अलविदा राहत इंदौरी साहब, अभी मोहब्बत सीखना बाकी था आपको

विवेक पाठक

Update: 2020-08-15 12:26 GMT
लगेगी आग तो कई घर आएंगे जद मे

ग्वालियर। मुशायरों के मंच पर अपनी तुकबंदी और आवेशमयी जोशीले अंदाज के कारण चर्चित रहे उर्दू शायर श्रीमान राहत इंदौरी साहब के निधन के प्रति हृदयपूर्ण संवेदनाएं। निश्चित ही उनका असमय निधन उर्दू शायरी और कविता की बड़ी क्षति है। उनके जाने के बाद एक तरफ मेरी पेशानी पर हिन्दुस्तान लिख देना शेर पढ़ने वाले उनकी महानता के कसीदे गढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर काफी कुछ उल्टा और विरोधी किरदार भी उनके पढ़े गए शेरों से सामने आ रहा है। लगेगी आग तो कई घर आएंगे जद में जैसे शेर उनकी कथित महानता में पैबंद लगा रहे हैं।

आइए कुछ ठहरकर सोच समझकर बात करें। निश्चित ही श्रद्धांजलि लेख में दुनिया छोड़कर जाने वाले के गुण दोष दोनों की बात होती है। तो क्यों न राहत इंदौरी साहब की बात भी खुलकर हो। यकीनन वे मुशायरों की शान रहे। वे सबसे आखिर में आकर मुशायरों के मंच लूटते रहे। उनका अपना प्रशंसक वर्ग रहा। वे तुकबंदी के जादूगर रहे पर इतना सब होकर भी क्या वे महान शायर भी रहे। क्या वे कौमी एकता के झंडाबरदार रहे। क्यों न इन सवालों के जवाब राहत साहब के कलामों से ही जाने समझें।

कुछ महीनों पहले तक जब देश में एनआरसी को लेकर आगजनी की जा रही थी। पुलिस वालों की माॅब लिंचिग हो रही थी और जब यह अफवाह चरम पर थी कि मुसलमानों को शरणार्थी कैंप में ठूंस दिया जाएगा तब बहुतों के दिलबर राहत इंदौरी साहेब जनवरी 2020 में हैदराबाद में मुसलमानों के बीच मुशायरे में इन शब्दों से कौमी एकता ला रहे थे।

साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तरह

मुझसे बुजदिल की हिमायत नहीं होने वाली

अबके जो फैसला होगा वो यहीं पर होगा

हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली

लगेगी आग तो घर कई आएंगे जद में

यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़े ही है।

एनआरसी के खिलाफ उन्मादी युवाओं के बीच लगेगी आग तो घर कई आएंगे जद में कहने का मतलब क्या है फिलहाल समझाने का प्रसंग नहीं है। आइए आगे की बात करें।

राहत साहब की एक बड़ी जादूगरी ये भी थी कि वे अपना दोतरफा किरदार गढ़ना चाहते थे। हैदराबाद के मुशायरे में मेरी पेशानी पर हिन्दुस्तान लिख देना कहकर अपनी जुबानी आग को पानी दिखाने से नहीं चूकते थे। वे प्रशंसकों के बीच महान दिखना तो चाहते थे मगर कौमी एकता के लिए महान बनने से वे बचते रहे थे। अगर ये अंतर न होता तो उनके शब्दों में उन्मादियों के लिए उकसाहट न होती। किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़े ही है जैसे विभाजनकारी शब्द उनकी पहचान न बनते। एनआरसी विवाद के समय वे अपनी तुकबंदी और जोशीली और बहुत हद तक आवेशमयी शैली से हिंसक भीड़ को शर्मिन्दा कर रहे होते मगर अफसोस वे कहां खड़े थे, क्या बोलकर क्या कर रहे थे देश ने देखा है।

आज उनके कई अगाध कद्रदान उन्हें वैसा ही महान बता रहे हैं जैसा उन्होंने अपने लिए खुद की गड़ी फ्रेम में चाहा था।

संस्कृत में श्लोक है नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः मगर शायद राहत साहब इन सब किताबी बातों से परे थे शायद। अपनी तुकबंदियों पर तालियों की चाह में वे इस्लाम से अलग धर्मों की खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूके। एक पुराने मुशायरे में वे बड़े व्यंग्य भाव में शेर पड़ते हैं.... रावण वावण मंदर बंदर आदि आदि। इस्लाम और उर्दू का बड़ा जानकार जो ईशनिंदा के परिणाम समझता हो वो सार्वजनिक जगह पर हिन्दू धर्म के प्रतीकों और पात्रों की खिल्लियां कैसे उड़ा सकता था ये सोच का विषय है।

लेकिन राहत साहेब की बात ही निराली थी उन्हें तालियों के साथ खिल्लियां उड़ाना व उस पर तालियों की तुकबंदी हमेशा भायी। गोधरा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर उनके ललकारते हुए शब्द थे।

जो कौम मुर्दो को भी नहीं जलाती, वो वो जिन्दों को जलाएंगे कैसे। इन शब्दों से इतर गोधरा में क्या हुआ था आज कौन नहीं जानता। तो फिर निसंकोच कहा जा सकता है कि राहत साहब पंथप्रेम में अनेक बार सच बोलने से भी सकुचाते थे।

वे विवादित मामलों पर मन भरकर बोले मगर गुणीजनों की तरह सत्यं वद् धर्मं चर की राह पर चलने से अक्सर बचेे। शायद संवेदनशील मुद्दों पर तीखे वार राहत इंदौरी साहेब के अवचेतन की पिपासा थे। अपने चाहने वालों में कौमी एकता के महान शायर राहत साहेब

शायर के साथ कई किरदार में रहे। वे शालीन शब्दों की जगह किसी विपक्षी से कहीं ज्यादा विरोधी रहकर दल विशेष और उनकी सरकारों के विरोधी रहे। निसंदेह उन्हें अपनी आस्थाएं दूसरी जगह रखने का हक था मगर इकतरफा शायर होकर वे महान शायर तो कहलाने का हक खो चुके थे। महानता उथलेपन से नहीं विनम्रता की गहराई से आती है। उनका दल विशेष के प्रति कितना दुराग्रह रहा कि वे अजातशत्रु पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी का भी मखौल उड़ाने से नहीं चूके।

याद दिलाना जरुरी है कि राहत साहब ने तालियों की चाह में अटलजी को दो कौड़ी का आदमी संबोधन दिया था। वे यहीं न रुके थे। 100 करोड़ जनता और देश की लोकतंत्र की आवाज बने अटलजी के घुटने की बीमारी वे तुकबंदी और शेर ढूंढ रहे थे। यह सब कुछ इंटरनेट के युग में साक्षात दर्ज है जो शेरों सुखन के रसिक काबिल और महान शायर में अंतर न कर पा रहे हों वे खुुद देखकर, सुनकर, जानकर विचार कीजिए। किसी के जाने के बाद उनका समग्रता से आकलन ही उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। राहत इंदौरी साहब आपके शेरों और तुकबंदी को सलाम और श्रद्धांजलि। बस एक ख्वाहिश रही कि काश आप शब्दों के साथ मन से भी मालामाल होते।

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