क्रांतिकारी युगपुरुष गुरु तेग बहादुर

शिवकुमार शर्मा

Update: 2023-11-23 20:03 GMT

राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद, भारत, भारतीयताऔर भारतीय सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए जिन त्यागी, बलिदानी और क्रांतिकारी युगपुरुषों ने अपने प्राणों को तुच्छ समझ कर मौत को ललकारते हुए हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी है, उनमें सिख परंपरा के पूज्य गुरु तेग बहादुर का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी विक्रम संवत 1678 (1 अप्रैल 1621 ई.) को अमृतसर में गुरु हरगोबिंद सिंह और माता नानकी के यहां हुआ था। अपने बहन भाइयों में वे सबसे छोटे थे। गुरु तेग बहादुर के बचपन का नाम त्यागमल था। उनके बचपन में ही सिख और मुगलों के खूनी संघर्ष की ऐसी घटनाएं घटित हुई जो उन्हें क्रांतिकारी परिवर्तनों की ओर खींच ले गई। उनकी शिक्षा दीक्षा की समुचित व्यवस्था की गई थी जिसके चलते उन्होंने पढ़ाई के अतिरिक्त गुरुबाणी, धर्म ग्रंथ का अध्ययन किया एवं शस्त्र एवं घुड़सवारी में भी निपुणता हासिल की। मुगल शासक पंजाब में किसी भी कीमत पर गुरु सत्ता की उपस्थिति नहीं चाहते थे इसलिए गुरु परंपरा से झगड़ा करने पर उतारू थे। इन्हीं परिस्थितियों में हुए संघर्ष में मुगलों की क्रूरता और सिखों की वीरता को बालक त्यागमल ने अपनी आंखों से देखा। त्यागमल जब 14 वर्ष के थे उस समय उन्होंने फगवाड़ा के पास पलाही में मुगलों से हुए संघर्ष में दो-दो हाथ करते हुए पिता गुरु हरगोबिंद सिंह का साथ दिया। प्रदर्शन को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ पिता गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने अचानक ही यह कह दिया कि त्यागमल तो तेग बहादुर है, तभी से त्यागमल का नाम तेग बहादुर पड़ गया। सिखों के आठवें गुरु हरकृष्ण साहिब जी का देहांत होने के बाद 16 मार्च 1665 को गुरु तेग बहादुर साहिब अमृतसर के निकट कस्बा बकना में गुरु की गद्दी पर बैठे और सिखों के नौंवे गुरु बने(शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की पुस्तक 'सिख इतिहासÓ के अनुसार)। जन सेवा के कार्यों को मूर्त रूप दिया।

औरंगजेब के समय में किसी भी दूसरे धर्म के अनुयाई का सुरक्षित और संरक्षित होकर जीवन यापन करना असंभव था। औरंगजेब ने हिंदुओं के मंदिरों को ध्वस्त करने के लिए विधिवत एक राजाज्ञा जारी कर दी थी। एक फरमान के द्वारा दिल्ली के हिंदुओं को यमुना किनारे मृतकों का दाह संस्कार करने की भी मनाही कर दी गई। हिंदुओं के धर्म के रीति रिवाज पर औरंगजेब का यह सीधा हमला था। इस प्रकार हिंदुओं को धर्मांतरण के लिए बाध्य किया गया। इस हेतु औरंगजेब ने कश्मीर में शेर अफगान को भेजा। उसने असहनीय अत्याचार किये। कश्मीरी प्रतिनिधि मंडल गुरूजी से मिला। प्रत्युत्तर हेतु गुरूजी ने नृशंस कार्यों का विरोध और धर्म संरक्षण का अभियान तेज कर दिया। औरंगजेब ने गुरुदेव की गिरफ्तारी पर एक हजार रुपए पुरस्कार घोषित किया। गुरुजी इस गिरफ्तारी से जनता की सहानुभूति बटोर कर उसे एक सूत्र में बांधना चाहते थे इसलिए वे जानबूझकर स्वयं गिरफ्तार हो गए। औरंगजेब ने कारागार में डाल दिया उन्हें ऐसे कटीले पिंजरे में बंद करके रखा गया जिससे उनके शरीर में घाव हो गए। औरंगजेब ने जब उन्हें इस्लाम कबूल करने का प्रस्ताव दिया तो उन्होंने सत्याग्रही और मानवतावादी उद्बोधन देकर औरंगजेब के सांप्रदायिक भाषण को शून्य कर दिया। काफिरों को बलपूर्वक मोमिन बनाने के मंसूबों पर पानी फिरते देख औरंगज़ेब ने गुरुदेव के समक्ष दो विकल्प रखें इस्लाम या मृत्यु। गुरुजी पर औरंगजेब की धमकी का कोई प्रभाव नहीं हुआ। औरंगजेब ने पंज प्यारों को भी क्रूरतम मौत दी। उस का यह दीनी पूर्वाग्रह /दुराग्रह था या क्रूरता का जल्लादी चरम रूप था जिसका समर्थन संसार का कोई भी मानवतावादी धर्म नहीं करता। 24 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक पर निर्ममता पूर्वक उनका सिर कलम करवा दिया। उनके कटे हुए सिर को जैत सिंह चतुराई से लेकर वहां से भाग निकले। गुरुद्वारा शीशगंज साहिब जहां गुरु गोविंद सिंह जी की हत्या की गई थी और गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब जहां अंतिम संस्कार किया गया था। हमेशा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन का विरोध करने वाले संस्कृति और धर्म के रक्षक हुतात्मा 'हिन्द की चादर से विभूषित गुरूजी का भारतवासी सदा स्मरण कराते रहेंगे। शीश दिया पर सिररू न दीया उनके पौरुष और परमार्थ को शत शत नमन।

(लेखक महिला एवं बाल विकास विभाग मध्य प्रदेश में संयुक्त संचालक है)

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