जब मति और प्रज्ञा साथ छोड़ देती है, तब अविचारी हठधर्मिता (कठमुल्लापन) परवान चढ़ने लगती है। फिर, परवान चढ़ने की उसी स्थिति में आत्ममुग्धता जीवन में घुसपैठ क्या करती है, अपितु जीवनाधार ही बन जाती है। आप जानिए कि आत्ममुग्धता व कूपमण्डूकता में विशेष अन्तर नहीं है। किसी भी राष्ट्र के विकास में न अविचार अच्छा होता है, न निर्विचार की स्थिति। न अविचारी हठधर्मिता अच्छी होती है, न ही आत्ममुग्धता एवं कूपमण्डूकता। किसी भी राष्ट्र के जनमानस की ऐसी स्थिति (मनोदशा) राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास में संहारक रूप में क्रियाशील सिद्ध होती है। अविचारिता एवं हठधर्मिता की सारी हदें पार करते हुए यदि दूसरे की देखा-देखी सभी सड़कों पर अतिक्रमण कर सामूहिक प्रार्थनासभाएँ करने लग जायें, तो एक नया राष्ट्रीय संकट उत्पन्न होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। ऐसा कहने का ठोस आधार है, धर्माचरण के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता की परिभाषा प्रत्येक समुदाय में भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करने की छूट सबको प्राप्त है, किन्तु उस छूट की छूत से जो बचा रह जायेगा, वही राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास का ध्वजधारक व वाहक कहला सकेगा। क्योंकि ध्यातव्य है, न तो राष्ट्र भीड़ से बनता है, और न संस्कृति ही भीड़ से बनती एवं परिचालित होती है। संस्कृति एवं राष्ट्र सजग व चेतनाशील व्यक्तियों से ही बनते हैं। और, उन्हीं के माध्यम से चिरकाल तक बने-बचे रह सकते हैं। अत: सजग एवं चेतस व्यक्तियों की कामना व प्रतिफलन (आपूर्ति) से ही राष्ट्र का सांस्कृतिक विकास (एकता) सम्भव हो सकता है। इस महादेश ने अपने ऐतिहासिक अस्तित्व में अनेकानेक व्यक्तित्वों की राष्ट्रार्थ कर्तव्यनिष्ठा के द्वारा इसे अब तक अभेद्य बनाये रखा है। मराठी के कवि साने गुरुजी का एक गीत है - 'बलसागर भारत होवोÓ। उसकी आरम्भिक पंक्तियाँ प्रसंगावधान से स्मरणीय हैं - 'बलसागर भारत होवो, विश्वात शोभुनी राहो. हे कंकण करि बांधियले, जनसेवे जीवन दिधले. राष्ट्रार्थ प्राण हे उरले, मी सिद्ध मरायाला हो.Ó अर्थात् मेरा यह देश शक्तिशाली बने। उसे शक्तिशाली बनाने के लिए सुविचारित जनसेवा का व्रत तथा यथावश्यकता प्राणार्पण की तत्परता राष्ट्रजनों में होनी चाहिए। राष्ट्र इसी विचारशीलता से बना एवं बचा रह सकता है।
ऐसी कर्तव्यनिष्ठा के बावजूद बीच की कालावधि में समय-समय पर जो सीमारेखाएँ खींची गयीं, उन्हें खींचने-खिंचवाने में अविचारी हठधर्मियों के षड्यन्त्र इसलिए फलीभूत हो सके, क्योंकि एक कारण तो यह रहा कि सामुदायिक अन्तर्सम्बन्धों में संगुम्फित जनसमुदाय को सम्बन्धित विषय में स्पष्टता नहीं थी। और, दूसरा यह कि वे अविचारी हठधर्मियों द्वारा प्रसारित आत्ममुग्ध नापाक विचारों के (प्रकारान्तर से) शिकार होते चले गये। उनके वर्तमान पर दृष्टिपात करने से उनकी सद्य:स्थिति का दर्शन होता है। कहते हैं, भारत का एक