राहुल गाँधी भारतीय राजनीति के रंगमंच पर एक ऐसे पात्र हैं, जिन्हें हम सबके प्यार की जरूरत है। भले ही हम भावी प्रधानमंत्री के रूप में उन पर विश्वास न करें और उनकी बातों से सहमत न हों मगर उनके बारे में थोड़ा ठहरकर विचार करें। मुझे नहीं लगता कि जितना उपहास उनका किया गया है, किसी दूसरे नेता का हुआ हो। गलत समय पर राजनीति में उनकी पारी आई और रास्ते लगातार कठिन ही होते चले गए। इतने कि अब लगता नहीं कि हम उन्हें कभी प्रधानमंत्री बनता हुआ देख पाएँगे। लेकिन क्या वे वर्तमान वैश्विक परिस्थिति में भारत के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद के लिए एक योग्य और विश्वसनीय चेहरा हैं?
राहुल 53 साल के हैं। 34 साल की उम्र में वे पहली बार सांसद बने थे। लगभग बीस साल का उनका संसदीय जीवनकाल है। वे एक ऐसे परिवार में जन्मे, जो रहता भले ही जनपथ पर है मगर सारे राजपथ वहीं से गुजरते थे। बचपन से ही उन्होंने ऐसे किंग मेकिंग के किस्से सुने होंगे। पंडित नेहरू की लीडरशिप के किस्से, इंदिराजी के नेतृत्व के किस्से और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल के किस्से। जब कितने ही राज्यों के मुख्यमंत्री एक कृपादृष्टि के लिए दीनभाव से उनकी ओर देखा करते होंगे। कैबिनेट में जगह पाने वाले मंत्रियों को याचक रूप में रोज ही देखा होगा। विदेशी राजप्रमुखों से सीधे संपर्क और संबंधों ने उनमें अपने एक वैश्विक परिवार होने का बोध डाला ही होगा। एक ऐसा परिवार, आधुनिक भारत के निर्माण और विकास में जिसका अमिट योगदान है। विशिष्टता का स्वाभाविक बोध, जो किसी में भी कूट-कूटकर आ ही जाएगा।
इंदिरा गाँधी की हत्या के समय राहुल 13 साल के किशोर थे और राजीव गाँधी की हत्या के समय 21 साल के युवा। ये उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण मोड़ हैं, जिनकी स्मृतियाँ बहुत जीवंत होंगी। इन घटनाओं के समय से लेकर बचपन से अब तक की उनकी अनगिनत तस्वीरें हैं लेकिन मुझे सबसे मार्मिक तस्वीर वह लगती है, जिसमें वे अपने पिता स्वर्गीय राजीव गाँधी की छाती से लिपटे हुए हैं। तब वह शायद आठ-दस साल के होंगे। अमेठी से पहली बार चुनाव में जब वे उतरे तब यूपीए के दस सालों के शासन की शुरुआत का चुनाव था। पावर रथ में ही उनकी राजनीतिक यात्रा का श्रीगणेश हुआ। बिना किसी संघर्ष या जमीनी अनुभव के सीधे आसमान से उतरे देवदूत की भांति।
परिवार के हाई वोल्टेज आभामंडल में सत्तासीन होने के लिए कोई मनमोहन ही फिट हो सकता था, जो नाम का ही सरदार हो। आवाज, कदकाठी और व्यक्तित्व से बिल्कुल असरदार न हो। डॉ. मनमोहन सिंह के 'सम्मानजनक उल्लेखमात्रÓ के लिए दो शब्द पर्याप्त हैं- 'अति विनम्र और शिष्ट।Ó अमेठी राहुल के लिए एक सुरक्षित लाँच पैड था, जहाँ से उनकी हार और सीधे दक्षिण में केरल पलायन के बारे में अनंत विजय की पुस्तक अमेठी संग्राम एक उम्दा किताब है, जो उनके पैराशूटीय राजनीतिक चालचलन पर अच्छा प्रकाश डालती है। एक युवराज जब अपनी प्रजा के बीच जाता है तो कार में बिस्लरी की बोतलों की खेप रख ली जाती है। अमेठी में वे सियासी सैलानी थे। परिवार का पॉलिटिकल पर्यटन केंद्र 2014 के बाद निस्तेज होना शुरू हो गया।
