श्री दश्र संप्रदाय - एक महश्रम तत्व की समीक्षा

अभय गोरे

Update: 2023-12-25 21:01 GMT

क्या है जीवन कैसे जन्मता, कैसे चलता, कैसे समाप्त होता क्या है इसकी ऊर्जा जो इसे फैलाती, चलाती, सिकोडती, विदा करवा देती है। धर्म की भाषा कहती है ब्रह्मा-विष्णू-महेश है। विज्ञान की भाषा कहती है इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॅान, न्यूट्रॉन है। प्रोट्रॅान-धनात्मक उर्जा, कहना चाहिए ब्रह्मा, इलेक्ट्रॉन-ऋणात्मक ऊर्जा कहना चाहिए महेश, न्यूट्रॉन-दोनों के बीच डोलता है और जोड़ता है विधायक ऊर्जा कहना चाहिये विष्णू। जीवन में अवतरण विष्णु का ही होता है। जीवन का नाम ही विष्णु है। ब्रह्मा और शिव के बीच की यात्रा का नाम विष्णु है। वैदिक काल से यद्ययावत काल तक विष्णु के अवतार का ही फैलाव है।

एक इंग्लिश शब्द है ‘GOD’ त्रिमूर्ति दश्रात्रेय की संकल्पना को अपने आप में समेटे हुए हम देख सकते है। जैसे Generation ब्रम्हा Organization विष्णु Destruction महेश। ये तीनों उत्पत्ति, स्थिति व लय के संयुक्त प्रतीक है। हम अपने जीवन का अर्थ प्रतीकों मे खोजते रहते हैं।

श्री दश्रतत्व: भगवान दत्तात्रेय को ''अवधूत व ''दिगंबर संज्ञा से भी संबोधित किया जाता है। अवधूत का अर्थ अहं को धोने वाला। दिगंबर अर्थात दिशायेें ही जिनकी वस्त्र हैं। संप्रदाय में जीवन मुक्ति के लिये सगुणोपासन तथा योगमार्ग के अवलंबन का मार्ग इंगित किया गया है। 15 वीं सदी मे हिंदू राज्यों का नष्ट होना प्रारंभ हो गया था। यवन सत्ता काबिज होने लगी थी। ब्राह्मणों ने भी अपना आचार धर्म छोड़ दिया था। इस संप्रदाय ने समाज में सौहार्द का विलक्षण कार्य किया है, आज जिसे हम कौमी एकता कहते हंै वही कार्य संप्रदाय ने किया है। समाज को संघटित कर वैदिक व भागवत धर्म की रक्षा का कार्य भी किया है। दत्तात्रेय के कुल 16 अवातर हुये हैं तथा स्वयं दत्तात्रेय ने 24 गुरू करके सभी से शिक्षा ग्रहण की है। विदित है कि विष्णु भगवान के दस प्रमुख अवतारों के अतिरिक्त उनके कुल 24 अवतार हैं। इन 24 अवतारों में से श्री दत्तावतार एक है। दत्त तत्व अविनाशी रहकर सदैव विद्यमान रहता है। तथा स्मरण करने पर भक्त के समक्ष सादृश होकर उस पर अपनी कृपादृष्टि से अनुकंपा करता है। इसलिये श्री दत्तात्रेय भगवान को ''स्मर्तुगामी तथा ''स्मृतिमात्रानुगन्ता कहा गया है। मन की उन्मनी अवस्था का नाम दत्तात्रेय है। दश्रात्रेय भगवान की आराधना संपूर्ण भारत में निवासरत महाराष्ट्रीयन परिवारों में प्राणार्पण भाव से की जाती है। दत्त संप्रदाय में प्रतिपाद्य आराध्य की मूर्तिपूजन की अपेक्षा इस दैवत के पादुकाओं के पूजन अर्चन को अधिक महत्व दिया गया है।

प्रचलित लोकप्रिय कथा: नारद मुनि ने सावित्री लक्ष्मी, तथा पार्वती से सती अनुसूया के पातिव्रत्य धर्म की प्रशंसा की, इन तीनों देवियों का स्त्री सुलभ मन ईर्ष्या से जलने लगा। उन्होंने अपने-अपने पतियों को अर्थात ब्रह्मा, विष्णू महेश से अनसूया का सत्वपरीक्षा करने के लिय बाध्य कर उन्हें अत्रि ऋषि के आश्रम भेजा। किंतु ऋषि आश्रम में नहीं थे। सती अनसूया ने अतिथि के रूप में आगत त्रिदेवों का पूर्ण आस्था के साथ आदरातिथ्य किया तथा भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। त्रिदेवों ने कहा सती अनसूया तुम अगर विर्वस्त्र होकर भोजन परोसोगी तो ही हम अन्न ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं। गृहस्थाश्रम का धर्म है कि अतिथि विन्मुख न जाये अत: सती ने अपने पति का स्मरण कर जल का सिंचन त्रिदेवों पर किया, पातीव्रत्य के प्रभाव से वे तीनों देव तत्काल बालक हो गयें। सती ने फिर उन्हें भोजन कराया। इस अद्भुत घटना की सूचना उमा, रमा सावित्री को लगी वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंची तथा अपनें पति देवों को बाल्यावस्था मे देख अंचभित हो गई. सती अनसूया की अनुकंपा से वे बालक अपने मूलस्वरूप को फिर से प्राप्त हुए त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अत्रि ऋषि से वर मांगने को कहा, अत्रि ऋषि ने पुत्र रूप में हमें आप प्राप्त हो ऐसी कामना की। अत: कालांतर में मार्गशीर्ष षु. पौर्णिमा को प्रदोष काल में विष्णू के अंश से दत्तात्रेय, शिव के अंश से दुर्वास व ब्रह्मा के अंश से सोम ऐसे तीन पुत्र अत्रि-अनसूया दम्पति को हुये। सृष्टि की उत्पत्ती, स्थिति व लय के प्रतीक ब्रह्मा विष्णु महेश का संयुक्त रूप भगवान दत्तात्रेय माने जाते हैं। समस्त सृष्टि त्रिगुणात्मक है अत: दत्तात्रेय सत्व, रज, तम के एकीकृत द्योतक होने के कारण दत्तात्रेय की तीन सिर वाली प्रतिमा ने मान्यता प्राप्त की।

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