वेबडेस्क। धार्मिक महत्व के स्थल-अमृतसर के निकट जलियाँवाला बाग में रौलेट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण सभा हो रही थी। इस दिन पंजाब का पावन पर्व बैसाखी भी था। पंजाबी स्त्री-पुरूष भांगड़ा करते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे। परंतु खालसा पंथ की स्थापना का यह दिवस शीघ्र ही शोक में बदल गया। चारों ओर से घेरकर निहत्थे लोगों पर बिना किसी चेतावनी के जनरल डायर ने गोलियाँ चलवा दीं। अंग्रेज सरकार ने मृतकों की अधिकृत संख्या 379 बताई। परंतु वास्तविक रूप से डेढ़ से दो हजार लोग शहीद हुए थे।
14 जनवरी 1931
मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले की लौंड़ी (परिवर्तित नाम- लवकुशनगर) तहसील में स्थित धार्मिक स्थल-चरणपादुका। प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी पावन मकर संक्रति का मेला लगा हुआ था। भोर से ही कड़़कड़ाती सर्दी में ग्रामीणजन बुड़की लगाने लमटेरा गाते हुए मेले में पहुंच रहे थे। उनके हृदयों में उल्लसित आस्था थी और शिव, नर्मदा तथा त्रिवेणी का आह्वान-
दरस की तो बेरा भई रे
बेरा भई रे पट खोलो छबीले भोलेनाथ हो
दरस की अरे हाँ
नरबदा मोरी मैया तो लगे रे
मैया तो लगे रे तिरबेनी लगे रे मोरी बेन होनरबदा मोरी मैया अरे हाँ
उन निश्छल सुरों को क्या पता था कि ये कुछ ही देर में सदा-सदा के लिए शांत हो जाएँगे। अपने बाबाओें-दादाओं के कंधांे पर सवार किशोर उनसे चरण पादुका धाम की कहानी सुनते चले जा रहे थे- राम लखन और सीता जू जब वनवास खों गये ते, तब इतई से निकरे ते। उर्मिल नदी की ई बड़ी सी शिला पै उनके चरण-चिन्ह अबै लों बनें । ऐई सेें सिंहपुर गाँव के पास को जो स्थान चरणपादुका कहाउत।
चरण पादुका स्थल पर हो रही स्वराजियों की शांतिपूर्ण सभा पर चारों ओर से घेरकर, बिना चेतावनी के नौगाँव के पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल फिसर ने गोलियाँ चलवा दीं । घोड़ों की टापों और धॉय-धॉय की आवाजों से पूरे क्षेत्र में भगदड़ मच गई। उर्मिल की धरा और धारा लाल हो गयी। चरण पादुका का इतिहास सुनाने वाले और सुनने वाले शहीद हो गये। मेले में लगी दुकानें लूट ली गयीं। पोटलियों में बांधकर लायी गयी-लुचईं, पपरियॉ, खुरमी-खुरमा, ठडूले, सूरन का साग, तिल, और तिल के लड्डू तथा आटे के लड्डू, गुड़, सेव-सब बिखर गये। दुकानों के साथ-साथ उदण्ड और उच्छंªखल सिपाहियों ने इस खाद्य-सामग्री का भरपूर उपभोग किया। कुछ ही घंटों में सब शांत सन्नाटा। स्वर था तो केवल उर्मिल की घरघराती लहरों का, मानों इस घटना पर वे धाड़ मार मारकर विलाप कर रही हों। इन समानताओं के कारण चरण पादुका काण्ड को बुंदेलखण्ड का जलियाँवाला काण्ड की संज्ञा से अभिहित किया गया।
जलियाँवाला काण्ड की पृष्ठभूमि में रौलेट एक्ट था। चरणपादुका में हुए नरसंहार की पृष्ठभूमि अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लिखी गयी थी। इसमें अंग्रेजों के साथ-साथ वे देशी राजे-रजवाड़े भी उत्तरदायी थे, जो गोरी सत्ता के चाटुकार थे और उन्हीं की कृपा से अपना छद्म मुकुट और सिंहासन बचाये हुए थे। बुन्देलखण्ड के लगभग समस्त राजे-रजवाड़े अंग्रेजों की सत्ता के सम्मुख नतमस्तक थे।
चरणपादुका काण्ड का स्वरूप अंग्रेजों की हृदयहीनता और सत्ता के मद से गढा गया था। अंग्रेज सरकार ने निरीह जनता और गरीब किसान पर लगान वृद्धि और विभिन्न प्रकार के करों का बोझ लाद दिया। चरनोई टेक्स, पशु टेक्स, महूटा (महुआ) टेक्स तो किसान पूर्व से ही भुगतान करते आ रहे थे। अंग्रेजों के चाटुकार राजे-रजवाड़ों ने अपना राजस्व बढ़ाने के लिए इन करों में वृद्धि के साथ-साथ कुछ विचित्र प्रकार के नये करों का सृजन भी कर लियाः मृत पशुओं का चाम उधेड़ने पर टेक्स, महुआ की गुली बीनने और बेंचने पर टेक्स, पिता के मृत होने पर टेक्स (बेचारे मृतक का यह दोष कि वह मरा ! ) रांड़ चुकोता पर टेक्स (विधवा का अपने अविवाहित देवर अथवा अन्य किसी के साथ पुनर्विवाह करना)- ऐसे व्यावसायिक और सामाजिक संबंधों पर भी अंग्रेज सरकार के अनुमोदन से टेक्स थोप दिये गये। टेक्स न चुका पाने की स्थिति में छाती पर पत्थर रखना, मुर्गा बनाना, जूते मारकर अपमानित करना और बेगार कराना जैसे दण्ड निर्धारित थे।बुन्देलखण्ड की जनता त्राहि त्राहि कर उठी। उसने अंग्रेजों और राजशाही के विरोध करने का निर्णय ले लिया।
