स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक श्याम कृष्ण वर्मा
रमेश शर्मा
महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और 'क्राँति गुरुÓ कहे जाने वाले श्यामकृष्ण जी वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात प्राँत के कच्छ जिला अंतर्गत ग्राम मांडवी में हुआ था। उनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा संस्कृत के विद्वान थे और माता गोमती देवी भारतीय संस्कृति के अनुरूप जीवनशैली में रची बसी थीं। श्यामजी की आरंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिये मुम्बई गये। जिन दिनों श्यामजीकृष्ण वर्मा बम्बई में रह रहे थे तब 1875 में उनकी भेंट स्वामी दयानन्द सरस्वती से हुई। इसी वर्ष मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना हुई। श्यामजी आर्य समाज से जुड़ गये। इसी वर्ष ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन के संस्कृत विभाग के प्रमुख मोनियर विलियम भारत आये थे। युवा श्याम जी की उनसे भेंट हुई। श्याम जी की विद्वता से प्रभावित मोनियर जी ने श्याम जी को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन आमंत्रित किया। उनकी पत्नी भानुमति एक सुप्रसिद्ध व्यापारी की बेटी थी। भानुमति के पिता ने उन्हें लंदन भेजने का प्रबंध किया। वे 1878 में इंग्लैड गये। कुछ दिन श्री मोनियर के सहायक के रूप में रहे फिर उनकी अनुशंसा पर 1879 में बीए करने के लिये बैलियोज कॉलेज में प्रवेश ले लिया। उन्होंने 1883 में बीए किया और संस्कृत में डिग्री भी। बीए की डिग्री और संस्कृत ज्ञान के कारण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापक पद नियुक्त हो गये। प्राध्यापक के रूप में भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी और वकालत में प्रवेश ले लिया। बैरिस्टरी की परीक्षा पास करके भारत लौट आये। उन्होंने बम्बई में वकालत शुरु की।
श्यामजी एक संवेदनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने हर कदम पर भारतीयों का अपमान देखा था। इसलिए उन्होंने स्वाभिमान रक्षा के लिये समाज को जाग्रत करने का संकल्प किया। सबसे पहले अपने साथी वकीलों का एक समूह बनाया और ऐसे भारतीयों के समर्थन में मुकदमे लड़ना आरंभ किया। जिन पर पुलिस अत्याचार करती थी और बिना किसी अपराध के जेल में ठूंस देती थी। यह 1898 का वर्ष था। चाफेकर बन्धुओं ने पूना में गवर्नर की हत्या कर दी थी। इस घटना की गूँज पूरे देश में हुई। चाफेकर बन्धु गिरफ्तार हुए और उन्हें फांसी दे दी गई। उन्हीं दिनों तिलकजी भी गिरफ्तार किये गये। मुम्बई के वकीलों ने तिलक जी गिरफ्तारी का विरोध किया और चाफेकर बंधुओं पर मुकदमा चलाने के तरीके पर भी आपत्ति की। चाफेकर बंधुओं पर चला मुकदमा एक औपचारिकता था। श्यामजी और वकीलों के इस समूह ने महाराष्ट्र कांग्रेस से भी आपत्ति दर्ज कराने का आग्रह किया। काँग्रेस ने आवेदन तो दिया पर विरोध के लिये खुलकर आगे न आ सकी। उन्हीं दिनों स्वामी श्रद्धानंद मुम्बई आये। श्याम जी की उनसे भेंट हुई और संघर्ष की योजना बनी। इस योजना के अनुसार श्याम जी ने देशभर के उन संघर्षशील नौजवानों को संगठित करने का निर्णय लिया जो अपने स्तर पर स्थानीय तौर पर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र अभियान चला रहे थे।
उन्होंने फरवरी 1905 को लंदन में 'द इंडियन होम रूल सोसाइटीÓ नाम से एक संस्था का गठन किया। इस होमरूल सोसायटी का केन्द्र का नाम 'इंडिया हाउसÓ रखा गया। इंडिया हाउस भारतीयों की सभा संगोष्ठियों का केन्द्र बन गया था। इसी वर्ष इंग्लैण्ड से उन्होंने एक मासिक समाचार-पत्र 'द इण्डियन सोशियोलोजिस्टÓ का प्रकाशन आरंभ किया, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया गया। इंग्लैण्ड का यह इंडिया हाउस क्रान्तिकारी आँदोलन का प्रेरणा केन्द्र बन गया। श्यामजी के आलेख न केवल उनके समाचार पत्र में अपितु आयरिश, जिनेवा और फ्रांस के कुछ समाचार पत्रों में भी छपने लगे। पर इंग्लैंड के समाचार पत्रों में उनकी गतिविधियों की आलोचना होने लगी। वे ब्रिटिश सरकार की नजर में चढ़े। उनकी गिरफ्तारी होती इससे पहले ही वे लंदन से निकल कर पेरिस पहुँचे। श्यामजी 1914 तक पेरिस में रहे। उनकी सक्रियता और क्राँतिकारी गतिविधियों के कारण उन पर पेरिस में भी नजर रखी जाने लगी। पूछताछ भी हुई। तब वे पेरिस छोड़कर जिनेवा आ गये और जिनेवा में ही उन्होंने 30 मार्च 1930 को अपने जीवन की अंतिम सांस ली। जिनेवा में रहने वाले भारतीयों ने उनका दाह संस्कार करके अस्थियाँ जिनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दीं। कुछ दिनों बाद में उनकी पत्नी भानुमती कृष्ण वर्मा का भी निधन हो गया। उनकी अस्थियाँ भी उसी सीमेट्री में रख दी गयीं। 22 अगस्त 2003 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी के अनुरोध पर स्विस सरकार ने श्यामजी और उनकी पत्नी भानुमती जी की अस्थियों को भारत भेज दिया। जब ये अस्थियाँ मुम्बई पहुँची तब मुम्बई से लेकर माण्डवी तक राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस के रूप में अस्थि-कलश गुजरात लाये गये। श्याम जी के जन्म स्थान पर क्रान्ति-तीर्थ बनाया गया और इसी परिसर में श्यामजी कृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष बनाकर अस्थियाँ संरक्षित की गई । (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)