यूएसएड: मीडिया में कैसे बोलता है डीप स्टेट का पैसा

Update: 2025-02-16 09:27 GMT

डॉ अजय खेमरिया। जो मीडिया मुगल सरीखा रसूख रखते थे जिनके प्राइम शो देश का नैरेटिव सेट करते थे ऐसे तमाम सेलिब्रिटी पत्रकार आज मुख्यधारा की मीडिया से हटाये जा चुके हैं लेकिन इनके ऐशो आराम, शाही जिंदगी वैसे ही चल रही है। आखिर कौन सी संजीवनी है जो देश में तमाम सारे बेरोजगार हुए पत्रकारों को पोषित और पल्लवित कर रही है। इसे मौजूदा सन्दर्भ में समझने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा यूएसएड संस्था को बन्द किये जाने के आलोक में देखा जाना चाहिए।

क्या है यूएसएड

सबसे पहले जानते हैं कि आखिर यह यूएस एड है क्या? अमेरिका हर साल दूसरे देशों को स्वास्थ्य, गरीबी, शिक्षा, पोषण, पर्यावरण, खेती जैसे मद में अपनी ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराता है। यह विभाग 1962 से काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से आपने डीप स्टेट का नाम खूब सुना होगा। असल में यूएस एड इसी का एक अघोषित उपक्रम है। बाहर से जिन कामों पर यूएसएड धन देना दिखाता है असल में वह एक छलावा है असल में इस विभाग का काम वामपंथी विचारधारा को आधार बनाकर दुनियाभर की सरकारों को अपने हिसाब से खड़ा करना होता है। यह आर्थिक सहायता सीधे सरकार एवं दुनियाभर के एनजीओ एवं मीडिया हाउसों को दी जाती है। साल 2025 के लिए यूएसएड का बजट 5 लाख करोड़ का था।

मोदी और शेख हसीना के विरुद्ध

अमेरिकी प्रशासन में डोज के प्रमुख एलन मस्क ने खुलकर यूएस एड के धन के दुरुपयोग और तमाम देशों में अस्थिरता फैलाने के आरोप लगाए हैं। पूर्व अमरीकी विदेश अधिकारी माइक बेंज के अनुसार साल 2024 के लोकसभा चुनाव में यूएस एड के प्रतिनिधियों ने अरबों रुपए भारत मे खर्च किया। अकेले जॉर्ज सोरोस ने मोदी को अपदस्थ करने के लिए 2361 करोड़ रुपए खर्च किये।भारत में बांग्लादेश की तरह तख्तापलट संभव नही था इसलिए विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों, सोशल मिडिया इंफ्लुएंसर, एनजीओ, किसान संगठन एवं एकेडेमिक्स को पैसा दिया गया।

यूएसएड नेटवर्क को जानिये

यूएसएड यूँ तो दर्जन भर सेक्टरों में धन देता है लेकिन आज हम केवल मीडिया के क्षेत्र को समझते हैं।

यूएसएड सीधे फंड देता है “इन्टरन्यूज” नामक एनजीओ को।इसकी स्थापना 1982 में डेविड हॉफमैन ने की थी।

इस एनजीओ को फोर्ड फाउंडेशन, पियरे ओमीडियार,मैकआर्थर,ओपन सोसायटी फाउंडेशन(जॉर्ज सोरोस)रॉक फेलर फाउंडेशन, ओक फाउंडेशन (सभी अमेरिकी) फेसबुक,गूगल,यूएनडीपी (जिसके साथ सरकारें काम कर रही हैं), यूनिसेफ जैसे संगठन भी धन उपलब्ध कराते हैं।

इन्टरन्यूज एनजीओ ने भारत में नैरेटिव (आख्यान/कथानक) सेटिंग,मीडिया में खबरों की प्लेसमेंट और फैक्ट चैक के नाम पर बड़ा खेल किया।

इन्टरन्यूज भारत समेत दुनिया के 4 हजार मीडिया हाउस को ट्रेनिंग, फैक्ट चैक और तकनीकी सहयोग के नाम पर बेशुमार धन दे रहा है। 2024 में इस काम पर 4100 करोड़ खर्च किये गए।

