निजी का आकर्षण : आर्थिक भंवर में अभिभावक...
ब्रेक के बाद - शक्तिसिंह परमार, संपादक, स्वदेश इंदौर
शिक्षा, स्वास्थ्य और यात्री परिवहन में सरकारी झोल का दुष्परिणाम आमजन को भुगतना पड़ता है... सरकारी स्कूलों से मोहभंग होकर जब व्यक्ति निजी स्कूलों के आकर्षण में फंसता चला जाता है, तब उसे निजी अस्पताल की भांति ही अलग-अलग तरह के सेवा शुल्कों के जरिये जेब हल्की करना पड़ती है... सरकारी की तुलना में निजी शिक्षा- चिकित्सा-परिवहन व्यवस्था भी इसी दुष्चक्र में फंसी है... क्योंकि नियमों का पालन कौन करता है..?
यह प्रतिवर्ष होने वाला हो हल्ला है, जो नवीन शैक्षणिक सत्र के शुरू होते ही चौतरफा रूप से अभिभावकों/पालकों की आर्थिक पीड़ा के रूप में सुनाई देता है और हर बार की तरह यह मुद्दा एक-दो माह बाद शासन-प्रशासन के नियमों-निर्देशों एवं निजी स्कूलों की छका देने वाली छलावा पद्धति की बोतल में अगले शैक्षणिक सत्र के लिए बंद हो जाता है... क्योंकि शिक्षा चाहे वह प्राथमिक स्तर की हो या फिर माध्यमिक, हाई स्कूल, हायर सेकंंडरी की हो अथवा उच्च शैक्षणिक स्तर की... हर जगह अभिभावकों पर आर्थिक बोझ की मार लगातार तेज होती चली जाती है... एक समय था, जब बच्चों के हाथ पीले करना आर्थिक मान से बहुत बड़ी उपलब्धि या सफलता माना जाता था... लेकिन अब बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाना या उनका शैक्षणिक स्वप्न पूरे करना ही किसी दंपति के जीवन की वास्तविक कमाई भी है और सफलता भी... क्योंकि जब प्राथमिक स्तर की कक्षा के लिए बच्चों की किताबें 3 हजार से 10 हजार रु. के बीच आ रही हंै तो फिर इससे जुड़े अन्य खर्चों की कल्पना करना और उसको जुटाने के लिए किसी परिवार को अथवा मुखिया को किस हद तक जाना है, किसी से छिपा नहीं है..! नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही अभिभावकों की आर्थिक परेशानी का पीड़ादायक स्वर न केवल विद्यालय परिसर, किताबों की दुकान पर सुना जा सकता है, बल्कि गली-मोहल्ले में भी इसकी चर्चा आम हो जाती है... क्योंकि कम से कम 1-2 माह की फीस के साथ स्कूलों में डेवलपमेंट फीस के नाम पर ली जाने वाली राशि के बोझ के साथ जब कॉपी-किताब का भी भारीभरकम महंगा बिल चुकाना पड़ता है, तब शिक्षा के नाम पर मिलीभगत गठजोड़ से चल रहे इस कारोबारी धंधे पर शासन-प्रशासन का क्या रुख है, हर कोई पूछने लगता है कि उन्हें निजी स्कूलों की इस मोनोपॉली, जिसमें सबकुछ उन्हीं के द्वारा तय होता है, इससे कैसे मुक्ति मिलेगी..?
नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही हर बार पुराने नियम नई सख्ती के साथ आते हैं, धारा 144 के खंड 2 के तहत आदेश जारी होते हैं, लेकिन उनका पालन न तो कोई स्कूल प्रबंधन करने को तैयार है और ना ही कोई पुस्तक विक्रेता... फिर चाहे अभिभावक लाख जतन कर लें, मनमसोसकर महंगी किताबें, गणवेश लेना हर बार की उनकी मजबूरी है..! जिसे निर्वाह भी करना पड़ता है... क्योंकि बच्चों को शिक्षित जो करना है... बाद में डोनेशन जिसे दान के रूप में लेना भी एक आर्थिक कारोबार ही है... प्रतियोगी परीक्षा के लिए डमी स्कूल का चयन भी शैक्षणिक क्षेत्र में एक नए कारोबार का रूप ले चुका है... नामी निजी स्कूलों में दाखिले के बाद भी महंगी कोचिंग क्लास, महंगा पाठ्यक्रम, महंगी वाहन सुविधा और फिर हॉस्टल व अन्य तरह की शैक्षणिक सुविधाओं के नाम पर जो रसीदें कटती हैं, उनका अगर जोड़-घटाव किया जाए तो आज शिक्षा ही वह सबसे बड़ा कारोबार है, जो उपचार को भी पीछे छोड़ रहा है... क्योंकि जब हम सरकारी से परे निजी अस्पताल में उपचार के लिए रुख करते हैं, तब वहां पर चिकित्सकों की फीस, अस्पतालों की सुविधा के साथ महंगी दवा और जांच प्रक्रिया अपने आप नत्थी हो जाती है... फिर आपको उस अस्पताल एवं चिकित्सक से उपचार करवाना है तो दवा और जांच उन्हीं के बताए स्थान से लेना होगी... बस यही हाल निजी स्कूलों का भी है... अगर आपको उस नामी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना है, तो उनके नियमों का पालन भी करना है... फिर निजी स्कूलों द्वारा तय किताब विक्रेता भले ही खुली लूट करंे, उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं... नर्सरी और केजी की कक्षाओं का पूरा पाठ्यक्रम 2500 से 4500 के बीच आ रहा है और पहली कक्षा का पूरा पाठ्यक्रम 6000 से 8000 के बीच... फिर अन्य कक्षाओं के पाठ्यक्रम शुल्क का अनुमान लगाना आसान है... लेकिन इसकी निगरानी के लिए बना तंत्र आखिर क्या कर रहा है, यह आज तक पता नहीं चला..?
नियमों के अनुसार तो बच्चों और उनके पालकों पर चयनित दुकान या किसी चयनित निजी पुस्तक प्रकाशक की पुस्तकों एवं अन्य शैक्षणिक सामग्री खरीदने का दबाव स्कूल प्रबंधन नहीं बना सकता... क्योंकि सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन यानी सीबीएसई ने 12 अप्रैल 2016 और 19 अप्रैल 2017 को स्कूलों से ही या चयनित दुकानों से पुस्तकें, स्टेशनरी, गणवेश, स्कूल बैग खरीदने के संबंध में आदेश जारी किया था... जिसमें सबकुछ स्पष्ट था कि किसी तरह की मोनोपॉली या स्कूल प्रबंधन-पुस्तक विक्रेता का आर्थिक गठजोड़ नहीं चलेगा... और जब सभी कक्षाओं में एनसीईआरटी की किताबें अनिवार्य करने एवं संख्या निर्धारित करने का अधिकार भी सिर्फ केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (नई दिल्ली) को है, तब निजी स्कूल अतिरिक्त किताबें हर बार, हर वर्ष किसके प्रश्रय में अभिभावकों पर थोपते चले जाते हैं..? क्योंकि निजी सीबीएसई स्कूलों में भी सभी कक्षाओं में एनसीईआरटी की पुस्तकें लागू करने के निर्देश हैं... लेकिन इस आदेश का भी पूर्णत: पालन कहां होता है और जब पूरे देश में एक समान शिक्षा व्यवस्था की दृष्टि से 'एक देश-एक शिक्षाÓ की बात हो रही है, तब समान पाठ्यक्रम न होना भी क्या शिक्षा जगत में इस आर्थिक मकडज़ाल को और मजबूत नहीं बना रहा है..? क्या सरकारी स्कूलों की दशा-दिशा सुधारे बिना निजी स्कूलों पर नियमों की छड़ी चलाना शासन-प्रशासन के लिए आसान है..? अभिभावक भी क्या निजी की तुलना में सरकारी शैक्षणिक व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार हैं..? इस खाई को पाटे बिना समाधान नहीं है... लेकिन शासन-प्रशासन क्या निजी स्कूलों पर इतना नियम भी सख्ती से लागू नहीं कर सकता है कि वे शैक्षणिक पाठ्यक्रम, गणवेश व अन्य तमाम फीसों में निर्धारित समयावधि 3 व 5 साल से पहले कोई बदलाव न करें.., तभी नए शिक्षा सत्र में हर बार अभिभावकों का संताप बढ़ाने वाली यह स्थाई समस्या समाप्त होगी..!