पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता का सामाजिक- वैज्ञानिक पर्व है श्राद्ध-पक्ष
राज किशोर वाजपेयी
विश्व-विख्यात सनातन-धर्म और उसकी परपंरा वैज्ञानिक सोच और समाजिक सुदृढता के आयामों से भरपूर है। सनातन धर्म मृत्यु को जीवन का अंत न मान कर उसे आत्मा का कलेवर, शरीर बदलने का क्रम-मात्र मानता है। वर्तमान पीढ़ी माता-पिता और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धा का भाव, सनातनी संस्कृति में अश्विन मास का कृष्ण -पक्ष श्राद्ध-पक्ष के रूप में मनाती हैं। यह भाद्रपद मास की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक (16 दिन) वर्तमान नई पीढ़ी अपने परिजनों को याद कर उन्हें जौ, तिल,जल से तर्पण कर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध कर्म से याद करती है।
कहा भी गया है- श्रद्धयां इदं श्राद्धम।
(जो श्रद्धा से किया जावे वो श्राद्ध है)
सबसे पहला श्राद्ध महर्षि अत्रि ने तपस्वी निमि को श्राद्ध का ज्ञान दिया, जिससे श्राद्ध परपंरा शुरू हुई। जिसमें अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का स्मरण कर श्राद्ध कर्म परपंरागत रूप से किया जाता है।
जीवन के अनवरत प्रवाह का सोच: सनातन धर्म बताता है कि भौतिक शरीर से भिन्न सूक्ष्म शरीर भी होता है और चेतना से आच्छादित सूक्ष्म शरीर जब भौतिक शरीर से परे हो जाता है तो उसे मृत्यु के रूप में जाना जाता है।इसी सूक्ष्म शरीर में मोह, आसक्ति, भूख ,प्यास जैसी अनुभूतियां रहती है। चेतना अथवा आत्मा की अगली स्थिति मुक्ति अथवा पुनर्जन्म है। पर मृत्यु और आगामी स्थिति के मध्य की स्थिति में मोह माया भूख,प्यास का अतिरेक होता है और यही प्रेत की अवस्था है। अर्थात प्रिय के अतिरेक की अवस्था ही प्रेत है । दशगात्र, पिंडदान, तर्पण पश्चात पितर तृप्त होते हैं। सनातन धर्म बताता है कि ऊर्जा (आत्मा) नष्ट नहीं होती, रूपांतरण होता रहता है।
व्यापक सामाजिक -हितों को बिश्लेषित करता पितृ-ऋण,देव-ऋण और ऋषि-ऋण का आख्यान सनातन धर्म की अद्भुत प्रस्तुति है। जो सामयिक दायित्व-बोध का सार्थक सृजन करती है। यह हमें अपने जन्म-दाताओं के प्रति कृतज्ञ रह पितृ-ऋण चुकाने हेतु श्रद्धा भाव से श्राद्ध-कर्म हेतु कर्तव्य-रत रखती है, वहीं सामाजिक और पर्यावरणीय ऋणों का भी ध्यान दिला उनसे उऋण होने का पुरुषार्थ जगाती हैं जिससे सामाजिक दायित्व का निर्वाह सहज रूप से होता है।
सर्व-पितृ अमावस्या
सूर्य की श्रेष्ठ अमा किरण-शक्ति जब वश (चंद्रमा) सें संयुक्त हो अश्विन मास की अमावस्या रचती है तो भाद्रपद मास की पूर्णिमा से प्रारंभ पितृपक्ष में पितृप्राण आप्यापित हो जौ, तिल, जल आदि से तर्पण पश्चात ब्रह्माण्यीय ऊर्जा के साथ वापस चले जाते हैं।
मत्स्य-पुराण के अनुसार श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं, नित्य(रोज करने वाला, नैमित्तिक (व्यक्ति विशेष का) और काम्य (किसी कामना के पूर्ण होने पर) श्राद्ध किए जाते हैं। गया में श्राद्ध का विशेष महत्व है। यहाँ किया गया पिंडदान और तर्पण पितरों को विशेष संतुष्टि-कारक होता है।
कौओं, गायों, कुत्ते की चिंता की वैज्ञानिकता : श्राद्ध अपने प्रिय पूर्वजों को स्मरण करने और उनकी याद में भोजन पकवान बनाए खाने खिलाने तक सीमित नहीं है, अपितु इसमें जुड़ा है क्रियात्मक पर्यावरणीय संरक्षण का स्वर्णिम सूत्र ,जो सबसे पहले ,गाय, कुत्ते,और कौए हेतु ग्रास (भोजन) की चिंता कर सर्वजीवों के संरक्षण के वैज्ञानिक पक्ष की झाँकी प्रस्तुत करता है। जो प्राकृतिक संतुलन हेतु अनिवार्य है।
वैज्ञानिकता तब और स्पष्ट होती है जब पितृ-पक्ष के पक्के भोजन चक्र के ठीक बाद नव रात्रि के उपवास की साधना भी सनातन-धर्म में बताई जाती है।
पितृ-पक्ष की सामाजिक हितकारी वैज्ञानिकता:पितृपक्ष मनुष्यों को अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव रख उनकी याद को श्राद्ध-कर्म के माध्यम से स्मरण रखना सिखाया है,जिससे मानव के संस्कार सामाजिक सरोकार से जुड़ता है। पशु,पक्षी के भी हिस्से के लिये प्रावधान कर पर्यावरण के समग्र संरक्षण का संदेश? देता है।सनातनी धर्म की वैज्ञानिकता और सामाजिकता के सूत्र अब शनै:शनै: विश्व के सामने उद्घाटित हो रहे हैं और सत्य और तथ्य की प्रमाणिकता पर खरे उतर रहे हैं। मानवता के उत्कर्ष हेतु इनके और प्रसार की महती आवश्यकता है।