामकिंकरजी ने। जब सत्य को कथा के रूप में कहा जाता है तब उसमें माधुर्य होता है, रस होता है, भक्त के लिए संबल होता है परंतु जब उसे अध्यात्मिक तत्व के रूप में व्यक्त करते हैं तो वह क्लिष्ट और बोझिल हो जाता है। रामकिंकर जी ने कथा और अध्यात्मिक तत्व के बीच अद्भुत संतुलन बनाया। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान और भक्ति का समन्वय कर दिया।
उन्होंने राम को ज्ञान, सीता को भक्ति और लक्ष्मण को वैराग्य बताया। इसी प्रकार अन्य पात्रों की व्याख्याएँ कीं परंतु इसमें कहीं भी राम के अवतार, कृपालु, शरणागतवत्सल स्वरूप में कमी नहीं आई। तुलसीदासजी ने मानस में कहा है कि यह रचना विभिन्न पुराण, वेद, रामायण के अलावा कुछ अन्यत्र उपलब्ध रामकथाओं के आधार पर रची गई है। इस अन्यत्र उपलब्ध (क्वचिदअन्यतोह्यपि) तत्व को रामकिंकर जी ने प्रकट कर दिया। उन्होंने मानस के अध्ययन के लिए नवीन दृष्टि और दिशा दी।
उनकी व्याख्या इतनी अद्भुत और विशद् होती थी कि वह एक ही चौपाई पर कई दिनों तक बोल सकते थे और यह कहा जाता था कि क्या तुलसीदास जी ने भी मानस लिखते समय ऐसा सोचा होगा डॉ. सुरेशचंद्र शर्मा जी के अनुसार इसका उत्तर यही है कि जिस परम सत्य का दर्शन करके तुलसीदासजी ने रामचरितमानस की रचना की, रामचरितमानस के माध्यम से रामकिंकरजी ने भी उसी परम सत्य का अनुभव किया । दोनों के मार्ग दो हैं परन्तु लक्ष्य एक ही है। तुलसी परम सत्य से कथा तक गये तो रामकिंकरजी कथा से परम सत्य तक। एक के लिए कथा, सत्य को बताने का तरीका थी तो दूसरे के लिए सत्य तक पहुँचने का मार्ग। तुलसी वेद से पुराणों की यात्रा है तो रामकिंकरजी पुराण से वेद की। दोनों का वर्णन एक ही तत्त्व का है, तरीका भर पृथक है। इसलिए यह प्रश्न ही नहीं उठता कि तुलसीदास जी ने ऐसा सोचा होगा या नहीं जैसा कि रामकिंकरजी ने कहा।
उन्हें युग तुलसी, मानस मर्मज्ञ, पद्मविभूषण आदि उपाधियाँ मिलीं पर वे सदैव अपने को राम का छोटा सा किंकर (सेवक) ही मानते रहे। वह केवल कथावाचक नहीं बल्कि प्रज्ञापुरुष और सन्त थे। अवधूत उड़ियाबाबा कहते थे कि 'रामकिंकर के माध्यम से साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हो रहा है।Ó वह स्वयं इतने विनम्र थे कि उन्होंने अपनी व्याख्याओं का श्रेय नहीं लिया। वह कहते थे कि 'मौलिक कोई वस्तु नहीं होती। दिखाई वही देता है जिसका पहले से अस्तित्त्व होता है। ईश्वर जिससे जो सेवा लेना चाहते हैं वह वस्तु या ज्ञान उसे दिखा देते हैं।Ó उनके ज्ञान का स्तर इतना उच्च था कि वह बगैर किसी औपचारिक डिग्री के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विजटिंग प्रोफेसर रहे। 9 अगस्त 2002 को वह उसी राम के धाम चले गये जिसका किंकर बनकर वह जीवनभर कथा कहते रहे। उनकी कर्मभूमि अयोध्या में रामायणम आश्रम में समाधि है जहाँ के कण-कण में उनकी उपस्थिति का आभास आज भी होता है।
(लेखक आईएएस अधिकारी एवं धर्म और अध्यात्म के साधक हैं)