क्या नेताजी होते तो नहीं बनता पाकिस्तान ?

विवेक शुक्ला

Update: 2023-01-23 08:02 GMT

वेबडेस्क। इंडिया गेट में लगी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आदमकद मूरत को नमन करते हुए आप एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग ( पहले औरंगजेब रोड) में मोहम्मद अली जिन्ना के 10 नंबर के बंगले के आगे से गुजरते हैं। इस दौरान आपके जेहन में एक सवाल आता है कि क्या नेताजी जीवित होते तो भारत का विभाजन होता? हालांकि नेताजी के जीवनकाल में ही अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव परित किया था। जिन्ना ने 23 मार्च, 1940 को लाहौर के बादशाही मस्जिद के ठीक आगे बने मिन्टो पार्क में एक सभा को संबोधित करते हुए अपनी घनघोर सांप्रदायिक सोच को खुलेआम प्रकट कर दिया था। जिन्ना ने सम्मेलन में अपने दो घंटे लंबे बेहद आक्रामक भाषण में हिन्दुओं को पानी पी पीकर कोसा था। उन्होंने कहा था- " हिन्दू– मुसलमान दो अलग धर्म हैं। दोनो के अलग-अलग विचार हैं। दोनों की परम्पराएं और इतिहास भी अलग हैं। दोनों के नायक भी अलग है। इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते।" जिन्ना ने अपने भाषण के दौरान लाला लाजपत राय से लेकर दीनबंधु चितरंजन दास को खुलकर अपशब्द कहे। जाहिर है, नेताजी ने जिन्ना के भाषण के अंश पढ़े ही होंगे।


पाकिस्तानी लेखक फारूक अहमद दार ने अपनी किताब "जिन्नाज पाकिस्तान:फोरमेशन एंड चैलेंजेंस" में दावा किया है कि मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के हक में प्रस्ताव पारित करने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिन्ना से आग्रह किया था कि वे अलग देश की मांग को छोड़ दें। उन्होंने जिन्ना को भारत के आजाद होने के बाद पहला प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी दिया था। कुछ इसी तरह का प्रस्ताव कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सी. राजागोपालचारी ने भी जिन्ना को दिया था। जाहिर है कि जिद्दी जिन्ना ने नेताजी की पेशकश पर सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। उसके बाद का इतिहास जगजाहिर है। नेताजी पेशावर के रास्ते देश से चले गए भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति दिलवाने के लिए। फिर वे दुनिया के अनेक देशों में रहे। उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया। जाहिर है कि देश से बाहर जाने के बाद वे जिन्ना तथा मुस्लिम लीग की गतिविधिवियों से लगभग दूर हो गए। अभी तक तो यह कहा जाता है कि उनकी एक विमान हादसे में 18 अगस्त 1945 कोमृत्यु हो गई थी।

हिन्दू- मुस्लिम एकता के सवाल पर नेताजी और जिन्ना के बीच 1938 में पत्र व्यवहार हो रहा था। नेताजी मुस्लिम लीग के सांप्रदायिकरण से नाराज थे। नेताजी ने 25 जुलाई, 1938 को जिन्ना को लिखे अपने खत में साफ-साफ कहा था कि "अखिल भारतीय मुस्लिम लीग घोर सांप्रदायिक संगठन है। इसमें सिर्फ मुसलमानों को ही सदस्यता मिल सकती है।" दरअसल नेताजी ने मुस्लिम लीग पर कड़ा प्रहार इसलिए किया था क्योंकि मुस्लिम लीग ने कुछ समय पहले ही एक प्रस्ताव पारित करके दावा किया था कि वह ही भारत के मुसलमानों की सियासी मामलों में नुमाइंदगी करने वाली एकमात्र जमात है।

नेताजी के पत्र के उत्तर में जिन्ना ने बड़े ही तल्ख अंदाज में लिखा- "बेशक, मुस्लिम लीग भारत के मुसलमानों की एकमात्र सियासी जमात है। ये ही उनके हितों के लिए लड़ती है। इस संबंध में कांग्रेस- लीग के बीच लखनऊ में 1916 में समझौता हो गया था। इसलिए लीग को कांग्रेस से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है कि लीग मुसलमानों की एकमात्र पार्टी है या नहीं।" यह कहना मुश्किल है कि मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव पारित करने को नेताजी ने गंभीरता से नहीं लिया था? संभवत: उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं हुआ होगा कि लीग का सपना सात सालों में सच में हो जाएगा। उनकी तो पहले ही मृत्यु हो गई थी। वे तब आजाद हिन्द सेना बना चुके थे। उसमें मुसलमानों की भारी संख्या थी। उस दौर में आबिद हसन सफरानी उनके सचिव और दुभाषिया बने। जब नेताजी ने जर्मनी से जापान तक तीन महीने की लंबी पनडुब्बी यात्रा की, तो वह उनके साथ जाने वाले एकमात्र भारतीय थे। बाद में, फौज के एक अधिकारी के रूप में, आबिद ने नेताजी के निजी सलाहकार के रूप में कार्य किया और बर्मा के मोर्चे पर लड़ाई का नेतृत्व भी किया। उन्होंने लोकप्रिय नारा "जय हिंद" गढ़ा। कर्नल हबीब उर रहमान जनरल मोहन सिंह के साथ आजाद हिंद फौज के सह-संस्थापक थे। उन्होंने बर्मा के लिए एक अभियान का नेतृत्व किया।

