"सुशासन" - एक मजबूत और विकसित भारत की ओर..
लेखक -भूपेश भार्गव रिसर्च एसोसीएट, (CMYPDP) अटल बिहारी बाजपेयी सुशासन एवं नीति विश्लेषण संस्थान
वेबडेस्क। भारत में सुशासन पर चर्चा को केन्द्रित करने से पूर्व यह जान लेना उचित होगा कि सुशासन कहते किसे हैं। सामान्य अर्थों में 'सुशासन' से आशय है-'अच्छा शासन'। यानी सरल शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि एक अच्छा शासन सुशासन कहलाता है। आधुनिक वैश्विक संदर्भ में यह शब्द विकास के साहित्य से जुड़ा है, जिसमें सुशासन के लिए निर्णय लेने व लिए गए निर्णयों को लागू करने और उनका क्रियान्वयन किए जाने की प्रक्रिया शामिल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि विकास से सुशासन का सीधा रिश्ता है। यही कारण है कि जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के जन्मदिन 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'सुशासन दिवस' के रूप में मनाए जाने की घोषणा की, तब उन्होंने सशासन के महत्व को रेखांकित करते हुए यह कहा कि सुशासन किसी भी देश की प्रगति की कुंजी है।
सुशासन को अमल में लाने के लिए नागरिक समाज का अहम स्थान है, क्योंकि यही समाज की क्षमता में वृद्धि करते हैं और उसे जागरूक बनाते हैं। यही सरकार या राज्य को आगाह करते हैं कि केसे नागरिकों की भागीदारी से उनका संपूर्ण विकास किया जाए। नागरिक समाज सामूहिकता को बढ़ावा देकर सहभागिता को सामाजिक जीवन का अंग बनाता है।
राज्य के नागरिकों की सेवा करने की क्षमता का अर्थ ही सुशासन है। सुशासन के अंतर्गत वे सभी नियम व कानून प्रक्रियाएं, संसाधन एवं व्यवहार शामिल हैं, जिनके द्वारा नागरिकों के मसले व्यक्त किए जाते हैं, संसाधनों का प्रबंधन किया जाता है और शक्ति का प्रयोग किया जाता है। अर्थात राज्य द्वारा संसाधन एवं शक्ति का प्रयोग समाज के विकास एवं कल्याण के लिए किया जाता है। सुशासन को प्रभावी ढंग से लागू करने करने में राज्य सरकार, बाजार एवं नागर समाज (सिविल सोसाइटी) की महत्वपूर्ण भूमिका है। नागर समाज के अंतर्गत गैर-सरकारी संगठन, नागरिक समाज के संगठन, मीडिया संगठन, एसोसिएशन, ट्रेड यूनियन व धार्मिक संगठन आते हैं।
मानव समाज में सुशासन की अवधारणा नई नहीं है। यह उतनी ही पुरानी है, जितनी कि मानव सभ्यता। सुशासन की अवधारणा लोक कल्याण से जुड़ी है और इस लोक कल्याण का उद्घोष हमारी वैदिक संस्कृति इस प्रकार करती है |
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत्॥
यानी सभी सुखी हों, विघ्न रहित हों, कल्याण का दर्शन करें तथा किसी को कोई दुख प्राप्त न हो। लोक कल्याण के ये श्रेष्ठ मूल्य हमारी संस्कृति में निहित थे, जो कि 'सुशासन की अवधारणा' को ही इंगित करते हैं।यदि हम प्राचीन भारत की राजव्यवस्था का गहन अवलोकन करें तो पता चलता है कि इसमें भी सुशासन के तत्व विद्यमान थे। सुशासन को सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई थी। 'अर्थशास्त्र' के रचनाकार कौटिल्य सुशासन के प्रतिपादक थे। कौटिल्य के शासन का आर्दश बड़ा ही उदात्त था। उन्होंने अपने ग्रंथ में जिस विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया है, उसमें प्रजा का हित ही राजा का चरम लक्ष्य है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहते हैं।
प्रजा सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् च हिते हितम्।
नात्यप्रियं हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम्॥
अर्थात प्रजा के सुख में ही राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसका हित है। अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, बल्कि जो प्रजा के लिए हो, उसे करने में राजा का हित होता है। कौटिल्य का यह स्पष्ट मत था कि राजा को प्रजा की शिकायतों को सुनने के लिए सदैव सुलभ रहना चाहिए तथा प्रजा से अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिए। कौटिल्य स्पष्टतः चेतावनी देते हैं कि जिस राजा का दर्शन प्रजा के लिए दुर्लभ है, उसके अधिकारी प्रजा के कामों को अव्यवस्थित कर देते हैं, जिससे राजा या तो प्रजा का कोपभाजन बनता है या शत्रुओं का शिकार होता है। अतः राजा को सदा उद्योगपरायण रहना चाहिए। यही उसका व्रत है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे महान सम्राट का शासनादर्श कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही था, जिस पर अमल कर चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था ने एक कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की अवधारणा को चरितार्थ किया।
