शहीद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू के बलिदान दिवस तथा हेमूू के जन्म दिवस 23 मार्च पर विशेष
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बलिदान हुए क्रांतिकारियों के बलिदान दिवस अथवा जन्म तिथि पर, गत दो वर्षो से, सोशल मीडिया पर प्रसारित एवं प्रचलित संदेशों तथा विभिन्न अवसरों पर आयोजित काव्य-कथा-विचार गोष्ठियों में प्रस्तुत युवाओं की भावनाओं से यह प्रतीत होता हैं कि आजादी के लिए हुए राजनैतिक आंदोलन की तुलना में वे क्रांतिकारी संघर्ष को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। वास्तव में इस तथ्य के पीछे अधिकांश युवा वर्ग की वह मूल राष्ट्रवादी विचार धारा है जो स्वतंत्रता पूर्व भी थी और आज की परिस्थितियों में भी हैं।
क्रांतिकारी साहित्य की लगभग सभी पुस्तकों एवं संदर्भ पत्रिकाओं में सामान्यतः यह उल्लेख मिलता हैं कि क्रांतिकारियों के आचार, विचार और व्यवहार समाजवाद अथवा साम्यवाद पर आधारित थे। प्रत्यक्ष क्रांतिकारी गतिविधियों के दौरान वे ''हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन'' तथा ''हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी'' के सदस्य के रूप में विल्पवी संघर्ष करते थे। 8 अप्रैल 1929 के दिन दिल्ली स्थित अंगे्रज सरकार के असेम्बली हाल में भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त ने बम विस्फोट के बाद अपने आप को गिरफ्तार कराते समय इंकलाब ंिजंदाबाद और साम्राज्यवाद का नाश हो के नारे लगाए थे। उन नारों को समाजवाद का प्रतीक मानकर ही साम्यवादी लोग केेवल 23 मार्च को ही क्रांतिकारियों की प्रतिमाओं पर सम्मान का प्रदर्शन करते है, जो कि प्रशंसनीय है, लेकिन धर्म क्रांति से राष्ट्र क्रांति के माध्यम से देश रक्षा हेतु जीवन का बलिदान देने बाले सिक्ख गुरूओ, मंगल पाण्डे, वीरांगना लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे जैसें क्रांतिवीरों के अनुपम साहस एंव त्याग के प्रति उनकी उदासीनता सर्व ज्ञात है। वास्तविकता यह है कि अपना जीवन बलिदान करने के लिए, क्रांतिकारियों को अदम्य साहस एंव शक्ति की प्रेरणा, उन्हे बाल्यकाल में प्राप्त देशभक्ति से परिपूरित पारवारिक संस्कारो, तरणावस्था में प्रखर राष्ट्रवादी मार्गदर्शन को तथा स्वंय के पूर्व की बलिदानी परम्पराओं से प्राप्त हुई थी। यह तथ्य 23 मार्च की तिथि से संबीधत चार क्रांतिकारियों की पारवारिक पृष्ठ भूमि, तथा शौक्षणिक जीवन एंव उनके क्रांतिकारी संघर्ष के प्रसंगों से स्पष्ट है।
क्रांतिनायक भगतसिंह
शहीद भगत सिंघ - सरदार भगतसिंघ का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब में लायलपुर के एक क्रांतिकारी परिवार में हुआ था तथा बाल्यावस्था की दीक्षा और तरूण आयु की शिक्षा भी उसे वतन परस्ती से ओत प्रोत वातावरण में मिली थी। पिता किशन सिंघ एंव चाचा अजीत सिंघ न केवल