21 अक्टूबर 1943 को जब आजाद हिंद सरकार बनी तो उन्होंने मंत्री पद की शपथ भी ली। वे 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की अंतिम उड़ान के दौरान उनके साथ थे। अब बात मेजर जनरल मोहम्मद जमान खान कियानी की। वे आजाद हिंद फौज के प्रारंभिक गठन के दौरान जनरल मोहन सिंह, मो. जमान खान कियानी जनरल स्टाफ के प्रमुख थे। नेताजी के आंदोलन को संभालने के बाद, उन्हें आजाद हिंद फौज के पहले डिवीजन के मंत्री और कमांडर के रूप में नियुक्त किया गया था। मेजर जनरल शाह नवाज खान भी आजाद हिन्द फौज के प्रसिद्ध अधिकारी थे।नेताजी ने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए एक सांप्रदायिक सद्भाव परिषद भी बनाई। यानी नेताजी का मुसलमानों के बीच गहरा असर था। वे भी उन्हें अपना नेता मानते थे। इसलिए जिन्ना का यह दावा गलत था कि सिर्फ मुस्लिम लीग ही उनकी राजनीतिक स्तर पर नुमाइंदगी करती है।

अब जरा सोचिए कि अगर नेताजी की मृत्यु नहीं होती तब उनकी जिन्ना के 16 अगस्त 1946 के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया होती। जिन्ना ने 16 अगस्त,1946 के लिए डायरेक्ट एक्शन का आहवान किया था। एक तरह से वह हिन्दुओं के खिलाफ दंगों की शुरूआत थी। तब बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी। उसने दंगाइयों का खुलकर साथ दिया था। उन दंगों में कोलकाता में पांच हजार मासूम हिन्दू मारे गए थे। मरने वालों में उड़िया मजदूर सर्वाधिक थे। फिर तो दंगों की आग चौतरफा फैल गई। मई, 1947 को रावलपिंडी में मुस्लिम लीग के गुंडों ने जमकर हिन्दुओं और सिखों को मारा, उनकी संपति और औरतों की इज्जत खुलेआम लूटी। रावलपिंडी में सिख और हिन्दू खासे धनी और संपन्न थे। इनकी संपत्ति को निशाना बनाया गया। पर जिन्ना ने कभी उन दंगों को रूकवाने की अपील तक नहीं की। वे एक बार भी किसी दंगा ग्रस्त क्षेत्र में नहीं गए। डायरेक्ट एक्शन की आग पूर्वी बंगाल तक पहुंच गई थी। वहां पर भी हजारों हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ था। उस कत्लेआम को रूकवाने के लिए बाद में महात्मा गांधी नोआखाली और कोलकाता गए थे। बंगाल के जवाब में बिहार में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस तो जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के खिलाफ जनशक्ति के साथ सड़कों पर उतर जाते। वे कोलकाता के 1930 में मेयर थे। उन्हें कोलकाता के चप्पे- चप्पे की जानकारी थी। वे जिन्ना और मुस्लिम लीग के गुंडों का सड़कों पर मुकाबला करते। वे जुझारू नेता थे। नेताजी घर में बैठकर हालातों को देखने वालों में से नहीं थे। अफसोस कि वे इससे पहले ही संसार से विदा हो चुके थे। पर मान लें कि अगर वे जिन्दा होते तो भारत का इतिहास ही आज के दिन अलग होता। तब संभवत: देश विभाजित ही न होता। नेताजी सुभाष की शख्सियत बेहद चमत्कारी और सेक्युलर थी। देश के बंटवारे का असर मुख्यतः बंगाल और पंजाब पर ही हुआ। ये ही बंटे। बंगाल तो नेताजी का गृह प्रदेश था। इन दोनों राज्यों में मुसलमान और सिख भी उन्हें ही अपना नायक मानते थे। पंजाब में नामधारी सिखों के लिए वे बेहद आदरणीय थे और अब भी हैं।

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