लौड़ी के तहसील कार्यालय में लगान वृद्धि और करों के विरूद्ध एक जनसभा नवंबर 1930 में हुई। इस सभा का नेतृत्व पं. रामसहाय तिवारी और ठाकुर हीरासिंह कर रहे थे। गनेसा (आज की भाषा में अनुसूचित जाति, तत्समय की भाषा में चमार) ने उपस्थित भीड़ से लगान और करों को न देने का आह्वान किया। पुलिस ने मौके पर ही पकड़कर उसे पीटा...इतना पीटा कि उसका तत्क्षण प्राणान्त हो गया। यह पहला बलिदान था-अन्याय के विरुद्ध।
तत्कालीन बिजावर रियासत (अब छतरपुर जिले का तहसील मुख्यालय) के ग्राम बेड़री पुरवा (वर्तमन स्थिति: झांसी-खजुराहो सड़क मार्ग पर स्थित गंज से 5 किलोमीटर, सटई के पास) में टहनगा के पंडित रामसहाय तिवारी ने दिनांक 17/12/1930 को सत्यनारायण कथा का आयोजन किया। कथा तो बहाना था । मूल उद्देश्य था- अंग्रेजों और सामंतशाही के विरुद्ध जनमत तैयार करना। चार हजार की भीड़ में पंडित जी का भाषण चल रहा था। किसी विश्वासघाती भेदिये ने पुलिस को सूचित कर दिया । बिजावर रियासत का पुलिस कप्तान सदल बल आ पहुंचा। झमटुली गाँव के जमींदार बहादुर जू का हाथी मंगवाया गया। उसकी सूंड़ में जंजीर बांध कर भीड़ पर चलवायी गयी। नौ लोग मरणासन्न स्थिति तक घायल हो गये, फिर भी लोग डटे रहे। पुलिस कप्तान गुलाब खाँ ने गोली चलाने के आदेश दिये । पुलिस की गोली से कड़ोरे लुहार और गोकुल प्रसाद शुक्ल का बलिदान हुआ। अनेक लोग घायल हुए। अनेक लोग अपंग हो गये और जीवन भर घिसटते-घिसटते इन सेनानियों ने मृत्यु को वरण किया। ये घटनाएँ चरणपादुका नरसंहार की पृष्ठभूमि में थीं।
अंग्रेजों के विरुद्ध जन आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था। रियासतें इसे नियंत्रित नहीं कर पा रही थीं। फलतः यह कार्य नौगाँव स्थित पोलिटिकल ऐजेंट कर्नल फिशर को सौंपा गया। कर्नल फिशर ने इन्दौर से कोल भील पल्टन को बुलवा लिया। इस पल्टन के साथ इसने बुन्देलखण्ड के आंदोलन प्रभावित क्षेत्रों का सघन भ्रमण कर नेताओं की धर पकड़ प्रारंभ की और उन्हें जेल में बंद कर दिया।
फिशर के पास पक्की सूचना थी कि मकर संक्राति के मेले में चरणपादुका में एक विशाल आम सभा होने वाली है। नौगाँव से चरणपादुका की दूरी लगभग सत्ताईस किलोमीटर है। इन्दौर की पल्टन लेकर फिशर ने सभा और मेले पर गोलियाँ चलवा दीं। सरकारी आंकड़ों में कुल छह लोगों-सेठ सुंदरलाल(गिलौहा), चिरकू महतो (गोमा), धरमदास महतों (खिरवा), रामलाल महतो (गोमा), रघुराजसिंह (कटिया) व हलके कुर्मी (बँधिया) को मृत तथा 27 को घायल दिखाया गया। वास्तविकता यह थी कि लगभग दो सौ शवों को उर्मिल की अतल धार में फेंक दिया गया। गोलियों से बचने के लिए जो नदी में कूदे उनकी भी जीवन-लीला समाप्त हुई। इन शहीदों के नाम सरकारी अभिलेखों में नहीं आ सके। पर इन अनाम बलिदानियों का त्याग प्रणम्य है।
पुलिस ने अपनी प्राथमिकी में जिन 27 को घायल होना दर्शाया, वे थेः बसोरा चमार, चिटवा बसोर, बैजनाथ, रामसेवक, समसा चमार, गनपत गड़रिया, गनपत ठाकुर, सालिगराम, कलुआ लोधी, खूंदे महतो, आजाद मुसलमान, घनश्याम चमार, बाबा भिड़का, राजधरसिंह, विन्द्रावन तिवारी, विन्द्रावन नामदेव, मोतीलाल भाट, जगतराज पाठक, भूरा गुप्ता, रामचरण चौबे, शिवप्रकाश शर्मा, रघुवरसिंह, चंदीदीन, प्यारे राजा, जगत लोधी व क्रमांक 26 व 27 बेनाम (बेनाम क्यों?)
