वेबडेस्क। "सत्य एक विशाल वृक्ष है ज्यों ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है त्यों -त्यों उसमें से अनेक फल पैदा होते दिखायी देते हैं। उसका अन्त ही नहीं होता। हम जैसे-जैसे उसकी गहराई में उतरते हैं, वैसे-वैसे उसमें से अधिक रत्न मिलते जाते हैं, सेवा के अवसर प्राप्त होते रहते हैं।"
गांधी एक राजनीतिज्ञ नहीं, व्यक्ति नहीं, विचारधारा भी नहीं बल्कि जीवन के वे आदर्श, अनुकरणीय मूल्य हैं जिनके आधार पर ज़िंदगी जी जानी चाहिए। कसौटी पर खरे उतरने वाले गांधी। बचपन में रोपे गए 'सत्य' अहिंसा, प्रेम के बीजों को जांचते, परखते गांधीजी अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' में पूर्णत उघड़े हुए अपनी गलतियों, पछतावों को स्वीकार करते हैं और सीखना जारी रखते हैं।पूरी आत्मकथा को ही तीन शब्दों-सत्य, प्रेम और अहिंसा में व्यक्त करना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा। उनका जीवन इनके प्रयोग और खोज में झोंक दिया गया। गांधी का मूल भाव 'भय' रहा लेकिन उनका जीवन भय से 'अभय' हुआ। उनकी प्रकृति में स्त्री तत्व का बाहुल्य रहा। अपनी पत्नि के प्रसव से लेकर बीमार, दुखियारों की सेवा करने में उन्हें आत्मिक संतुष्टि मिली।
सत्य के प्रयोग की यात्रा कष्टप्रद ज़रूर रही लेकिन सफल रही बावजूद इसके वे आरंभ में ही कहते हैं कि 'मेरे प्रयोगों से निकले परिणाम सबके लिए अंतिम सत्य हों ऐसा ज़रूरी नहीं'। ऐसी घोषणा गांधी ही कर सकते हैं। मांसाहार न करने के लिए मां से किये वचन का अंतिम परिणाम 'अहिंसा' थी। जब भी किसी बात का प्रयोग किया हर बार यह पाया कि मेरे स्वयं के साथ-साथ दूसरे का हित हो तभी उददेश्य की शुद्धता प्रमाणित होती है। कम बोलने का सुफल शब्दों और लेखन में मितव्ययता के रूप में पाया। धरती पर गांधी के समान शायद ही कोई और हो जिसने इतना काम किया हो। आज हम चार लोगों के परिवार की सेवा में आठ लोगों को नियुक्त करते हैं और इसमें अपना बड़प्पन समझते हैं। कम आयु में विवाह होने से प्रारंभ में पत्नि को विषयासुख और अधिकार का साधन मात्र मानना आगे चलकर निर्मल, निर्विकार उदात्त प्रेम में रूपांतरित होता है और गृहस्थी शांत होती चली जाती है। निश्चित ही जिन नज़दीकी लोगों के सहयोग से ये प्रयोग सिद्ध हुए उनकी गांधी जी में अटूट श्रद्धा थी। जिसका उदाहरण बेटे के तीव्र बुखार में भी ईश्वर में विश्वास रखते हुए मनोयोग से घर में ही प्राकृतिक चिकित्सा करना। पानी और मिट्टी के स्वानुभूत प्रयोग उनकी दृढ़ता के परिचायक हैं।
जैसे-जैसे वे जीवन में गहरे उतरते गए अपने बाहरी और भीतरी आचरण में बदलाव करते गए। ब्रह्मचर्य को साधने की ज़रूरत हुई। सादा भोजन,त्याग और शरीर की सहज आवश्यकता को समझते चले गए। जब मन मोह से दूर हो जाता है तो आदतों की केंचुल स्वतः उतर जाती है और हल्का महसूस होता है। अदने-से-अदना काम खुद करना, सादगी से रहना, पैदल चलना और अपने ऊपर लोगों के व्यंग्य, मजाक को सहन करना आज के इस अधीरता के युग में उदाहरण है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसका आंकलन करना अपूर्ण है। आज हम अपने दस मुखौटों को संवारने में लिप्त हैं।
आज के स्कूलों में धन और भावनाओं का प्रबंधन करना नहीं सिखाया जाता, गांधी जी ने विलायत में रहकर अपने ऊपर खर्च की जाने वाली राशि को बचाना और दुरूपयोग करने से रोकने का सफल प्रयोग किया जिसे उन्होंने जीवन भर अमल कर लाभ पाया। उनकी कठिनाई विषयसुख और जिव्हासुख को साधने में रही। स्वाद को तरजीह देने वाले के जीवन में इंद्रियसुख के प्रति कामना रहती है। इसलिए 'अन्न को ब्रह्म ' कहा जाता है। खाने का मन पर प्रभाव पड़ता है । अपने विकारों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना साहस का चरम है। अपने बेटों की आधी-अधूरी शिक्षा के लिए स्वयं को दोषी मानना ईमानदारी की पराकाष्ठा है। ऐसा वही कर सकता है जिसमें सत्य की खोज की उत्कट इच्छा हो।
सफेद लंगोट पहने लाठी लिए बूढ़े,जीर्ण- शीर्ण शरीर से लंबे डग भरते माॅब-लिंचिग देखकर व्यथित होते, संसद की लीला को झुठलाते, सर्दी-जुखाम में डाॅक्टर के पास चक्कर लगाते मात-पिता की दशा पर मुस्काते, फेरी वाले, ठेले वाले के आँसू पोंछते आहत मन से पतित मानवीयता की दशा से दुखी और पश्चाताप करते वापस चले जाते हैं।बहरहाल गांधी जी की आत्मकथा पर हजार सूत्र ढूँढे जा सकते हैं। अंतिम निष्कर्ष यह है कि प्रेम ही मूल है।सैकड़ों वर्षों में कोई बिरला सत्याग्रही होता है...गांधी होता है। गाँधीजी का चिंतन और दर्शन सदैव प्रासंगिक बना रहेगा।