अधर्म की पराजय का संदेश देता है विजयादशमी पर्व

डॉ.आनंद सिंह राण

Update: 2023-10-23 21:06 GMT

एतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के आलोक में संपूर्ण विश्व में सनातन एकमात्र ऐसा धर्म है जहां भगवान् ने कभी सुर - असुर, ऋषि - मुनियों, दैत्य - राक्षसों और स्त्री-पुरुष को वरदान और आशीर्वाद देने में कभी भेद नहीं किया। जिसने जैसी तपस्या की उसे वैसा ही वरदान मिला। भगवान से प्राप्त वरदान और आशीर्वाद का जब तक सदुपयोग हुआ तब तक कुशल क्षेम रहा परंतु जब दुरुपयोग हुआ तब भी भगवान् ने वरदान को यथा स्थिति में रखते हुए ऐसी लीला रचते थे कि वरदान पर आंच भी न आए और आसुरी प्रवृत्ति का भी अंत हो जाए।

यह बात वामपंथी, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्युलर विद्वानों की समझ से परे है। इसलिए इन तथाकथित विद्वानों ने हिंदुत्व क्षत विक्षत करने के लिए भारतीयों को छलपूर्वक भड़का कर धर्म, वर्ण और जाति का भेद उपजाकर संघर्ष को पैदा किया। यहाँ सुर-असुर को लेकर विमर्श करना इसलिए समीचीन है क्योंकि विषय विजयादशमी का पर्व है। अब देखिए न वामियों, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्यूलरों विद्वानों ने सुर-असुर की अवधारणा को समझे बिना उसकी आर्य - अनार्य के रूप में व्याख्या कर देश के समाज को दो भागों में विभाजित करने का कुत्सित प्रयास किया है तथा यह दिखाया है हमेशा असुरों के साथ अन्याय किया गया, उन्हें छल पूर्वक मारा गया और दलितों, दमितों के साथ नस्लीय तथा जातिगत रूप से परिभाषित कर वैमनस्यता पैदा की है, परंतु यह कभी स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की गई कि भगवान् ने असुरों को भी सम भाव से आशीर्वाद दिया और उन्हें मनोवांछित वरदान भी प्रदान किया और उनकी रक्षा भी की है।

असुरराज बलि को भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त था परंतु वामन अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने उनका समूल विनाश नहीं किया वरन् पाताल लोक सौंपा। रावण भी महादेव और ब्रम्हा के आशीर्वाद से ही महाबली बना था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में सुर और असुर का विभाजन प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ है परंतु भेदभाव कभी नहीं हुआ। कभी - कभी ऐसे अवसर भी सामने आए जब ईश्वर विभिन्न स्वरूपों में सुर और असुरों को बचाने के लिए आमने-सामने आए हैं। वहीं दूसरी ओर भगवान् ब्रह्मा के गलत आचरण के कारण, भगवान् शिव के आदेश पर अंशावतार काल भैरव ने ब्रम्हा का पांचवां सिर काट दिया था।

विजयादशमी पर्व का अद्भुत वृत्तांत का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं है, वरन् अहम की मनोवृत्ति को साझा करना है कि -अहम ही, वहम है और अहम ही सर्वनाश की जड़ है।

विजयादशमी पर्व के आलोक में मेरा विचार है कि सत्य और असत्य का अद्वैत ही सत्य है, असत्य एक भ्रम है और असत्य का असत्य होना भी सत्य होना चाहिए, नहीं तो वह असत्य भी नहीं हो सकता, इसीलिए हर अवस्था में सत्य ही जीतता है। यही धर्म की परिभाषा है। यही विजयादशमी है।

शक्ति और शस्त्र का भी अद्वैत भाव है। विजयादशमी पर्व के दो मूलाधार हैं। प्रथम माँ दुर्गा ने आसुरी प्रवृत्ति महिषासुर के साथ भीषण संग्राम किया और 9 रात्रि तथा दसवें दिन उसका वध करके पृथ्वी लोक एवं देवलोक को मुक्ति दिलाई। द्वितीय श्रीराम और रावण के मध्य युद्ध का अंतिम दिन था।

रावण महाज्ञानी महायोद्धा था इसलिये श्री राम ने लक्ष्मण से कहा कि जाओ और महापंडित से ज्ञान प्राप्त करो। लक्ष्मण महापंडित के पांव की ओर गये तब महाज्ञानी रावण ने 3 महत्वपूर्ण ज्ञान की बातें बताईं-प्रथम - शुभस्य शीघ्रम, द्वितीय - कभी प्रतिद्वंद्वी को कमजोर नहीं समझना चाहिए तृतीय - अपनी जिंदगी का सबसे गहरा रहस्य किसी को नहीं बताना चाहिए। अंत में यह कि विजयादशमी पर्व में परमज्ञानी और महारथी रावण के पुतले का दहन नहीं होता है,वरन् प्रतीकात्मक रुप से उसके आलोक में हम सभी में निहित आसुरी प्रवृत्ति का दहन है।

(लेखक श्रीजानकीरमण महाविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष हैं)

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