टुकड़ा काट लेने वाले अविचारी हठधर्मियों के जीवन में एक समय ऐसा भी आया, जब जाहिल्लियत को संरक्षण प्रदान करने वाले पाकिस्तान के पूर्व-राष्ट्रपति एवं सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ़ ने पाकिस्तानियों को 'जाहिलों का समाजÓ कहा। कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्रजन द्वारा 'जाहिलों का समाजÓ बनने से बचने का सातत्यपूर्ण प्रयास करने से ही राष्ट्र श्रेष्ठत्व तक की यात्रा पूर्ण कर सकता है। इसके लिए अविचारी हठधर्मिता एवं आत्ममुग्धता से मुक्त होकर आत्मालोचन की दिशा में बढ़ना आवश्यक होता है। अविचारी हठधर्मिता से उत्पन्न सामुदायिक एकता का मनोविकार (फ़ितूर)) आत्ममुग्धता की ओट लिए राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता एवं राष्ट्रोद्धार में संहारक का ही कार्य करता है। आत्ममुग्ध एवं अविचारी हठधर्मी समुदाय जितना शीघ्र इस सत्य को समझेगा, राष्ट्रार्थ कर्तव्यनिष्ठता उतनी ही शीघ्रता से बढ़ सकेगी, क्योंकि टुकड़ों में बँट कर औरों का ग्रास बनना निश्चित एवं इतिहाससिद्ध है।
ऊपर जिस 'राष्ट्रीय संकट की सम्भावनाÓ का उल्लेख है, उसे केन्द्र में रखते हुए प्रासंगिक स्मरण हो कि एक अतिक्रमित ढाँचे को गिराने पर जो 'राष्ट्रीय संकटÓ उत्पन्न हुआ था, उस पर पूरे विश्व और धर्माचरण की स्वतन्त्रता के स्व-आश्वस्त बुद्धिधर्मियों ने विभिन्न माध्यमों से अपने-अपने मन की भड़ास रची-परोसी थी। कहा कि ऐसे कृत्यों से 'वसुधैवकुटुम्बकम्Ó की अवधारणा भला कैसे फलीभूत हो सकेगी, इत्यादि। वैश्विक मानचित्र पर ऐसे अनेक अतिक्रमित ढाँचे एवं उनके अवशेष हैं, भारत में ही न जाने कितने ही हैं, जो विजेताओं के संहार एवं पराजीतों की हार को कुरेद कर जीवित करते रहते हैं। इसलिए एक धारा समय-समय पर पुन:प्राप्ति के दावों को प्रस्तुत करती रहती है। ऐसी स्थितियों का सामना करते हुए भी यह जानना-समझना होगा कि औरों के पवित्र प्रार्थनास्थल ही क्यों, सर्वजनोपयोगी सड़कों को अतिक्रमित कर एकल वा सामूहिक प्रार्थनासभाएँ संचालित करने वालों की मानसिक एवं वैचारिक दुर्दशा वैश्विक मानचित्र पर अत्यन्त स्पष्ट है। उस स्पष्टता को देखने के लिए विशेष एवं पारखी दृष्टि की आवश्यकता नहीं है। अंग्रेज़ी वालों का बहुप्रचलित पद-प्रयोग है- 'नेकेड आइज़Ó। केवल आँखें खुली रखने की आवश्यकता है। आँख के अन्धों से ऐसी अपेक्षा निरर्थक ही कही जा सकती है। कुल मिलाकर अविचारिता, निर्विचार, हठधर्मिता एवं आत्ममुग्धता से राष्ट्रोद्धार की सम्भावनाओं का अन्त और राष्ट्र रूपी दृश्यमान, किन्तु अदृश्य सत्ता संकटग्रस्त होती जाती है।