देश और विदेश में दो ही राजनीतिक पात्र ऐसे हैं, जिनकी नियति एक जैसी है। देश में वे राहुल गाँधी हैं, जिनके सामने कुर्सी नंबर एक की चुनौती के रूप में अगर कोई उपस्थित हुए तो वे नरेंद्र मोदी हैं। पड़ोसी मुल्क में उन जैसी ही फूटी किस्मत लेकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचे इमरान खान नियाजी हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते राहुल और इमरान की स्थिति अपनी पार्टी और अपने पाकिस्तान में परमगति को प्राप्त हो गई।
दोनों चर्चा से अधिक उपहास के विषय बने। राहुल से सत्ता उतनी ही दूर है, जितनी 2014 में थी और इमरान भी पूर्व प्रधानमंत्री के रूप में मुकदमों को झेलते रहेंगे, बशर्ते किसी विस्फोट में अल्लाह को प्यारे न हों। हालांकि पाकिस्तान के अनेक विस्फोट विशेषज्ञ अज्ञात हमलावरों के हाथों जन्नत का टिकट कटा रहे हैं। अभी राहुल गाँधी तीन राज्यों की ताजा पराजय से उबर रहे होंगे। वे मध्यप्रदेश में प्रचार के लिए आए होंगे तो उन्होंने कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के कंधों पर कांग्रेस को ही नहीं देखा होगा, नकुलनाथ और जयवर्द्धन सिंह भी दिखाई दिए होंगे। एक आदर्श भारतीय पिता की भूमिका में, जो अपनी संतान को अपने सामने हर संभव ऊंचाई पर देखना और पहुँचाना चाहता है।
अगर मध्यप्रदेश में कांग्रेस लौटती तो भविष्य के मध्यप्रदेश की राजनीति में ये दो पुत्र एक लंबी यात्रा तय करने वाले चेहरे थे। कांग्रेस के वर्तमान पोस्टर पर पिताश्री और भावी पोस्टर पर दोनों सुयोग्य पुत्र। प्रचार से लौटते समय अपने प्लेन की खिड़की से सूने आसमान को देखते हुए राहुल को अपने स्वर्गीय पिता का स्मरण अवश्य हुआ होगा। काश वे होते!
कल्पना कीजिए
आज राजीव गाँधी होते! लगभग 80 साल के आकर्षक वृद्ध पूर्व प्रधानमंत्री। उनके रहते भी क्या विपक्ष इतना दरिद्र होता? मेरे विचार से नहीं। वे विपक्ष की केंद्रीय शक्ति होते। और तब वह विपक्ष भी ऐसा दिशाहीन और नकारा नहीं होता। अगर राजीवजी आज होते तो क्या राहुल ऐसे ही दाढ़ी बढ़ाए अकेले घूम रहे होते। कुछ का कुछ कहते और अपना उपहास कराते। वे आए थे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिए और दिन दहाड़े एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बड़े विश्वास से कह रहे थे कि छत्तीसगढ़ में भी सरकार जाने वाली है, राजस्थान में भी। मुझे नहीं पता वे किस शहर के शक्तिशाली प्रेस पर्संस थे, जिन्होंने 30 साल के अनुभवी सांसद को कन्फ्यूज कर दिया था!
24 घंटे में मुँह से निकली एक बात सच होती है। इसलिए हमें कहा जाता है कि कभी बुरा मत कहिए, किसी के बारे में बुरा मत कहिए। पता नहीं कौन घड़ी हो और बात सच हो जाए! राहुल ने सभाओं में भी खूब कहा होगा। प्लेन, हेलीकॉप्टर और कार में कहा होगा। मगर दस सेकंड की वही बात सत्य हुई। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में झाड़ू लग गई। निकट अतीत में ऐसी सिद्ध वाणी कदाचित ही पृथ्वी लोक में सुनाई दी होगी। अशोक गहलोत से ज्यादा भूपेश बघेल ही वाणी सिद्धि के अनुभव विषय पर दो मिनट का मौन रखते हुए दो शब्द कह सकते हैं! उनके अनुयायी तो जाने क्या-क्या कह रहे होंगे। वह सब यहाँ लिखा नहीं जा सकता! राम-राम!!
