पिछले 'वज्रपात - ईसाई मिशनरियों की देन: गाँठ में जिनकी है ढेरों रुपैयाÓ में मैंने एडम स्मिथ की पुस्तक 'वेल्थ ऑफ नेशनÓ का सन्दर्भ देते हुए 'लेज़ेज़ फेयरÓ सिद्धान्त, ईसाई मिशनरियों के प्रचार-तन्त्र और हिन्दी के अन्तर्सम्बन्ध को उजागर किया था। उसी क्रम में यह स्थापना दी थी कि मिशनरियों द्वारा ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दी साधन बनी। उन्होंने हिन्दी का ही नहीं, अपितु सभी भारतीय भाषाओं का उपयोग (शोषण) किया। मिशनरियों ने भाषा ही नहीं, भारतीय धर्म (हिन्दू) के आधार तत्वों का भी समय-समय पर यथेष्ट उपयोग किया है। स्वतन्त्रता-पूर्व ब्रिटिशों ने ईसाइयत के प्रचार-प्रसार को 1813 के चार्टर अधिनियम के अन्तर्गत विधिवत आधार प्रदान किया था। जबकि स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने उन्हें पर्याप्त संरक्षण (सहयोग) दिया। इसके प्रत्यक्ष प्रमाणों में से एक है प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा दि. 17 अक्टूबर 1952 को मुख्यमन्त्रियों को आदेश स्वरूप लिखा हुआ पत्र।
नेहरू ने उस पत्र में लिखा है - 'मुझे ज्ञात है कि अभी तक ईसाई मिशनों और मिशनरियों के प्रति अतीत के पूर्वाग्रह का दुष्प्रभाव शेष है।Ó अर्थात् उनकी बद्धमूल धारणी थी कि मिशनरियों के प्रति भारतीयों (हिन्दू) में पूर्वाग्रह हैं। वे इसी पत्र में एक स्थान पर लिखते हैं कि ईसाई भारत के 'मूल निवासी? (इन्डिजनस) हैं। वे स्वीकारते हैं कि 'उनमें से कुछ ने उत्तर-पूर्व में अलगाववादी और विघटनकारी आन्दोलनों को बढ़ावा दिया था।Ó और, निष्कर्षत: बताते हैं कि अब 'वह चरण समाप्त हो गया है।Ó ऐसा कहते हुए वे इस निष्कर्ष का कोई आधार प्रस्तुत नहीं करते। यह सब लिखते हुए उनके भीतर का भारत खोजी इतिहासकार जागता है और वे भारत की व्यापक समझ प्रस्तुत करने के प्रयास में लिखते हैं - 'हमें स्मरण रखना चाहिए कि भारत में बड़ी संख्या में ईसाइयत के अनुयायी हैं और दक्षिण भारत में 2000 वर्ष पूर्व ईसाइयों का आगमन हुआ था।Ó
उस पूरे पत्र को ध्यान से पढ़ा जाय, तो अन्तर्विरोध प्रकट होते हैं। यदि ईसाई मूल निवासी थे, तो 2000 वर्ष पूर्व आने का तर्क निरर्थक सिद्ध होगा। दो परस्परविरोधी कथनों से भ्रम व सन्देह उत्पन्न होता है। ईसाई या तो भारत के मूल निवासी थे या कभी किसी समय आये होंगे। भारत में समय-समय पर कई समूह स्वयं को विशिष्ट बताते हुए स्वयं को 'भारत का मूल निवासीÓ घोषित करते हैं। यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि 'मूल निवासीÓ घोषित करने वाला पक्ष (नैरेटिव) स्वार्थों के कारण जातियों में विभक्त भारतीयों (हिन्दुओं) को नेहरू से ही प्राप्त हुआ है। परिणामत: 'हिन्दुस्तान किसी के बाप का थोड़ी हैÓ जैसी चुनौतियाँ भी समय-समय पर उपस्थित होती हैं। अर्थात् भारत के 'मूल निवासीÓ अथवा भारत 'अपने बापÓ का होने का दावा समय-समय पर प्रबल होता है।
यह भी अन्तर्विरोधात्मक है कि यदि ईसाई मूल निवासी थे, तो उन्होंने अलगाववादी व विघटनकारी आन्दोलनों को बढ़ावा क्यों दिया? एक और स्थान पर उन्होंने लिखा है कि ईसाई बाहरी शक्तियों के 'एजेण्टÓ भी थे। नेहरू का यह मान लेना ऐतिहासिक भूल थी कि 'वह चरण समाप्त हो गया है।Ó क्योंकि तब से लेकर आज तक ईसाई 'लेज़ेज़ फेयरÓ सिद्धान्त का ही अनुकरण कर अपना विस्तार कर रहे हैं। कुलमिलाकर, नेहरू का यह आदेशात्मक पत्र गिमिक अर्थात् हथकण्डा (पाखण्ड) प्रतीत होता है। उपरोक्त पत्र से यह स्पष्ट होता है कि मिशनरियों को सरकार का खुला समर्थन था। इस पूरे प्रसंग का आंकलन करते हुए 1952 के उक्त पत्र से पूर्व 1950 के दशक में मिशनरियों की गतिविधियों को उजागर करने वाली घटनाओं को भी देखा जाना चाहिए। उस दौरान मध्य प्रदेश में ईसाई मिशनरियों द्वारा वन में निवास करने वाले भारत बन्धुओं के कन्वर्जन की सूचनाएँ आयी थीं। परिणाम स्वरूप मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने नियोगी आयोग का गठन किया था। आयोग के अध्यक्ष मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी थे। इस आयोग को 'क्रिश्चियन मिशनरीज एक्टीविटीज इन्क्वायरी कमेटीÓ अर्थात् 'ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों के लिए जाँच समितिÓ भी कहा जाता है। नेहरू ने कहा कि 'वह चरण समाप्त हो गया हैÓ, किन्तु उन्हीं की मध्य प्रदेश सरकार आयोग के माध्यम से जाँच कर रही थी।