स्वयं आजादी के आंदोलन में सक्रिय रहते थे बल्कि भूमिगत क्रांतिकारियो की आर्थिक सहायता भी करते थे। पारिवारिक सम्पन्नता होने के बावजूद उनकी पढ़ाई प्रारम्भिक अंग्रेजो के कृपापात्र विद्यालय में न होकर लाहौर के दयानन्द वैदिक विद्यालय में हुई। आर्य समाज के प्रमुख साधक भाई परमानंद द्वारा संचालित नेशनल काॅलेज में प्रखर राष्ट्रवादी आचार्य चन्द्रकांत विद्यालंकार ने उनको क्रांति के माध्यम से स्वाधीनता संघर्ष करने के लिए मार्गदर्शन दिया। प्रारम्भ में राष्ट्रवादी सस्ंथा नौजवान भारत सभा के माध्यम से नवयुवकों में देशप्रेम की भावना जाग्रत करते रहे। अंग्रेजो द्वारा किए गए जलियावाला नरसंहार तथा लाला लाजपातराय के आहत होने से आक्रोशित वे क्रांतिकारी मार्ग पर चल पड़े। हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसिएशन तथा हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपबलिकन आर्मी जैसी सामजवादी विचार धारा की संस्थाओ में उनकी सहभागिता केवल आजादी के लिए लड़ने को इच्छुक अन्य सहयोगियों से सहयोग प्राप्त करने के उद्वेश्य थी।
''एसोसिएशन को आर्मी'' में बदलने का उनका कार्य उनको प्राप्त राष्ट्रवादी संस्कारो को प्रदर्शित करता है। विवाह के आदेश को विनम्रता पूर्वक अमान्य करते हुए उन्होने अपने पिता परिजनों से कहा कि '' मेरे लिए क्रांति इश्क है और आजादी दुल्हन''। विपल्व के ऐसे साहसिक तरीकों से देश के लिए जीवनव्रत अपनाने के ऐसे अदभुत विचार प्रखर राष्ट्रवाद से सिंचित समाजवादी के ही हो सकते हैं। 23 मार्च 1931 को हुआ। उनका महान बलिदान आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।
क्रांतिवीर सुखदेव
शहीद सुखदेव - पंजाब में लुधियाना के थापर परिवार में 15 मई 1907 को जन्में सुखदेव के जन्म से तीन माह पूर्व ही उनके पिता का देहांत हो चुका था। परन्तु उनका बचपन एंव तरूणाई भगतसिंह के नगर लायलपुर एंव लाहौर में बीते।धर्मपरायण माता एंव आर्यसमाजी साधक ताऊ लालाअचिंतनराय ने उन्हे आस्था एंव देश भक्ति के संस्कार दिए। स्थानीय धनपतराय आर्य विद्यालय तथा सनातन विद्यालय जैसी संस्थाओ में उन्हे वैदिक दीक्षा के साथ-साथ राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई। ताऊ अचिंतनराय को अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना से उनके तरण मन में भी अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोही विचार प्रबल होने लगे। नेशनल कालेज में आचार्य चन्द्रकांत विद्यालंकार के सिखाए प्रखर राष्ट्रवाद तथा वहीं पढ़ रहे भगतसिंह के विपल्वी विचारों से प्रेरित होकर हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन और बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपबलिक आर्मी में सम्मिलित होकर क्रांति के पथ पर चल दिए। उनके प्रारम्भिक जीवन की इस पृष्ठभूमि से स्पष्ट है कि समाजवादी संस्था का
सहारा उन्होने केवल क्रांति कि उद्वेश्य की पूर्ति के लिए लिया था, जब कि प्रखर स्वाधीनता की घुट्टी तो वे जन्म से ही पिए हुए थे। भगत सिंह की भांति विवाह के प्रंसग पर सुखदेव ने अपनी बहन से कहा था कि ''घोड़ी पर चढ़ने के बदले में फांसी पर चढ़ना पसन्द करूंगा''। 1907 में भगतसिंह के साथ जन्में सुखदेव ने उन्ही केे साथ ही 23 मार्च 1931 को उन्होने भी देश रक्षा हेतु अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