हमारे देश में जिस सुशासन की अवधारणा पर प्राचीनकाल से जो श्रेष्ठ परम्पराएं विकसित होती रहीं, वे औपनिवेशिक काल में अवरुद्ध हो गईं। औपनिवेशिक काल में सुशासन की अवधारणा छिन्न-भिन्न हो गई। औपनिवेशिक काल से प्रशासनिक व्यवस्था के साथ जुड़े भ्रष्टाचार, अन्याय, पक्षपात, शोषण, असमानता एवं नौकरशाही की जटिलताओं ने एक काले अध्याय की शरुआत की। एक लंबे समय तक संघर्ष करने के बाद हम आजाद हए और विभिन्न रूपों में सुशासन से जुड़ी अवधारणाओं को हमने अपने संविधान में स्थान भी दिया, किंतु इसे विडंबना ही कहेंगे कि हम इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। फलतः सुशासन गूलर का फूल बन गया।
"एक मजबूत और विकसित भारत के स्वप्न को हम सुशासन से ही साकार कर सकते हैं।"
वस्तुतः आजादी के बाद भी औपनिवेशिक काल की प्रेत छाया' से हम मुक्त नहीं हो पाए। यही कारण है कि सुशासन की खिल्ली उड़ाते हुए अनेकानेक समस्याएं, जनकष्ट और विसंगतियां हमारी पहचान बन गईं। मसलन, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शोषण, आतंकवाद, नक्सलवाद, युवा असंतोष, अपारदर्शिता, गैरजवाबदेही, राजनीति का अपराधीकरण, असुरक्षा, अपराध, शैक्षिक एवं सामाजिक पिछड़ापन, राजनेताओं, सिविल सेवकों तथा बड़े व्यावसायिक घरानों का जनता पर अभिशप्त प्रभाव, परमिट और इंस्पेक्टर राज तथा नागरिक हितों की अनदेखी जैसी उग्र व विकराल समस्याओं ने कुछ इस तरह पैर पसारे कि इनसे हमारी लोकतांत्रिक जीवंतता पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया। यह कहना असंगत न होगा कि ये समस्याएं इस कदर भयावह और विकराल न होतीं, यदि हमारा राजनीतिक नेतृत्व सुशासन के प्रति उदासीन न होता। इन समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में यदि आज हमारा राजनीतिक नेतृत्व जागा है, तो सुशासन की आवश्यकता महसूस की गई है।
"एक मजबूत और विकसित भारत के स्वप्न" को हम सुशासन से ही साकार कर सकते हैं। सुशासन का संबंध सामाजिक विकास से है। सुशासन के माध्यम से जहां हम अधिक सामाजिक अवसरों का सृजन कर सकते हैं, वहीं लोकतंत्र को अधिक सुरक्षित व मजबूत भी बना सकते हैं। सुशासन की अवधारणा 'नागरिक पहले' के सिद्धांत पर टिकी है, क्योंकि इसी सिद्धांत पर चल कर जहां नागरिकों को सरकार के करीब लाया जा सकता है, वहीं सुशासन में जनता की भागीदारी एवं सक्रियता को भी बढ़ाया जा सकता है।
सुशासन की पहली मूलभूत आवश्यकता है, जवाबदेही, क्योंकि निर्णयों के अच्छे परिणाम तभी प्राप्त किए जा सकते हैं, जब हम इनके प्रति जवाबदेह हों।इस जवाबदेही का प्राणतत्व पारदर्शिता होती है, अतः सुशासन के लिए हमें जवाबदेही के साथ व्यवस्था में पारदर्शिता भी लानी होगी। यह भी जरूरी है कि सुशासन कायम करने के लिए सरकार न सिर्फ समुदाय की आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी हो, अपितु वह सुशासन को न्यायसंगत एवं समावेशी स्वरूप भी प्रदान करे। यह ऐसा हो कि सभी समहों को प्रक्रिया में सम्मिलित होने का अवसर मिले और इसका लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। सुशासन को प्रभावी एवं 'कुशल बनाने के लिए समयबद्धता आवश्यक होती है, अतः इस पर ध्यान दिया जाना भी जरूरी है।
