क्षेत्रीय दलों की भूमिका और राष्ट्रीय नेतृत्व

आलोक मेहता

Update: 2023-10-05 19:48 GMT

आगामी राज्य विधान सभाओं के चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी द्वारा कुछ केंद्रीय मंत्रियों अथवा वरिष्ठ नेताओं की उम्मीदवारी की घोषणा पर चौंकने की जरुरत नहीं है। दशकों से भाजपा और संघ युद्ध के मैदान की तरह दूसरी पंक्ति को सशक्त रखने का प्रयास करती रही है। मध्य प्रदेश में वीरेंद्र कुमार सखलेचा, कैलाश जोशी, सुंदरलाल पटवा के रहते शिवराज सिंह और कैलाश विजयवर्गीय नेता पार्टी में आगे बढ़ते रहे। इसी तरह राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत के रहते वसुंधरा राजे, ओम बिड़ला, गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे नेता आगे बढ़ाए गए। उत्तर प्रदेश में अटल बिहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी के साथ कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह जैसे नेता और फिर योगी आदित्यनाथ को संसद या विधान सभा में बढ़ाया जाता रहा। अटल बिहारी वाजपेयी और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय नेतृत्व की लोकप्रियता और क्षेत्रीय क्षत्रपों के काम और नाम के बल पर चुनाव जीतने की रणनीति बहुत हद तक सफल रही है। एक समय में कांग्रेस में भी इंदिरा गाँधी के रहते डीपी मिश्रा, श्यामाचरण शुक्ल, कमलापति त्रिपाठी, नारायण दत्त तिवारी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, रामनिवास मिर्धा, शिवचरण माथुर और अशोक गेहलोत आगे बढ़ते गए। संसद या विधान सभाओं में उनकी भूमिका समय-समय पर बदलती रही है ।

भारतीय जनता पार्टी की रणनीति यह है कि इस बार बड़े नाम वाले उम्मीदवार उन सीटों को सुरक्षित करेंगे, जहां वह कमजोर हैं। साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील से पार्टी राज्यों के चुनाव जीतेगी। इसमें मुख्यमंत्री पद नेताओं के प्रोत्साहन के रूप में काम करेगा। मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं होने से क्षेत्रीय नेताओं को और ज्यादा मेहनत करने की प्रेरणा मिलेगी। यह स्वस्थ प्रतियोगिता और शक्ति परीक्षण कहा जा सकता है। रणनीति पार्टी में भाई-भतीजावाद पर अंकुश लगाने और वंशवाद की राजनीति के तंज से बचने की भी है। खासकर जब से यह आरोप कांग्रेस को लेकर लगाया जाता है। पार्टी अब प्रति परिवार एक टिकट देगी ।

मध्य प्रदेश में पेश की गई चार सांसद, तीन केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय इस बार मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। जबकि मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए (अभी तक) कोई टिकट का ऐलान नहीं हुआ है। पार्टी उन्हें चुनाव अभियान की कमान दे रही है, लेकिन भविष्य के लिए मैदान में विकल्प और अपने-अपने इलाके के कद्दावर नेता को विजय की जिम्मेदारी दे रही है। कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले वर्षों में कई राज्यों में अपनी संगठन क्षमता दिखाई और अब अपने मालवा क्षेत्र में भाजपा की चुनौतियों से निपटकर दिखाना है। इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रचार अभियान में प्रमुख चेहरा बनाया जा सकता है। सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारना सामूहिक नेतृत्व का संदेश देता है। उस संदेश को रेखांकित किया गया। पार्टी को उम्मीद है कि अपनी बेस्ट टीम को मैदान में उतारने से उसे कांग्रेस पर बढ़त मिलेगी। साथ ही इनमें से प्रत्येक राज्य में अनुभवी नेताओं को पांच साल पहले हारी हुई सीटों को पलटने का काम सौंपा जाएगा। यही नहीं 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत आधार तैयार हो जाएगा ।