और, ध्यान रहे कि संकटग्रस्त राष्ट्र अन्य राष्ट्रों के लिए मृत शव के समान होते हैं, जिसे नोंचने-खसोटने के लिए प्राय: सभी, कोई कुछ-कम, कोई कुछ-अधिक, गिद्ध दृष्टि धारण किये जुटा रहता है। वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में दूसरे को येनकेन प्रकारेण अतिक्रमित कर उसके राष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए प्राय: सभी तत्पर दिखायी देते हैं। 'मित्र राष्ट्रÓ कहलाने वाले भी अपनी हित साधना के लिए समयोचित मार्ग खोजते हैं। जिस प्रकार राजनीति में कोई प्रतिद्वन्द्वी सदा के लिए प्रतिद्वन्द्वी, और कोई मित्र सदा के लिए मित्र नहीं होता, उसी प्रकार वैश्विक व्यवस्था में भी नानाविध समीकरणों से उलथापालथ होती रहती है। पिछले कुछ युद्धों में हमने इस स्थिति को भलीभाँति, अंग्रेज़ी वालों की 'नेकेड आइज़Ó से देखा है। भारत सदैव पीड़ितों के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी सत्योचित पक्ष का समर्थक रहा है। 'महाभारतÓ में ऐसे नाना प्रसंग हैं। 'वसुधैवकुटुम्बकम़Ó में सर्वस्व अर्पण का भाव कदापि नहीं है। कविवर साने गुरुजी के उपरोल्लिखित गीत में व्यक्त अभिधारणा किसी भी समय एवं प्रसंग में रेखांकनीय है। उस भावात्मक दृष्टि से ही विश्व एक कुटुम्ब रूपी व्यवस्था बन सकती है। भारत में महाभारत की ऐतिहासिक कथा नाना रूपों में राष्ट्रजन में प्राणों का संचार करती है। वह प्रथमत: शान्ति का सन्देश देती है और, यथावश्यकता संहार का सन्देश देने से भी नहीं चूकती। अविचारिता एवं हठधर्मिता से निपटने के लिए समयोचित व समुचित सन्देश हमारे ऐतिहासिक ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। यह बात निश्चय ही सिद्ध है कि वह हमें अतीतजीवी एवं आत्ममुग्ध नहीं बनातीं, अपितु समयोचित कार्य सम्पन्नता का मार्ग दिखाती हैं।
लेख के आरम्भ में नानाविध प्रसंगों को दृष्टिगत रखते हुए यह अभिमत किया गया है कि किसी भी राष्ट्र के लिए अविचार, निर्विचार, हठधर्मिता व आत्ममुग्धता घातक ही सिद्ध होती है। बचपन में, प्रतिदिन एक सुविचार (श्लोक) सुनाया जाता था, ताकि विचारशीलता अन्त:करण में व्याप्त होकर जीवन भर विकास करती रहे। तब, यह सब समझ नहीं आता था। सुविचारों का नित्य पाठ करना ही हमारा धर्म था। हमारे भक्त-सन्तों की बानियाँ, हमारे धर्म का आधार बन कर हमें विचारशील बनाती रहीं। हमारे भक्त-सन्तों ने धर्म की जो आधारशिला रखी, उसमें सुविचारिता एवं आत्मालोचन की प्रवृत्ति स्पष्टत: अन्तर्गुम्फित है। 'हिन्दवी स्वराज्यÓ के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास का एक श्लोक है - 'मना सज्जना भक्तिपंथेचि जावें। तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें॥ जनीं निंद्य तें सर्व सोडूनि द्यावें। जनीं वंद्य ते सर्व भावे करावे॥Ó कहा कि जिसकी सभी निन्दा करते हैं, उसे त्याग देना सर्वोचित है। छत्रपति शिवाजी महाराज को 'जाणता राजाÓ बनने में रामदास के विचारों से ऊर्जा मिलती रही, जिसकी परिणति सर्वकल्याणकारी राज्य स्थापना में हुई। उसमें सर्वधर्म समभाव था। और, स्व-राष्ट्र ही सर्वोपरि था। अविचारिता से ग्रस्त हठधर्मियों को यह जानना-समझना होगा कि यह भाव धारण करके ही राष्ट्रोद्धार हो सकता है। अन्यथा विस्मरण न हो कि गिद्धों की अन्तर्भेदी दृष्टि खण्डित शवों की प्रतीक्षा सदैव करती रही है। (क्रमश:)
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)