व्यापक है मिडिया में बिछा जाल

इन्टरन्यूज ने भारत मे अपना काम “डेटालीड्स”नामक एनजीओ को दे रखा है। इसके संस्थापक सैय्यद नजाकत एवं अपोलो अस्पताल में पदस्थ कश्मीरी डॉक्टर सबा मोहम्मद हैं।नजाकत ग्लोबल इंनवेसटीगेटिव जनर्लिज्म नेटवर्क (जीआई जेएन) का बोर्ड डायरेक्टर हैं।जीआईजेन को जॉर्ज सोरोस,यूएसएड, ओक फाउंडेशन पैसा देते हैं।नजाकत न्यू हुमेनेटेरियन के फैलो भी है जिसे बिल गेट्स फाउंडेशन, अलजजीरा और द गार्डियन फंड देते हैं।स्पष्ट है कि डेटा लीड्स भारत में इन्टरन्यूज के जरिए विदेशी ताकतों का एक उपक्रम है जिसका एजेंडा लेफ्ट राजनीति को प्रोत्साहित करना है।

डेटालीड्स से जुड़ी एक संस्था है “फैक्टशाला’’।इसका सहयोगी है गूगल न्यूज इनिशिएटिव। इस फैक्टशाला को चलाने वाले हैं शेखर गुप्ता (द प्रिंट के मालिक) ऋतु कपूर,(किविंट)जे एम मैथ्यू, (मलयालम मनोरमा) फाये डिसूजा (बीट रूट न्यूज)। अकेली फेक्टशाला की रिपोर्ट बताती है उसके द्वारा भारत मे 75000 पत्रकार और सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर को प्रशिक्षण प्रदान किया गया है।शेखर गुप्ता के नेतृत्व वाली इस शाला ने देश मे 2500 कार्यशाला 500 शहरों एवं 400 सरकारी गैर सरकारी यूनिवर्सिटी में आयोजित की।यह प्रशिक्षण 253 मास्टर ट्रेनर के जरिये 18 भाषाओं में दिया गया।

253 मास्टर ट्रेनर्स में ऑल्ट न्यूज के प्रतीक सिन्हा,मोहम्मद जुबैर,कंचन कौर भी शामिल हैं।जुबैर और प्रतीक को एजेंडा पत्रकारिता के लिए सभी जानते ही है लेकिन कंचन कौर को कम लोग ही जानते है ,यह आईएफसीएन से संबद्ध हैं जिसकी स्थापना जॉर्ज सोरोस के एनजीओ ओपन सोसायटी और पॉइंटर द्वारा की गई है।

प्रशांत भूषण का संभावना इंस्टिट्यूट

यूएस एड एवं इन्टरन्यूज के साथ एक और संस्था जुड़ी है जिसका नाम है संभावना इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी।इसका मुख्यालय कांगड़ा पालमपुर के पास हैं।फैक्ट शाला की तरह ही सोशल मीडिया ट्रेनिंग और खबरों के लिये यह काम करता है। इसके रिसोर्स पर्सन हैं :योगेंद्र यादव,हर्ष मन्दर, मेघा पाटकर,यू ट्यूबर आकाश बनर्जी,प्रतीक सिन्हा,सोनी सोरी (नक्सल समर्थक)रवीश कुमार,प्रंरजाय गुहा ठाकुरता,नंदनी राय,कविता कृष्णन पोलित ब्यूरो सदस्य सीपीआई,विजयन एम जे (पाकिस्तान इंडिया पीपुल्स फोरम)नित्यानन्द जयराम(एंटी इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट एक्टिविस्ट)वेजबाड़ा विल्सन(रैमन मेगसासी)आकाश पोयाम(कारवा)अत्रेयी मजूमदार(एनएलयू बेंगलुरु)विजु कृष्णन (सेंट्रल कमेटी मेम्बर सीपीआई मार्कसिस्ट) निखिल देव (मजदूर किसान संगठन) और हिमांशू कुमार (एंटी सलवा जुडूम ,नक्सल समर्थक)।

जी आई जे एन क्या है

यह अमेरिकी संस्था है जिसके साथ 251 मीडिया हाउस जुड़े हुए है।यह खोजी पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारों को प्रशिक्षण और प्रमोशन का दावा करता है।इसकी भारत से जुड़ी पिछले 8 साल की सभी रिपोर्ट मोदी सरकार की मनगढ़ंत खिलाफत से भरी हुई है।इसका संबन्ध भारत के एक एनजीओ रिपोर्टर कलेक्टिव से है जिसे अशोका यूनिवर्सिटी के नितिन सेठी चलाते हैं।केंद्र सरकार ने इसका विदेशी चंदा लाइसेंस कुछ दिन पहले ही निलंबित किया है।

