अयोध्या सरयू तट पर दीपोत्सव का कीर्तिमान बना। लाखों लोगों ने 22.23 लाख द्वीप जलाये। उधर दक्षिण भारत स्थित तिरुपति बालाजी मंदिर में दीपावली के तीन दिनों में पौने दो लाख लोग दर्शन के लिये पहुँचे। पर किसी ने किसी से जाति नहीं पूछी। यनि समाज या धर्म स्थलों में जाति का महत्व नहीं है। फिर भी कुछ राजनैतिक दल समाज में जातीय आधारित जनगणना करने पर जोर दे रहे आखिर जातीय बँटवारा करने का उद्देश्य क्या है ? इस वर्ष पाँच दिवसीय दीपावली उत्सव के समापन पर दो प्रकार के समाचार मीडिया की सुर्खियों में रहे। एक दीपावली उत्सव की समीक्षा बाजार और धर्म स्थलों की एवं दूसरी इन पांच दिनों में राजनेताओं की सभा वक्तव्य का विषय। सबसे बड़ा समाचार अयोध्या से आया । वहाँ सरयूतट पर दीपदान का विश्व कीर्तिमान बना। अयोध्या में जैसे-जैसे रामजन्म भूमि मंदिर की पूर्णता की तिथि समीप आ रही है वैसे-वैसे उत्साह नई अंगड़ाइयाँ ले रहा है। अयोध्यावासियों के इसी उत्साह ने सरयूतट पर दीपोत्सव का कीर्तिमान बनाया। पूरी अयोध्या मानो दीपदान के लिये उमड़ आई थी। लाखों परिवार पहुँचे। सबका स्वरूप एक था। सब एक-दूसरे का सहयोग करते अपना दीप प्रवाहित करते और दूसरे के दिये की जल प्रवाह यात्रा देखते हुये ये सभी दृश्य मीडिया में आये। सबसे महत्वपूर्ण बात किसी ने किसी की जाति नहीं पूछी सबने अपने दीप की लौ से दूसरे का दीप जलाने में सहयोग किया। सब एकरूप, सब समरूप थे।
दीपावली पर यह दृश्य उत्तर भारत का है । इसी दीपावली पर दक्षिण भारत में तिरूपति बालाजी मंदिर का दृश्य देखिये। वहाँ दीवाली उत्सव 11,12 और 13 नवम्बर के तीन दिन में लगभग पौने दो लाख श्रद्धालुओं ने दर्शन किये। वहाँ भी किसी ने किसी की जाति नहीं पूछी। अयोध्या और तिरूपति बालाजी के इन दृश्यों और आंकड़ों के साथ दीपावली पर भीड़ का एक आंकड़ा और उत्तराखंड से आया । बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम के कपाट बंद होने के साथ दर्शन करने वालों का। इस वर्ष का आकड़ा एक करोड़ के समीप पहुँचा। ये लोग देश भर से पहुँचे थे। हर भाषा के, हर बोली के और हर जाति के। सबने एक -दूसरे का सहयोग किया, ठंड के वस्त्र ही नहीं भोजन की वस्तुओं का आदान-प्रदान भी हुआ। पर किसी ने किसी से जाति नहीं पूछी। तीर्थ मार्ग कितनी दुकानें फूल प्रसाद और खाद्य पदार्थ विक्रय की थीं। भोजन सामग्री खरीदते समय पर भी किसी ने किसी की जाति नहीं पूछी । यदि तीर्थ यात्रियों से अलग हटकर पूजन भोजन सामग्री विक्रेताओं की बात करें तो उनमें हर समाज और हर जाति के लोग हैं। जाति ही नहीं अन्य धर्मावलंबी दुकानदार भी थे। पर किसी को किसी से कोई परहेज न था। एक आस्था के साथ, एक भाव के साथ सब लोग पहुँचे थे और उसी के साथ लौटे। यह है भारत के समाज जीवन का समरस स्वरूप जिसके दर्शन सदैव होते हैं और इस दीपावली पर भी हुये।
तब प्रश्न उठता है कि यदि भारतीय समाज समरस है तो यह जातीय विवरण पर कौन जोर दे रहा है। यह प्रचार अभियान इस सीमा तक आ गया है कि यदि व्यक्तिगत अपराध की कोई घटना घटी तो उसे जाति से जोड़कर समाज में दूरियाँ बनाने का प्रयास होता है। हाल ही एक सभा में एक नेता ने मध्यप्रदेश के संदर्भ में यह आकड़े भी बताये कि किस जाति के सबसे कम अफसर हैं। प्रश्न यह नहीं है कि नेता जी ने जो आकड़े बताये और सोशल मीडिया पर जो आकड़े प्रचारित किये जा रहे हैं उनका स्रोत कितना वैधानिक है और वे कितने सत्य हैं पर इससे समाज जीवन में एक अदृश्य विभाजन रेखा तो आकार लेने लगी है। हर व्यक्ति के मन में यह बिठाने का प्रयास हो रहा है कि उसकी जाति की उपेक्षा हुई है, विकास के जो अवसर मिलना चाहिए थे वे नहीं मिले और इसका कारण जातीय आधारित जनगणना न होना है।
यूँ तो यह वातावरण पूरे देश में बनाने का प्रयास हो रहा है पर उन पाँच राज्यों में प्रचार अधिक है जहाँ विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें तीन हिन्दी भाषी राज्य हैं। ये तीन राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान हैं। जातीय जनगणना की महत्ता इन तीन राज्यों में अधिक समझाई जा रही है । मीडिया ने तो इससे एक कदम आगे बढ़कर समीक्षा कर डाली। जो विवरण दिये उनमें जाति ही नहीं उपजाति और उपजाति की भी उपजाति के आकड़े दे दिये।
नि:संदेह कुछ राजनैतिक दलों का यह जातीय स्वरूप पर जोर देना और दीपावली पर स्पष्ट हुये भारतीय समाज जीवन का स्वरूप दोनों की मूल पिण्ड में अंतर है । समाज समरस रहना चाहता है और राजनीति समाज को जातियों में विभाजित करना चाहती है। किसी भी परिवार, समाज और राष्ट्र का सशक्तिकरण सदैव समरस एवं संगठित स्वरूप से होता है। विभाजन से परिवार और समाज ऊँचाई के रास्ते पर कभी नहीं जाता। विभाजन का यह सूत्र ही अंग्रेजी शासन की शक्ति था। 'डिवाइड एण्ड रूलÓ। विभाजन के विदेशी षड्यंत्रों के चलते भारत ने कितनी त्रासदियाँ झेली हैं। उनका विवरण इतिहास के पन्नों में भरा पड़ा है। फिर भी कुछ राजनैतिक शक्तियाँ भारतीय समाज में जातीय विभाजन का एजेण्डा चला रहीं हैं। सामाजिक विभाजन की इस राजनीति के पीछे कौन है और यह किसका हित संवर्धन करेगी? इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में है ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)