भाजपा अन्य राज्यों यानी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए इसी दृष्टिकोण का इस्तेमाल कर सकती है। राजस्थान में संभावित मुख्यमंत्री चेहरों में लोक सभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और अर्जुन राम मेघवाल शामिल हैं। दो बार मुख्यमंत्री रहीं और सिंधिया राजपरिवार की सदस्य 70 वर्षीय वसुंधरा राजे को पुन: मुख्यमंत्री के रूप में वापसी की संभावना नहीं है। भले ही उन्हें राज्य में बीजेपी की सबसे बड़ी और सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में देखा जाता हो। उन्हें पिछले वर्षों से थोड़ा किनारे किया गया। वह भाजपा संघ के सहारे ही प्रभावी हुई थीं। लेकिन अपने को अपरिहार्य समझने की ग़लतफ़हमी नरेंद्र मोदी जैसा नेतृत्व ही दूर कर सकता है। वसुंधरा को पार्टी में सम्मान मिला, लेकिन विवादों और घोटालों का रिकॉर्ड भी कम नहीं है।

छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने अलग राह चुनी है। बीजेपी ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के भतीजे विजय को शीर्ष पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है। पार्टी चाहेगी कि पारिवारिक विभाजन उसके पक्ष में हो, क्योंकि उसने 'बघेल बनाम बघेल मुकाबलेÓ की योजना बनाई है। विजय बघेल लोकसभा सांसद हैं। वह दुर्ग जिले के पाटन से चुनाव लड़ सकते हैं। इस सीट पर 2003 से भूपेश बघेल और विजय बघेल के बीच मुकाबला चल रहा है। भूपेश बघेल इस सीट से पिछले दो चुनाव जीत चुके हैं। बीजेपी के अन्य संभावित उम्मीदवारों में केंद्रीय मंत्री रेणुका सिंह और राज्यसभा सांसद सरोज पांडे शामिल हैं। बीजेपी ने अभी तक अपनी लिस्ट में पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह का नाम नहीं शामिल किया है, लेकिन प्रदेश में उनके नाम और कार्यकाल की सफलता को भुनाने की कोशिश तो रहेगी ।

तेलंगाना में बीजेपी का झुकाव उसकी 'मिशन साउथÓ योजना का हिस्सा है। दक्षिण भारत में सरकार बनाने में जुटी बीजेपी इस बार कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती। दक्षिण भारत की ओर से अक्सर पार्टी के कट्टर राष्ट्रवादी एजेंडे को खारिज कर दिया गया है। तेलंगाना में नवंबर में चुनाव होने हैं। यहां केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी संभावित बड़े नाम वाले उम्मीदवार हैं। रेड्डी तेलंगाना के थिम्मापुर क्षेत्र से हैं और पार्टी के राज्य प्रमुख भी हैं। केसीआर के राज के भ्रष्टाचार और मनमानी के विरोध की आवाज कांग्रेस भी उठा रही है। उन दोनों की लड़ाई का लाभ भाजपा उठाना चाहती है। किसी समय पार्टी को वेंकैया नायडू से चमत्कार की उम्मीद थी, लेकिन वह केवल राष्ट्रीय स्तर पर जोड़-भाग में टिके रहे।

इस पृष्ठभूमि में यह स्वीकारा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भविष्य के पार्टी के हितों के लिए हर राज्य में नए-पुराने नेताओं को साथ रखकर स्वयं चुनावी मैदान का नेतृत्व करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं । कांग्रेस में जीत का श्रेय गाँधी परिवार को और पराजय का ठीकरा प्रादेशिक नेताओं पर डाला जाता है। मोदी ने हिमाचल या कर्णाटक में पराजय के लिए जेपी नड्डा या अनुराग ठाकुर अथवा येदियुरप्पा और बोम्मई आदि को उत्तरदायी ठहराकर दण्डित नहीं किया। हाँ, इतना अवश्य है कि क्षेत्रीय क्षत्रप मोदी के आभा मंडल, केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और लोकप्रियता पर निर्भर रहेंगे ।

(लेखक पद्मश्री से सम्मानित देश के वरिष्ठ संपादक हैं)

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