मानव जीवन में सुख-दुख नामक बोगियों की गाड़ी चलती रहती है, यह सार्वभौमिक सत्य है। कभी सुख नामक बोगी आगे हो जाती है तो कभी जीवन के किसी स्टेशन पर या कहें कि किसी मोड़ पर दुख की बोगी आगे आ जाती है और यह तब तक चलता है जब तक हमारी सांसें चलती हैं। हां, किसी के जीवन में सुख की मात्रा कम हो सकती है तो किसी के जीवन में दुख की मात्रा। अक्सर हम दूसरों के जीवन के सुखमय महीनों या वर्षों को देखते हुए अपने जीवन में चल रहे दुखों के महीनों को देखते हुए ईश्वर, किस्मत और परिजनों को कोसने लगते हैं, इन्हें अपने दुखों के लिए जिम्मेदार साबित करने में लग जाते हैं। तनावग्रस्त रहने लगते हैं, गलत संगत में फंसते चले जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि जीवन में सुख-दुख चलते रहते हैं।
सभी के जीवन में अपने-अपने संघर्ष होते हैं। जन्म लेने के साथ ही आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, शारीरिक, मानसिक, व्यावहारिक, पारिवारिक और राजनीतिक स्तर पर सभी को बराबर मात्रा में गुण नहीं मिलते हैं। किसी को कम तो किसी को ज्यादा मिलते है, ऊपर दिए गए विषयों में से सभी लोगों को सभी विषयों का लाभ नहीं मिलता है। किसी भी विषय को लेकर किसी भी व्यक्ति के जीवन में अपने संघर्ष होना तय है। कोई शख्स अपनी मेहनत से किसी विषय के सुख को प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो यह तय है कि उससे कुछ अन्य विषय छूट ही जाएंगे। कोई एक शख्स गरीब परिवार में पैदा हुआ है और अन्य शख्स अमीर परिवार में पैदा हुआ है तो यह तय है कि दोनों के जीवन में अलग-अलग संघर्ष रहेंगे। गरीबों को कुछ प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है तो अमीरों को जो पैदाइशी तौर पर मिला हुआ है, उसको बनाए रखने का संघर्ष और साथ ही कुछ और भी प्राप्त करने का संघर्ष रहता है।
हमें अपने बच्चों को यह सीख जरूर देनी चाहिए कि जीवन में बारी-बारी से सुख-दुख आते रहेंगे। सुख आने पर अति उत्साह से व्यवहार नहीं करना है, घमंड नहीं करना है और दुख आने पर तनावग्रस्त नहीं होना है। दोनों ही स्थिति में याद रखना है कि ये दिन भी गुजर जाएंगे। इसलिए शांत मन से अपने काम को करते रहना चाहिए। अगर हम स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बारे में अपने बच्चों को समझाएं तो यह तय है कि बच्चे बेशक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में थोड़ा सा पीछे रह जाएं किन्तु हमारे बच्चे इस सफर का आनंद जरूर लें पाएंगे। हां, अगर हम बच्चों पर अपने लक्ष्य के प्रति अनावश्यक दबाव देने लगेंगे तो बच्चों का शैक्षणिक और मानसिक तौर पर हारना तय है। अक्सर देखा जाता है कि अपने आलस्य के कारण या फिर अन्य मनगढ़ंत बहानों के कारण हम या तो कोशिश ही नहीं करते हैं या फिर हार जाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि देश में दिव्यांग श्रेणी में बहुत से खिलाड़ी देश के लिए मेडल जीत कर ला रहे हैं। अभी हाल ही में जम्मू-कश्मीर, हां जिस जम्मू-कश्मीर का नाम सुनते ही आतंकवादी, युवाओं द्वारा भारतीय सैनिकों पर पत्थरबाजी करने जैसे दृश्य आंखों के सामने आने लगते हैं। उसी जम्मू-कश्मीर की मात्र सोलह वर्षीय पैरा तीरंदाज शीतल देवी ने एशियाई पैरा खेलों में दो गोल्ड समेत तीन मेडल भारत के नाम किए हैं। अपने मन में विचार करके देखिए कि जिस शीतल देवी के हाथ ही नहीं है, वो तीरंदाज में मेडल जीत रही है। इसलिए कह रहा हूं कि सबके जीवन के अपने-अपने संघर्ष हैं। शीतल देवी के दोनों हाथ नहीं हैं तो इनके पास आत्मविश्वास और कठिन परिश्रम करने की क्षमता अधिक है। अगर शीतल देवी हाथ ना होने पर ईश्वर, किस्मत को कोसती रहती तो यह मात्र दया की पात्र बनकर रह जाती, मगर अपने जीवन में किसी को कोसने की बजाय संघर्ष और परिश्रम को चुना तो आज प्रेरणादायक व्यक्तित्व के तौर पर इनका नाम और उपलब्धि को चुना जा रहा है।
हमारे जीवन में संघर्ष करने को लेकर या फिर कहें कि मनमुताबिक परिणाम ना मिलने पर ज्यादातर लोग समझते हैं कि वो हार गए हैं। जबकि संघर्ष करने से अभिप्राय प्रयास करने से है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हर प्रयास पर मनमुताबिक परिणाम मिलेगा, यह भी तय नहीं है। हमें हिंदी साहित्य से एक पंक्ति याद रखनी चाहिए कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
(लेखक टिप्पणीकार हैं)