क्रांतिवीर राजगुरु
शहीद राजगुरू - महाराष्ट्र में पूना के खेड़ा गांव में 1909 में जन्मे ''शिवराम हरि राजगुरू'' छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रपोत्र छत्रपति साहू के राजगुरू के वंशज थे। अतः धर्मरक्षा, राष्ट्रभवित और बलिदान के संस्कार उन्होने अनुवांशिक वरदान के रूप में प्राप्त हुए थे। वे बाल्यावस्था में ही पिता के आश्रय से वंचित हो गए। बड़े भाई के कडे़ अनुशासन और पाठशाला के बंधन उन्हे पंसद नही थे। एक दिन बिना बताए घर से चले गए और मात्र नौ पैसे की राशि साथ लेकर पूना, नासिक, कानपुर, लखनऊ होते हुए देश की अस्मिता के केन्द्र वाराणासी पंहुचकर, वहां अहिल्या धाट पर सेवा करते हुए संस्कृत आश्रम मंे अध्ययन करने लगे। आश्रम कें आचार्य से देश की संस्कृति एंव प्रतिष्ठा की रक्षा करने की प्रेरणा लेकर बाद में वे लाहौर पहुंचे। लाहौर में उन्हे नौजवान भारत सभा तथा हिन्दुस्तान रिपबलिक एसोसिएशन के क्रांतिकारी सदस्यों के साथ लाहौर बम षड़यंत्र कांड में अंग्रेज पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 23 मार्च 1931 को उन्होने भी भगत सिंह, सुखदेव के साथ अपना जीवन बलिदान कर दिया।
क्रांतिवीर हेमू कालानी
शहीद हेमू कालानी - 23 मार्च १९२३ को अविभाजित सिंध प्रांत के सक्खर नगर में जन्मे हेमू को राष्ट्रभक्ति के संस्कारो की प्रारम्भिक शिक्षा तिलक विद्यालय में प्राप्त हुई। राजनैतिक आंदोलन हेतु कांग्रेस पार्टी से जुड़े उनके चाचा डा. मंद्याराम कालानी की प्रतिबद्धता आर्य समाज से थी। डा. मंघाराम ने नवयुवकों को राष्ट्रवाद के प्रवाह में शामिल करने के लिए '' स्वराज सेना'' का गठन किया। जिसमें भतीजे हेमू को देशरक्षा की दीक्षा दी। अंग्रजों द्वारा उनके गिरफ्तार किए जाने पर हेमू ने ही स्वराज सेना के कार्य को युवाओं में फैलाया। इस संगठन में उपलब्ध भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद एंव अन्य क्रांतिकारियो के बलिदान से संम्बधित साहित्य को पढ़कर हेमू ने 17 वर्ष पहले 9 अगस्त 1925 को लखनऊ में हुए काकोरी कांड की पुरनावृति करने का साहस किया। 23 अक्टूबर 1942 की मध्य रात्री को नगर सीमा के बाहर उसने वहां से गुजरने वाली अंग्रेज सेना के हथियारों से भरी रेलगाड़ी को गिराने के लिए रेलपटरी की फिश प्लेटस उखाड़ दीं। इस
प्रयास को पूर्ण करते समय सेना के गश्ती दल ने उन्हें पकड़ लिया। अपने साथियों के नाम बताने तथा अन्य क्रांतिकारी गतिविधियो की जानकारी देने के बदले उसे सरकारी गवाह बनने का लालच दिया गया। लेकिन यातनाओं के बावजूद उसने दृढ़ता के साथ गोपनीयता बनाए रखी। सेना की मार्शल कोर्ट ने उसे अजीवन करावास की सजा सुनाई। परन्तु हैदराबाद के मुख्य मार्शल लाॅ प्रशासक कर्नल रिचर्डसन ने हेमू के साहस को विपल्व मानकर राजद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास को मृत्यूदंड के बदल दिया। 21 जनवरी 1943 को 19 वर्षीय हेमू ने सक्खर जेल में मुस्कराते हुए फांसी का फंदा पहनकर देश के लिए उसने अपने जीवन बलिदान कर दिया।
संकलन एवं प्रस्तुति :- डाॅ. सुखदेव माखीजा, समसामयिक साहित्यकार एवं समीक्षक