भारत एक धर्म प्रधान देश है। आस्था एवं श्रद्धा इस देश की प्राणशक्ति है। जड़ से लेकर चेतन तक हमारी आस्था एवं श्रद्धा का विस्तार है। जागरण से लेकर शयन तक की अपनी दिनचर्या का यदि हम सूक्ष्मता से निरीक्षण करें तो पाएंगे कि हमारे सभी कार्यों के पीछे आस्था और श्रद्धा एक प्रेरक-शक्ति के रूप में न्यूनाधिक अनुपात में सदा उपस्थित रहती है। हमने गाँव-घर, खेत-खलिहान, नदी-तट, जंगल-पर्वत, धरती-आकाश, सूरज-चाँद सबमें अपनी श्रद्धा-भावना को प्रतिष्ठापित किया। घटाटोप अँधेरों भरे दौर में भी लोक की आस्था और श्रद्धा का यह अंतर्दीप सदा जलता रहा है और समाज एवं मनुष्यता का पथ आलोकित करता रहा है।श्रद्धा-आस्था-विश्वास की यह थाती दुनिया को भारत की अनूठी देन है। यह लोक के संचित अनुभवों का सार है। सहस्त्राब्दियों से इसके बल पर हम समय के शिलालेख पर अपनी अमिट छाप छोड़ते आए हैं और तमाम झंझावातों एवं तूफानों के बीच भी अपने सांस्कृतिक सूर्य को डूबने से बचाते रहे हैं। इस सांस्कृतिक सूर्य का दैदीप्यमान प्रतीक है भगवा। स्वाभाविक है कि इसे धारण करने वाला संत-समाज हमारी आस्था एवं श्रद्धा का उच्चतम केंद्रबिंदु है।
सांसारिक माया-मोह एवं भौतिक आकर्षणों से मुक्त सेवा, संयम, त्याग एवं वैराग्य के पथ का अनुसरण करने वाले साधु-संत भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही मान्य एवं पूज्य रहे हैं। वशिष्ठ-बाल्मीकि-विश्वामित्र से लेकर बुद्ध-महावीर-शंकराचार्य और आधुनिक काल में भी स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, महर्षि अरविंद तक- सबने अपने-अपने ढंग से भारत की ऋषि-परंपरा को आगे बढ़ाया एवं उसे नई ऊँचाई प्रदान की। वह भारत की ऋषि एवं संत परंपरा ही है जिसने सनातन की सांस्कृतिक धारा को अवरुद्ध होने से बचाया। काल के प्रवाह में आए दूषण को प्रक्षालित कर उसे शुद्ध-सतत पुण्यसलिला के रूप में ग्राह्य, गतिशील एवं समयानुकूल बनाया। आज भी तमाम साधु-संत अपने-अपने ढ़ंग से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धारा को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं। शिक्षा-सेवा-चिकित्सा के तमाम प्रकल्पों का सफल संचालन कर रहे हैं। भारत को भारत बनाए रखने में इन साधु-संतों का अप्रतिम योगदान है।
दु:ख और आश्चर्य है कि आज उसी भारतवर्ष में भगवाधारी संतों पर प्राणघातक हमले हो रहे हैं। पालघर से लेकर करौली तक, चंडीगढ़ से लेकर नांदेड़ तक, मुरादाबाद से मुर्शिदाबाद तक साधु-संतों पर हुए हमले न केवल पुलिस-प्रशासन के लिए बल्कि एक समाज के रूप में हमारे लिए भी चिंता एवं सरोकार का विषय होना चाहिए। मनुष्यता का इससे क्रूर एवं वीभत्स चित्र (कदाचित कारुणिक भी) शायद ही कभी किसी के दृष्टिपटल पर उभरा हो कि एक निरीह-निर्दोष-निहत्था-बूढ़ा संत हिंसक भीड़ से अपने प्राणों की रक्षा के लिए यहाँ-वहाँ करुण गुहार लगाता रहा और पुलिस अपने कर्तव्यों का पालन करने के स्थान पर - मात्र मूक दर्शक बनी रही। पुलिस-प्रशासन की कर्तव्यहीनता का संभवत: यह सबसे काला अध्याय हो। पालघर के उन संतों की चिता की आग अभी ठीक से ठंडी भी न होने पाई थी कि अब राजस्थान के करौली में एक पुजारी को ज़िंदा जलाकर मार डाला गया। क्या ऐसी घटनाओं को देखकर समाज और व्यवस्था के कलेजे में हूक नहीं उठनी चाहिए? क्या ये घटनाएँ व्यवस्था को विचलित कर देने वाली नहीं हैं? किसी भी सभ्य एवं संवेदनशील समाज में बूढ़ों-अशक्तों-सुपात्रों-सज्जनों के प्रति सर्वाधिक संवेदनशीलता पाई जाती है।
यहाँ यह कहना भी अनुचित नहीं होगा बदलते दौर के साथ संत समाज में भी कुछ बुराइयाँ घर करती जा रही हैं। समय आ गया है कि उन्हें स्वयं अपना आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए और प्रक्षालन का एक अभियान अपने समाज के भीतर ही चलाना चाहिए। सभी धर्माचार्यों को मिल-बैठकर एक बृहत आचार-संहिता का निर्धारण करना चाहिए और सभी के लिए उसके पालन की अनिवार्यता रखनी चाहिए। साधु-संतों के व्यक्तित्व के दर्पण में समाज को अपने तमाम दाग-धब्बे दिख जाएँ, उन्हें इतना बेदाग़, इतना निर्मल होना चाहिए। सिद्धि साधनों से नहीं, साधना से मिलती है। कितना अच्छा हो कि उस सिद्धि का सदुपयोग धरती पर चलते-फिरते दरिद्रनारायण की सेवा में सतत होता रहे! ठीक उसी प्रकार - जैसे तमाम साधु-संत, मठ-आश्रम निरंतर कर भी रहे हैं। पर यह सक्रिय एवं सुचारू रूप से तभी संभव है, जब समाज आस्था एवं श्रद्धा के इन मूर्तिमान स्वरूपों एवं केंद्रों के रक्षार्थ आगे आए। उन पर हमलावर व्यक्तियों-संस्थाओं-विचारों का समवेत स्वर में विरोध करे। उन पर हो रहे हर हमले को स्वयं पर हुआ हमला माने।
(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)