अर्थ जनर्लिज्म नेटवर्क

यह भी एक अमरीकी एनजीओ है जो पर्यावरण पर काम का दावा करता है।इसे उन्ही सब संगठनों से करोड़ों डॉलर मिलते है जो डीप स्टेट से जुड़े हैं।भारत में इसका एजेंडा पत्रकारों को फेलोशिप के नाम पर मदद करना और प्रोपेगैंडा मिडिया आउटलेट को आगे बढ़ाना है।इसकी बेबसाइट पर 86 भारतीय पत्रकारों को फैलोशिप देना बताया गया है।इन पत्रकारों की जांच करने पर पता चलता है कि अधिकतर द वायर,अलजजीरा,स्क्रॉल गार्डियन,वाशिंगटन पोस्ट जैसे मीडिया आउटलेट पर लेख लिखते हैं।अधिकतर कंटेंट भारत की नीतियों की मुखालफत करता है।कश्मीर, मुसलमान, किसान ,अडानी से जुड़े लेख हैं।

इनमें से प्रमुख फैलो है:- अनूप दत्ता भोपाल,राजीव त्यागी ग्वालियर,ऐश्वर्या त्रिपाठी लखनऊ, आनन्द बनर्जी दिल्ली,आकांशा मिश्रा दिल्ली, अंजली मकार पुणे,आरती मेनन मैसूर,अपर्णा गणेशन चेन्नई, मोहसिन मुल्ला कोल्हापुर, पवनजीत कौर दिल्ली करिश्मा मेहरोत्रा दिल्ली, महिमा जैन बेंगलुरू, निवेदिता खांडेकर दिल्ली, नेहा बागरी मुंबई, पुण्य कुमार पटना, रोहित उपाध्याय नोयडा, शमशीर यूसुफ बेंगलुरु शुभा मंजूर दिल्ली, रिहाना मकबूल श्रीनगर,

अर्थ जनर्लिज्म नेटवर्क को उन्ही दागी संस्थानों से पैसा मिलता है जिनका जिक्र इस लेख में ऊपर किया गया है।

फैक्ट चैक के नाम पर राजनीति का खेल

सोरोस फंडेड आईएफ़सीएन संस्था सोशल मिडिया पर फैक्ट चैकिंग का दावा करती है।इसी संस्था ने साल 2018 में ऑल्ट-न्यूज़ को निष्पक्ष फैक्ट-चेकर होने का तमगा प्रदान किया था। फैक्ट शाला की बेबसाइट के अनुसार कुछ संस्थाओं के साथ मिलकर बांग्लादेश में भी पत्रकारों और सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और पत्रकारों को वह ट्रेनिंग दे चुके हैं।यहां ध्यान देना होगा कि फैक्ट चेकर ज़ुबैर को इस संस्था ने निष्पक्षता का प्रमाणपत्र जारी किया जबकि जुबैर पर क्लिप काटकर वीडियो वायरल कर साम्प्रदायिक माहौल खराब करने के केस चल रहे हैं।

ऑल्ट न्यूज जिसे यूएसएड की सहयोगी संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा प्रमोट किया जाता है उसकी हिन्दू विरोधी मानसिकता किसी से छिपी नही है।ऑर्गनाजर ने आल्ट न्यूज के 60 ऐसे फैक्ट की सूची जारी की है जो झूठे और मनगढ़ंत थे और इनका उद्देश्य मुस्लिम बचाव या मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध भड़काना था।नूपुर शर्मा केस में भी ज़ुबैर ने आधा वीडियो शेयर कर दुनियाभर में इसे शेयर किया।ज़ुबैर और प्रतीक के विरुद्ध महिलाओं के यौन शोषण एवं झूठे फैक्ट वायरल करने के तमाम केस चल रहे हैं।हिन्दू देवी देवताओं के विरुद्ध प्रतीक सिन्हा के बीसियों ट्वीट अभी भी उपलब्ध है।

शेखर गुप्ता द प्रिंट पोर्टल चलाते हैं उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता कांग्रेस लेफ्ट से घोषित रूप में है।देश के एक बड़े हिंदी अखबार में वह कॉलम लिखते है।उनकी टीम में शामिल सभी सदस्य भाजपा और संघ के खांटी विरोधी है।

2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान करीब 32 हजार ऐसे फर्जी वीडियो बनाये गए जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,अमित शाह, डॉ मोहन भागवत,योगी आदित्यनाथ के बयानों को तोड़मरोड़ कर कथानक यानी नैरेटिव बनाने वाले थे।