इतना ही नहीं, राजद्रोह का आरोप लगाते हुए पुलिस ने इक्कीस लोगों को बंदी बनाया। इन नेताओं पर राजद्रोह के साथ-साथ चरणपादुका काण्ड के लिए उत्तरदायी माना गया। सुकदेव (ग्राम डहर्रा), हरप्रसाद (ग्राम डहर्रा), लल्लूराम शर्मा (ग्राम बम्हौरी), प्राण महतों (ग्राम भिड़़का), भीकम (ग्राम भिड़का), जवाहरलाल (ग्राम पठा), सुम्मे महता (ग्राम पठा), मल्लसिंह दउवा (ग्राम गिलौहा), सरजू दउवा (ग्राम गिलौंहा), दिलइयां (ग्राम गिलौंहा), अच्छे दउवा (ग्राम गिलौंहा), रामसिंह दउवा, बच्चा दउवा, (दोनों ग्राम गिलौंहा), बृन्दावन दउवा, बलदेव दउवा, शिवदयाल, गयाप्रसाद, नंदकिशोर दउवा(सभी ग्राम नांद), मन्ती, (ग्राम पठा), गंगाप्रसाद (ग्राम गिलौंहा), तथा बुल्ला सुनार,(ग्राम कंदैला), पर छतरपुर के नाजिम फजलुल हक के न्यायालय में केस चला। न्यायालय ने सभी को दोषी मानते हुए तीन से चार वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड दिया ।
जलियॉ वाला बाग में जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियाँ चलवाकर अपने सरकारी कर्मचारी के पदीय दायित्व को पूरा किया, राजभक्ति का निर्वहन किया। परन्तु चरणपादुका काण्ड का हत्यारा फिशर तो आपने आदर्श-डायर का भी बाप निकला। फिशर केवल नरसंहार से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने नरसंहार के पश्चात स्वराजियों के घरों को लूटने की खुली छूट सेना को दे दी । उछ्रंखल सेना ने घरों को जी भर कर लूटा और गांवों को आग के हवाले किया। ईश्वर ने कृपा की कि बहू-बेटियों की अस्मिता सुरक्षित रही।
अंग्रेजी शासन तथा राजे-राजवाडों के कुत्सित गठबंधन के विरुद्ध चरणपादुका आंदोलन जनता के द्वारा किया गया स्वप्रेरित आंदोलन था। गरीब -अमीर, निम्न वर्ग- उच्च वर्ग -सारे बंधन टूट गये थे । इस आंदोलन में गनेशा चमार जैसे तथाकथित निम्न वर्ग और गोकुल प्रसाद शुक्ल जैसे ब्राह्मण का शहीदी रक्त एक हो गया था। इस आंदोलन की एक और मौलिकता थी। अधिकांश जमींदारी ठाकुरों और ब्राह्मणों के पास थी। फिर भी अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध इन वर्गो का स्वर मुखर रहा।
स्वतंत्रता के वर्षो पश्चात इतिहास का यह विलुप्तप्राय पृष्ठ पढ़ा गया। तत्कालीन रक्षा मंत्री बाबू जगजीवनराम ने 8 अप्रैल 1978 को इस स्थल पर शहीद स्मारक की आधारशिला रखी और बुंदेलखण्ड के जलियॉवाला बाग चरणपादुका के बलिदानियों के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।चरणपादुका काण्ड की तिरपनवीं बरसी पर 14 जनवरी 1984 को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने शहीद स्मारक को लोकार्पित किया।