ब्रिटेन में अभी स्कूलों में छुट्टियांँ चल रही हैं। सोमवार से विद्यार्थी अपने-अपने स्कूलों में वापिस जाने के लिये तैयारियांँ कर रहे होंगे। ऐसे में अचानक एक ऐसा समाचार सामने आया जिसने पूरे शिक्षा जगत को चिंता के घेरे में ले लिया। सरकार को पता चला है कि इंग्लैंण्ड के 156 स्कूलों के भवनों के निर्माण में कुछ ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया गया है जिससे भवनों के गिरने का डर रहता है। इस सामग्री को अंग्रेज़ी में Reinforced Autoclaved Aerated Concrete (RAAC) कहा जाता है। निर्माण इंजीनियरों ने चेतावनी भी दी थी कि इस सामग्री से भवनों में दरारें पैदा हो सकती हैं और विद्यार्थियों का जीवन ख़तरे में पड़ सकता है।
ब्रिटेन के शिक्षा विभाग ने उन स्कूलों को हिदायत दी है, जो कि आर.ए.ए.सी. सामग्री से बने हैं, कि वे अपने-अपने स्कूलों को तब तक बंद रखें जब तक सुरक्षा संबंधी काम पूरे न कर लिये जाएं। विभाग ने कहा है कि हो सकता है कि हमारे आदेश से आपको हैरानी हो और आपके रोज़मर्रा के कामों में अड़चनें पैदा हो सकती हैं, मगर हमारे लिये विद्यार्थियों और कर्मचारियों की सुरक्षा हमारी पहली प्राथमिकता है। एसोसिएशन ऑफ़ स्कूल एंड कॉलेज लीडर्स ने कहा कि भवनों के ढह जाने के डर से जल्दबाज़ी में आकस्मिक योजना बनाने से एक बात साफ़ होती है कि सरकार ने स्कूल-संपत्ति की ख़ासी उपेक्षा की है।
ब्रिटेन में अधिकतर दो पार्टी का राज चलता है यानी कि या तो कंज़रवेटिव पार्टी या फिर लेबर पार्टी। इसलिये हर मंत्री पद के लिये एक 'शैडो मिनिस्टरÓ होता है। सत्तारूड़ पार्टी का मंत्री असली मंत्री होता है और विपक्षी पार्टी अपना 'शैडो मिनिस्टरÓ घोषित करती है। यानी कि सत्ताधारी दल की ही तरह विपक्ष भी अपनी कैबिनेट घोषित करता है।
यहां की शैडो शिक्षा-मंत्री 'ब्रिजेट फ़िलिप्सनÓ ने सत्ताधारी कंज़रवेटिव पार्टी की आलोचना करते हुए कहा कि, 'यह टोरी पार्टी की घोर अक्षमता का उदाहरण है।Ó उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहा कि, बच्चे छुट्टियों के बाद स्कूलों में आने वाले हैं और इंगलैण्ड के दज़र्नों ऐसे स्कूल हैं जो ढहने की कगार पर खड़े हैं। सच तो यह है कि हमारे मंत्री एक लंबे अरसे से इस अराजकता को खींचते चले आ रहे हैं।
नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ 'हेड टीचर्सÓ (प्रिंसपल) के महासचिव पॉल व्हाइटमैन ने कहा कि, उनके संघ ने बार-बार इस ख़तरे के बारे में चिन्ता जताई थी। यह समाचार चौंकाने वाला तो है मगर दु:ख की बात है कि, यह बहुत हैरान करने वाला नहीं है। ये सब एक दशक से स्कूल भवनों पर ख़र्च में कटौती का परिणाम है। विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर सरकार की चिन्ता वाज़िब है। मगर सरकार का यह निर्णय बहुत ग़लत समय पर लिया गया है। बच्चे अगले सप्ताह गर्मियों की छुट्टियों से लौटने वाले हैं। इससे स्कूलों के प्रधानाचार्यों पर भारी दबाव पड़ेगा। क्योंकि उन्हें वैकल्पिक भवन की व्यवस्था करने के लिये संघर्ष करना होगा।
शिक्षा विभाग ने स्कूलों के नाम ज़ाहिर नहीं किये जिन्हें नये भवन तलाशने के लिये कहा गया है। उन्होंने यही घोषणा की है कि कुछ स्कूलों से कहा गया है कि वे या तो पूरी तरह से या फिर ज़रूरत के हिसाब से आंशिक रूप से विद्यार्थियों के लिये वैकल्पिक भवन का इंतज़ाम करें। जब तक कि सुरक्षा नियमों के अनुसार वर्तमान स्कूल-भवनों की ठीक से मरम्मत ना कर ली जाए। वहीं निराश अभिभावकों ने सोशल मीडिया पर अपना गुस्सा व्यक्त किया है। उनका कहना है कि दो दिन में स्कूल खुलने वाले हैं और स्कूल मैनेजमेन्ट को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है।शिक्षा सचिव (ब्रिटेन में मंत्री को सचिव कहा जाता है) जिलियन कीगन ने कहा कि, हमारे लिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण है स्कूल और कॉलेजों के विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों की सुरक्षा। इसीलिये हमें जैसे ही आर.ए.ए.सी. के बारे में नये सुबूत प्राप्त हुए, हमने स्कूल खुलने से पहले ही ये कदम उठाए हैं।
