रमेश शर्मा
पराधीनता काल के भीषण अत्याचारों से केवल सल्तनकाल का इतिहास ही रक्त रंजित नहीं है, अंग्रेजी काल में भी दर्जनों ऐसी कू्ररतम घटनाएँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जिन्हें पढ़कर आज भी प्रत्येक भारतीय आत्मा रो उठती है। ऐसी ही एक घटना कानपुर के पास बिठूर की है। अंग्रेजों ने पहले एक तेरह वर्षीय बालिका मैना देवी को कठोरतम यातनाएँ दीं और फिर जिन्दा जलाया। यह बालिका मैना देवी नाना साहब पेशवा की दत्तक पुत्री थी।
1857 के स्वाधीनता संग्राम में कानपुर एक प्रमुख केन्द्र था। यहीं से ही क्राँति के संदेश देश भर में फैले थे। प्रत्येक स्थान केलिये क्रान्ति के कारण अपने अलग थे पर सबको संयोजित करने की योजना कानपुर में ही बनी थी। इसकी कमान नाना साहब पेशवा के हाथ में थी। उनकी ओर से तात्याटोपे ने एक टोली बनाकर भारत भर में संदेश वाहक भेजे थे। संदेशों के आदान प्रदान का काम भ्रमण करने वाले संन्यासी और ग्राम पुरोहित कर रहे थे। देश भर में वातावरण बनाकर कानपुर में क्राँति का शंखनाद किया गया और नाना साहब ने सत्ता भी संभाल ली। नाना साहब पेशवा ने सभी अंग्रेज परिवारों को सुरक्षित आगरा भेजने का प्रबंध भी कर लिया था। इसके लिये दो सौ नावें एकत्र कर लीं गई थी ताकि जल मार्ग से ये सभी यूरोपीय परिवार सुरक्षा के साथ जा सकें कुछ नावे रवाना भी हुईं किन्तु सत्ती चौरा में कुछ सैनिकों में प्रतिक्रिया हुई और शेष बचे अंग्रेज परिवारों को मार डाला इस समाचार से लंदन तक बौखलाहट हुई। कानपुर में दमन के आदेश हुये। जनरल नील और जनरल हैवलॉक दो सेनापति अपनी-अपनी सेनायें लेकर कानपुर पहुँचे। जनरल नील और हैवलॉक अपनी कू्ररतम सैन्य कार्रवाई के लिये कुख्यात थे। इसीलिए इन दोनों जनरलों को उनकी सेना के साथ कानपुर भेजा गया। इन सेनाओं ने पूरे क्षेत्र पर घेरा डालकर कत्लेआम प्रारम्भ कर दिया। इनका कत्लेआम पहले कानपुर नगर में नहीं आसपास के गाँव में हुआ। वे कानपुर के सभी संपर्क मार्गों पर एक दीवार बनकर खड़े हो गये ताकि बाहर से खाद्यान या सैनिक आदि किसी भी प्रकार की सहायता नगर के भीतर न पहुँच सके। इस रणनीति से उन्होंने संपर्क तो तोड़ा ही साथ ही आतंक फैला कर क्रांतिकारियों को समर्पण के लिये विवश भी कराना चाहते थे। इसका संकेत नाना साहब को लग गया था। वे किसी प्रकार सुरक्षित निकल गये और बिठूर पहुँच गये। अंग्रेजों को नाना साहब के बिठूर पहुँचने की सूचना मिल गई थी। अंग्रेजी सेना ने पहले कानपुर में विध्वंस और कत्लेआम किया फिर बिठूर पहुँची। बिठूर का किला घेर लिया गया। नाना साहब किसी प्रकार वेश बदलकर निकल गये पर उनके द्वारा गोद ली गई बालिका मैना रह गई।
यहाँ इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। कुछ का मानना है कि नाना साहब अपनी पुत्री को भी साथ ले जाना चाहते थे पर वह स्वयं जिद करके रुक गई थी। जबकि कुछ का मानना है कि मैना देवी बिठूर में पहले से थी। नाना साहब जब वेष बदलकर कानपुर से निकले तब वे बिठूर आये ही नहीं। वे कानपुर से अज्ञातवास को चले गये थे। और जब उन्होंने अपने विश्वासपात्र सैनिकों को बालिका को लेने के लिये बिठूर भेजा तब तक देर हो चुकी थी। बिठूर का किला घिर चुका था। कुछ सैनिक बालिका को निकालने के लिए किले में प्रविष्ट तो हो गये पर बाहर न निकल सके। सत्ती चौरा कांड के बाद बौखलाए अंग्रेजों ने यहाँ भी वही रणनीति अपनाई। न कोई बाहर आ सके और न कोई भीतर जा सके। उन्होंने पानी की सप्लाई भी काट दी थी। अंग्रेज सत्ती चौरा कांड के लिये नाना साहब को ही जिम्मेदार मान रहे थे। इसलिये नाना साहब को बहुत जल्द जिन्दा या मुर्दा पकड़ना चाहते थे। घेरा डालकर अंग्रेज सेना की तोपें गरज उठी। महल लगभग ध्वस्त हो गया। सेना अंदर घुसी। सैनिकों को जो सामने दिखा उसे मौत के घाट उतारा। सारा सामान लूटा और बालिका मैना बाई को पकड़कर लेकर आये उसे सैन्य अधिकारी आउटरम के सामने पेश किया। और फिर हैवलॉक के सामने लाया गया। अंग्रेज बालिका से नाना साहब का पता जानना चाहते थे। हैवलॉक के आदेश पर बालिका को कठोर यातनाएँ दी गईं। खंबे से बाँधकर गर्म सलाखों से दागा गया। जली हुई त्वाचा पर नमक मिरची डालकर नाना साहब का पता पूछा गया। यातनाओं के बीच भी बालिका ने स्पष्ट और बेझिझक उत्तर दिये। वह अचेत हो गई। अंग-अंग से घायल वह चौदह वर्षीय बालिका दो दिन तक पेड़ से बंधी रही। उसे खाना तो दूर पानी तक नहीं दिया गया। अंतत: दो दिन बाद उस पर घासलेट डालकर आग लगा दी गई। वह 3 सितम्बर 1857 का दिन था। जब अंग्रेजों की कू्ररता से इस बालिका का बलिदान हुआ। इसके बाद पूरे महल को तोप से ध्वस्त कर दिया गया। जितने लोग जिन्दा मिले सभी मार डाले गये और नाना साहब का पता बताने वाले को एक लाख रुपए का पुरुस्कार देने की घोषणा हुई। पर नाना साहब का पता कभी किसी को न लगा। जिस प्रकार बालिका मैनादेवी का बलिदान हुआ उस वृतांत को पढ़कर आज भी भारतीयों की आँखे नम हो जाती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)