इन वीडियो में संविधान बदलने,आरक्षण खत्म करने,एनआरसी लागू करने और चुनाव बन्द करने जैसे मनगढ़ंत कंटेंट थे।फैक्ट शाला की बेबसाइट पर 75000 पत्रकारों एवं 400 सरकारी एवं निजी यूनिवर्सिटी का जिक्र तो सार्वजनिक है ही।अंदाज लगाया जा सकता है कि कितने व्यापक स्तर पर नैरेटिव की इस लड़ाई को मोदी और भाजपा के विरुद्ध यूएस एड और उसकी सहयोगी फ़ौज लड़ रही थी।अब हम समझ सकते हैं कि विदेशी धन भारत में किस तरह की पत्रकारिता को मदद कर रहा है।

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले डेटा लीड्स ने शक्ति नाम से एक प्रोजेक्ट लॉन्च किया जिसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव में गलत सूचनाओं को रोकना था।इसके लिए देश में 1700 से ज्यादा पत्रकारों को प्रशिक्षण के नाम पर नैरेटिव युद्ध के लिए तैयार किया गया।  37 अलग अलग ट्रेनिग कार्यक्रम आयोजित किये गए। बड़ा सवाल यहाँ यह कि

-भाजपा संविधान बदल देगी?

-भाजपा आरक्षण खत्म कर देगी?

इस झूठी सूचना(वीडियो) को रोकने के लिए डेटा लीड्स और उसके पार्टनर क्या कर रहे थे ?मोदी,शाह,डॉ भागवत के बयानों के क्लिप को काटकर जिस तरह से फर्जी वीडियो बनाये गए और करोड़ों लोगों तक प्रसारित हुए उन्हें इस इकोसिस्टम ने क्यों नही रोका?

अजीत अंजुम,रवीश कुमार,पुण्य प्रसून,अभिसार, धुर्व राठी के वीडियो के फैक्ट चैक की जगह उन्हें आगे प्रसारित करने का काम किन लोगों ने किया?

जाहिर है जिन 75 हजार पत्रकारों,यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स और एकेडमिक्स को प्रशिक्षण दिया गया विदेशी पैसे से वही इस नैरेटिव को बनाने में लगे थे जो हर कीमत पर मोदी की सत्ता को रोकना चाहते थे।

यूएसएड और ओसीसीआरपी

ओसीसीआरपी अमेरिका में खोजी पत्रकारों के संगठन का दावा करता है।इसे यूएसएड से भारी आर्थिक मदद मिलती है।भारत के अनेक पत्रकार इससे जुड़े हुए है।इसे सोरोस की ओपन सोसायटी भी फंड करती है।इसने 2023 में गौतम अडानी के विरुद्ध एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसे लेकर राहुल गांधी ने लोकसभा में जमकर बबाल काटा था।पेगासस जासूसी, कोरोना वायरस के साइड इफेक्ट जैसी शरारतपूर्ण रिपोर्ट भी इसी संगठन ने जारी की थी जिन्हें लेकर राहुल गांधी ने संसद में जमकर हंगामा किया था।

जैसी रिपोर्टे वैसा माल

पुलित्जर नाम की संस्था अपने यहां किसी विषय पर स्टोरी करने वाले को कम से कम 1000 हज़ार डॉलर (लगभग 85000 रुपये) देती है। कई मामलों में यह 8000 से 10000 डॉलर तक होती है। बशर्ते आप हिंदुत्व और मोदी सरकार के खिलाफ लिखने है।बरखा दत्त, राणा अय्युब या फिर रोहिणी सिंह जैसे तमाम पत्रकारों को तो एक स्टोरी के बदले 10 लाख रुपये तक भी दिए जाते हैं। यह स्टोरी क्या होगी यह संस्था ही तय करती है।

अगर आपने कोई स्टोरी आइडिया पुलित्जर, अल जजीरा या फिर वाशिंगटन पोस्ट को भेजा है तो आपके नाम के हिसाब से आपकी स्टोरी को मंजूर किया जाता है। कई मामलों में यह स्टोरी द वायर, कारवान या फिर प्रिंट,स्क्रॉल,किविंट जैसे पोर्टल में छपती हैं, जिससे इन संस्थाओं का सीधा संबंध नहीं है, लेकिन दूसरे अखबारों या वेबसाइट्स पर स्टोरी छापने के लिए पैसे यह संस्थाएं देती हैं।

दुनियाभर के देशों में एक नरैटिव तैयार करने के लिए ऐसी करीब 50 से ज्य़ादा संस्थाएं हैं, जोकि पत्रकारिता और खोज़ी पत्रकारिता के नाम पर फेलोशिप में पैसे बांटती हैं। इनमें कोलंबिया यूनिवर्सिटी से कई फेलोशिप दी जाती है। पुलित्ज़र, लोकल इंवेस्टिगेशंस फेलोशिप, रहमान अल फारा फेलोशिप आदि प्रमुख हैं।

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