हमें इस मुद्दे पर सतर्क रवैया अपनाना होगा। यही विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों के हित में होगा। हमने जो योजना बनाई है इससे बच्चों की पढ़ाई पर न्यूनतम असर होगा और स्कूलों को सही तरह से अनुदान भी प्राप्त हो पाएगा ताकि वे आर.ए.ए.सी. से पैदा हुई मुश्किलों का ठीक से सामना कर सकें। शिक्षा विभाग ने यह भी दावा किया है कि स्कूलों को, वैकल्पिक भवन ढूंढने के लिये, वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाएगी। हर स्कूल के लिये एक सहायक नियुक्त किया जाएगा जो कि उनकी समस्या को सही ढंग से निपटाने में मददगार होगा।
एक यू.के. ब्रिटेन है तो दूसरा यू.के. भारत में है- 'उत्तराखंडÓ। वहां से भी समय-समय पर स्कूलों के जर्जर भवनों का समाचार आता रहता है। वही नहीं, भारत के तमाम राज्यों के सरकारी स्कूलों के बारे में समाचार आते रहते हैं कि वहां स्कूलों के भवन अब गिरे की तब गिरेÓ की स्थिति में हैं। मगर कभी ऐसा समाचार पढ़ने को नहीं मिलता कि राज्य सरकारें इन मामलों में कुछ सकारात्मक कदम उठा रही हैं। पिछले कई वर्षों से सवाई माधोपुर, देहरादून, बस्ती, बिलासपुर, सिवनी, महाराजगंज, सतना जैसे शहरों से स्कूलों में बच्चों की जान, भवनों के कारण, ख़तरे में बताई जाती रही है। भारत के तमाम समाचारपत्र इन ख़बरों से अटे पड़े हैं। बहुत से स्कूलों में बच्चे बरामदों में पढ़ने को मजबूर हैं तो कहीं पेड़ के साये तले। देश की राजधानी दिल्ली के, दक्षिण-पूर्व दिल्ली के मोलारबंद इलाके में, दिल्ली सरकार के 11 स्कूलों के लगभग 40 हजार बच्चे पिछले 4 वर्षों से मजबूरन पोर्टा-केबिन या सीधे शब्दों में कहें तो टीन शेड की बनी क्लासरूम्स में पढ़ने को मजबूर हैं। बताया जा रहा है कि मोलारबंद एरिया में 11 स्कूलों के बच्चे हैं, बेहद विषम परिस्थितियों में पढ़ रहे हैं।
पिछले 4 वर्षों के लम्बे इंतजार के बावजूद, अभी तक इन स्कूलों में चल रहे निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो सके हैं। जिसके चलते ग़रीब परिवार के बच्चे आर्थिक तंगी होने के कारण पोर्टा-केबिन के क्लासरूम्स में पढ़ने को मजबूर हैं। उनके पास इतने पैसे नहीं है कि वो किसी प्राइवेट स्कूल में अपनी पढ़ाई शुरू कर सकें। इन हालात में गर्मियों के मौसम में बच्चे किस कदर कष्ट में पढ़ाई करते होंगे इसका अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है। सोचा जा सकता है कि टीन शेड के नीचे की कक्षा का तापमान क्या होता होगा। साथ में यह भी बताया जा रहा है कि इन पोर्टा केबिन स्कूलों के बच्चों को, बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया नहीं करायी जा रही हैं- जैसे कि पीने के पानी की भी उचित व्यवस्था नहीं है और न ही अन्य कई सुविधाएं।
स्कूल प्रशासन का कहना है कि, हमने कई बार दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग को पत्र लिख कर अपनी समस्याओं से अवगत कराया। परन्तु अभी तक विभाग की ओर से कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला है। साथ में यह भी बताया कि जिन नये भवनों का निर्माण किया गया है या किया जा रहा है उनमें भी कई आधारभूत आवश्यकताओं को दरकिनार किया गया है। जिसके चलते आने वाले समय में भी परेशानियाँ बढ़ेंगी न कि कम होंगी। मैं भारतवंशी हूंँ और अब लंदन में रहता हूंँ। दोनों देशों में एक सी समस्या देख रहा हूंँ और तुलना करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा। एक तरफ़ सरकार स्वयं आगे बढ़ कर समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है। उसके बावजूद आलोचना की शिकार बन रही है। और दूसरी तरफ़ बच्चों और कर्मचारियों के जीवन ख़तरे में हैं, मगर किसी के पास न तो इच्छा है न योजना कि, कैसे इस समस्या से निपटा जाए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं एवं लंदन में रहते हैं)