स्पष्ट है कि नेहरू मिशनरियों के प्रति विशेष सद्भाव रखते थे, किन्तु मिशनरियों की भारत (हिन्दू) विरोधी गतिविधियों को दृष्टिगत रखते हुए प्रान्तों में जाँच हो रही थी। नियोगी आयोग ने 1954 में अपनी जाँच पूरी की और 1956 में वह रपट दो खण्डों में प्रकाशित हुई। आयोग ने यह स्पष्ट किया कि चर्च अन्तर्राष्ट्रीय षड्यन्त्र का हिस्सा है। इस सम्बन्ध में विकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार - 'चर्च का मध्यकालीन बर्बर चेहरा तथा चर्च का अभारतीय कृत्य लोगों के सामने आ गया है। ईसाई मिशनरियांँ सेवा का बहाना करती हैं, किन्तु उनका असली उद्देश्य अपनी सत्ता व साम्राज्य स्थापित करना है। भारतीयों को अपनी संस्कृति की जड़ों से काटना और उनका यूरोपीयकरण करना है।Ó नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान में भी स्थितियाँ बहुत बदली नहीं हैं। ईसाइयत को येनकेनप्रकारेण भारत के कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए ही मिशनरियों को भेजा गया था। उल्लेखनीय है कि 1859-1865 के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री लार्ड पामस्टर्न ने भारत के प्रत्येक हिस्से में ईसाइयत के प्रचार को ब्रिटेन के हित में बताया था। यह सब हो रहा था, भारत की भाषाओं के सहारे। व्यापक रूप में हिन्दी के सहारे, क्योंकि जनसंख्या की दृष्टि से हिन्दी बहुतायत की भाषा थी। मिशनरियों के ऐसे उद्देश्यों को जाने बिना ही स्वभाषा के प्रति उथले प्रेम का प्रदर्शन उसके विकास में कोई सार्थक सहयोग नहीं कर सकता। मिशनरियों ने इस महादेश की भाषाओं का किस प्रकार उपयोग किया है, इसकी गहन जाँच-पड़ताल व समयोचित विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
वर्तमान अंग्रेजीदाँ समय में, हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी की भूरी-भूरी प्रशंसा होती है, किन्तु दैनन्दिन कामकाज में उसमें कार्य-निर्वाह न करने की छूट भी है। हम हिन्दी के नाम पर कार्यक्रम करके ही स्वयं को धन्य मान लेते हैं। सरकार की ओर से उसके नाम पर अमाप रूपये खर्च किये जाते हैं, परन्तु इस सम्पूर्ण कार्यक्रमी खेल में हिन्दी को कोई विशेष लाभ नहीं होता। पीछे एक दिन वर्धा स्थित पवनार आश्रम में एक वरिष्ठ सज्जन से भेंट हुई तो मैंने बातों ही बातों में पूछा कि 'यहाँ क्या-कुछ कार्यक्रम होते हैं?Ó उनका उत्तर था- 'हम कार्यक्रम नहीं करते। कार्यक्रमों में बहुत उथलापन होता है। उससे कुछ साध्य नहीं होता।Ó हमें कार्यक्रमी हिन्दी और उससे मिथ्या प्रेम से ऊपर उठ कर उसके विकास में सार्थक पहल करनी चाहिए। स्मरणीय है कि धनाभाव के कारण 'उदन्त मार्त्तण्डÓ को बन्द करना पड़ गया था, किन्तु ईसाई मिशनरियों को कभी धनाभाव नहीं हुआ। श्रीयुत युगुल किशोर सुकुल का योगदान इसलिए ऐतिहासिक नहीं है कि उन्होंने हिन्दी का प्रथम समाचार-पत्र निकाला, अपितु इसलिए है कि अभावों में भी वे इतिहास रच गये। हम 30 मई को हिन्दी (भारतीय) पत्रकारिता दिवस मना रहे हैं, किन्तु ध्यान रहे कि उन्हें सरकार, व्यवसायी, ग्राहकी सदस्यता के रूप में समुचित सहायता नहीं मिली। उस समय कम्पनी सरकार उर्दू-फारसी के 'जहाँ-ए-जहाँनुमाÓ और बङ्गला के 'समाचार दर्पणÓ जैसे पत्रों को आर्थिक सहायता देती थी। कोलकाता के हिन्दी भाषी भी 'उदन्त मार्त्तण्डÓ खरीदने को तैयार नहीं थे। हिन्दी के प्रति हमारी यही निष्ठा आज भी है। हम हिन्दी के नाम पर रुपये चाहते हैं। उसके लिए कुछ विशेष नहीं करते। मेरा मानना है कि हिन्दी का विकास निजी (व्यक्तिगत) प्रयासों से हुआ है। अपने-अपने स्तर पर हिन्दी के विकास के लिए प्रतिबद्ध होकर ही उसका विकास सम्भव है। शेष सब कुछ मिथ्या है। सबको आत्ममन्थन करना चाहिए।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)