आज जब हम सुशासन के लिए चेते हैं, तो इसके लिए एक महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना है, ताकि पूरी प्रणाली को पारदर्शी एवं तीव्र बनाया जा सके। साथ ही यह भी आवश्यक है कि नागरिकों और सरकार के बीच भरोसे के सबध कायम हों। सुशासन के लिए जहां यह आवश्यक है कि जन शिकायता का निपटारा जल्द-से-जल्द हो, वहीं यह भी जरूरी है कि तकनीक के जरिए देश के नागरिकों को सशक्त बनाया जाए। यह खुशी की बात है कि हमारी सरकार ने सिर्फ 'सुशासन दिवस' की घोषणा मात्र नहीं की है, अपितु इस दिशा में व्यावहारिक पहले भी शुरू की हैं, जिनके बारे में जान लेना समीचीन होगा। कोटा-परमिट एवं इंस्पेक्टर राज्य के खात्मे के लिए जहां हमारी सरकार ने सधे हुए कदम उठाए हैं, वहीं हलफनामों एवं सत्यापनों की जगह 'स्व-सत्यापन' इस बात का संकेतक है कि हमारी सरकार नागरिकों के साथ भरोसे के संबंध कायम करने की इच्छुक है। सुशासन को ही ध्यान में रखकर सरकार ने औचित्यहीन, पुराने और जटिल कानूनों को समाप्त किए जाने को अपनी प्राथमिकताओं में सम्मिलित किया है।
सुशासन की एक शर्त यह भी होती है कि जनशिकायतों का निस्तारण जल्द-से-जल्द हो। सुशासन के इस महत्त्वपूर्ण घटक को ध्यान में रखते हुए ही भारत सरकार के मंत्रालयों एवं विभागों को उनके कार्यक्षेत्रों, उनकी आन्तरिक प्रक्रियाओं पर गौर करने तथा उन्हें सरल व तर्कसंगत बनाने के लिए कार्य करने का निर्देश दिया गया है। इतना ही नहीं, 'ई-लर्निंग मॉड्यूल' के माध्यम से एक सरल आंतरिक कार्य प्रक्रिया पर भी काम शुरू हो चुका है। सुशासन के लिए सरकारी स्तर पर नागरिकों को सशक्त बनाने की दिशा में ठोस प्रयास शुरू हो चुके हैं, जिनकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है-'डिजिटल इंडिया'। डिजिटल इंडिया का लक्ष्य देश को डिजिटल रूप से अधिकार सम्पन्न समाज एवं ज्ञान अर्थव्यवस्था के रूप में बदलना है। डिजिटल इंडिया का स्वरूप परिवर्तनीय है और भविष्य में इससे सरकारी सेवाएं नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक तरीके से भी उपलब्ध करवाई जा सकेंगी। इलेक्ट्रॉनिक तरीके से सरकारी सेवाएं प्रदान किए जाने से जवाबदेही भी अधिक बढ़ेगी।
सुशासन के न्यायसंगत एवं समावेशी स्वरूप को ध्यान में रखते हुए ही प्रधानमंत्री जन धन जैसी योजनाओं का सूत्रपात किया गया है, ताकि लाभ अंतिम तबके तक पहुंचे। हालांकि सुशासन के लिए मात्र इतनी ही पहले पर्याप्त नहीं हैं। अभी और भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। मसलन, अभी हमें नक्सलवाद और आतंकवाद से लड़ाई लड़नी है, तो राष्ट्र को धुन की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार का सफाया करना है। जहां जनहित कानून के शासन द्वारा लोगों की सुरक्षा को बढ़ाना है, वहीं सुशासन की जड़ों को मजबूत बनाने के जिए न्यायिक रचनात्मकता एवं न्यायिक सक्रियता को भी बढ़ाना है। देशोपयोगी संदों में जहां सशक्त दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं नौकरशाही की जटिलताओं को दूर करने के लिए देश में कार्यकारी रचनात्मकता को प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है। चूंकि सुशासन का सीधा संबंध लोकतंत्र से है, अतः यह भी आवश्यक है कि हम स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना के लिए स्वस्थ जनादेश की तरफ बढ़े तथा राजनीति के अपराधीकरण एवं चुनावों में धनबल के प्रयोग जैसी विकृतियों को दूर करें। शांति व्यवस्था को बनाए रखकर जहां देश के नागरिकों को बचत और निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, वहीं हमें इंटरनेट सहित अन्य नई-नई । तकनीकों में अधिक व्यावसायिक कौशल एवं महारत हासिल करना होगा। जहां शासन की गुणवत्ता के सुधार में बाधक तत्वों का सफाया करना होगा, वही मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियों को अधिक सशक्त एवं प्रभावशाली बनाना होगा। एक रचनात्मक तंत्र की स्थापना के लिए नागरिक समाज की भागीदारी को बढ़ाना होगा, ताकि राजनीतिक नेतृत्व सुशासन के प्रति उदासीन न रह सके। सुशासन की इन पहलों के बाद ही एक मजबूत भारत का निर्माण हो सकेगा।
सुशासित राष्ट्र एक 'आदर्श राष्ट्र' होता है। यह खुशी की बात है कि हमारे देश में अत्यंत सकारात्मक माहौल में सुशासन की पहल शुरू हुई है। टिकाऊ मानव विकास, स्वस्थ एवं जीवंत लोकतंत्र, मजबूत और प्रगतिशील राष्ट्र, अवसरों की समानता तथा जवाबदेह राजनीतिक नेतृत्व के लिए हमें सुशासन की दिशा में मजबूती के साथ सधे हुए कदम बढ़ाने होंगे, क्योंकि सुशासन संयोग से उत्पन्न नहीं होता है। इसे समग्र रूप से प्राप्त करने के लिए हमें अपने देश में प्रत्येक दिवस को सुशासन दिवस के रूप में मनाना होगा।