मुझे लगता है कि राजीवजी के रहते राहुल या तो राजनीति में आते ही नहीं और किसी के कहे सुने में आ भी जाते तो बेटे का होमवर्क ऐसा तो नहीं ही होता। राजीव गाँधी उनके ऐसे गैर गंभीर राजनीतिक रवैए पर प्रतिदिन जमकर क्लास लेते। वे मोबाइल पर ही फटकारते। वे यह सहन कर सकते थे कि मुद्दों को नापसंद करके जनता ने उन्हें नकार दिया, वे संघर्ष में तपते, जनमानस को पढ़ने का प्रयास करते, मत से अधिक मतदाता के मन को जीतने का प्रयास करते, तैयारी करते, परीक्षा से गुजरते और एक दिन नतीजे ले आते। मगर वे यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति उपहास का पात्र बनाया जाए। वे ऐसी राजनीति को गोली मारते और राहुल को किसी एमएनसी में ऊँची पोजीशन दिला देते।
हम राहुल को फाइनेंशियल मेगजीनों में एक कामयाब प्रोफेशनल के रूप में देखते, जिसकी राजनीति में कोई रुचि नहीं है। वह अपने विषय का मास्टर है। ऊंचे ओहदे पर है। दुनिया घूमता है। हेंडसम है। हॉलीवुड के सितारों के साथ लंच या डिनर लेता है। चहकती हुई परियों का पार्टी के वीडियो में दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक था। वह संसार की पर्यावरण चुनौतियों, एशियाई देशों के कला प्रेम या बर्फीले और सूखे देशों के नागरिक समाज पर किताबें लिखता है। इकोनॉमी या ईकोलॉजी पर लेक्चर देता है। मगर भारत की राजनीति पर कुछ नहीं कहता। वह मुस्कुराकर रह जाता है। राहुल की निर्दोष मुस्कान उसी भूमिका के लिए मुख के वरदान के रूप में मिली थी। वही मुस्कान है लेकिन राजनीति में किसी मूल्य की नहीं बची। बेबस चेहरे की एक बेजान मुस्कान!
राजीव आज होते तो हो सकता है कि 53 वर्षीय राहुल के 21 वर्षीय युवा पुत्र यानी अपने पोते को अपने आसपास गढ़ रहे होते। अकबर ने अपने जीवनकाल में सलीम के बेटे खुसरो को तख्त का उत्तराधिकारी बना दिया था। वह सलीम और उसकी हिंदू रानी मानबाई का बेटा था। मानबाई ने नशेड़ी सलीम की हरकतों से तंग आकर प्रयागराज में आत्महत्या की थी।
मुगलों को मारिए गोली, वर्तमान में आइए
वयोवृद्ध पूर्व प्रधानमंत्री और यूपीए के कर्णधार राजीव गाँधी छुट्टी मनाने लंदन या न्यूयार्क में बसे अपने विश्वप्रसिद्ध बेटे से मिलने जाते। एक ऐसा बेटा, जिसने अपनी प्रसिद्धि और पूँजी राजनीति के राजमार्ग पर विरासत में नहीं पाई, वह उनकी अपनी कमाई होती। अपने पसंदीदा विषय, अपने पसंदीदा शहर में अपनी ही पसंद के किसी काम में स्वयं को खपाए हुए भारत के एक सर्वाधिक प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार का वारिस, बिल्कुल सामान्य जीवन जीता हुआ। जैसे स्वयं राजीव गाँधी एक पायलट के रूप में अपनी आखिरी उड़ान में कॉकपिट से उतरते समय रहे होंगे। क्रमशः
(लेखक मध्यप्रदेश के राज्य सूचना आयुक्त हैं)