संघर्ष और शौर्य : मनु से झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई बनने तक का सफर

निखिलेश महेश्वरी

Update: 2021-06-18 10:32 GMT

वेबडेस्क। सती होने से अच्छा है नारी शस्त्रु से युद्ध भूमि में उसका दमन करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग करे। भारत के इतिहास को जब हम अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है देश के लिए बलिदान एवं अपने को समर्पित करने वाले पुरुषों के साथ साथ अपने जीवन का सर्वोत्कर्ष बलिदान करने वाली महिलाओं की एक बड़ी श्रृंखला दिखाई देती है। इसमें भारत के प्रत्येक प्रांत में बलिदान एवं क्रांति की अलख जगाने वाली महिलाएं हर जाति वर्ग की रही है। बलिदान के साथ ही समाज के हर क्षेत्र में अपने कार्य का इस देश की महिलाओं ने लोहा मनवाया है। धार्मिक क्षेत्र में सती, सीता सावित्री, अनसूया मार्गी, गण्डगी मीराबाई को श्रद्धाभाव से याद किया जाता है, समाज कार्य एवं न्यायप्रियता में जीजाबाई, अहिल्याबाई का नाम बढ़े ही आदर के साथ लिया जाता है, बलिदान देने में रानी पद्मिनी हाही रानी, पन्नाधाय के बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता, वीरता एवं नेतृत्वकर्ता के रूप में रानी दुर्गावती अवतिकाबाई, रानी चैन्नम्मा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से हम सब परिचित है अगर वर्तमान में भी देखे तो आज भी जारी शक्ति अपने कार्य के कारण अनेक क्षेत्रों में समाज का नेतृत्व कर रही है। ऐसी सभी विदुषी महिलाएं हमेशा देश ही नहीं विश्व की नारी शक्ति को प्रेरणा देती रहेंगी इतिहास में नारी शक्ति का कुशल नेतृत्व कर अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर अपना बलिदान देने वाली अमर बलिदानी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से जन-जन परिचित हैं।

यह मर्दानी झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई थी जिनका जन्म 19 नवंबर सन् 1835 काशी में हुआ था। उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया पर सभी उनको प्रेम से 'मनु' कहते थे। चार वर्ष की आयु में ही उनकी मां का स्वर्गवास हो गया था उसके बाद उनके पिता मोरोपंत ताम्बे (पेशवा के मुंशी थे) मनु को लेकर बाजीराव पेशवा द्वितीय की शरण में विठूर आ गये। बाजीराव पेशवा की कोई संतान न होने के कारण उन्होंने एक बालक गोद ले लिया था जो आगे चलकर नानासाहेब पेशवा के नाम से विख्यात हुए। विठूर में मनु की चंचलता, चुलबुलापन नाना को बहुत भाया और वह उसे छोटी बहन की तरह रखकर उसे "छबीली" कहकर पुकारते थे और एक राजकुमारी की तरह रखते थे इस कारण से मनु नाना, तात्या (तात्याटोपे) के साथ घुड़सवारी, शस्त्रों का संचालन, जंगल में शिकार युद्ध का अभ्यास व्यूह रचना एवं नेतृत्व करने के गुणों में विकसित हो गई। उसकी चपलता, कुशाग्र बुद्धि एवं साहस को देखकर सब लोग उसके कायल हो जाते थे। इन्ही गुणों के कारण, मनु का 14 वर्ष की आयु में झांसी के महाराजा गंगाधरराव से विवाह संपन्न हुआ और उसे नया नाम लक्ष्मीबाई मिला और वह मनु से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई' हो गई। विवाह के पश्चात लक्ष्मीबाई गंगाधरराव के साथ राजकाज में सहभाग करने लगी एक बार गंगाधरराव के वाचा रघुनाथराव की पत्नी वैश्या से उत्पन्न पुत्र शमशेर बहादुर ने राज्य सभा में महाराज का अनादर किया तो लक्ष्मीबाई उसे सहन नहीं कर शौर्य पाई, उसे तुरंत कठोर दण्ड देकर राज्य से निष्कासित कर दिया। इस घटना से झांसीवासीयों में लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व की छवि (बाईजी) के रूप में स्थापित हो गई।

स्त्री सेना - 

रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझते हुए राज्य के सभी लोगों से घुलना मिलना प्रारंभ कर दिया । विशेष रूप से स्त्रीयों से मित्रता कर अपने विचारों के अनुकूल सुन्दर गुन्दर, जूड़ी, झलकारी, काशीबाई, मोतीबाई नाम की सहेलियों को घुड़सवारी, शस्त्र संचालन और युद्ध अभ्यास के लिए तैयार करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार लक्ष्मीबाई ने एक स्त्री सेना तैयार की जो आपात स्थित आने पर युद्ध भूमि में अंग्रेजों से सामना कर सके आगे चलकर इस स्त्री सेना ने लक्ष्मीबाई जैसा चाहती थी वैसा ही कर अंग्रेजी सेना को धूल चटाई। उन्होंने अपनी स्त्री सेना का प्रदर्शन महाराज गंगाधरराव के सामने किया। प्रदर्शन के पश्चात महाराज ने लक्ष्मीबाई की प्रशंसा में कहा "लक्ष्मीबाई आपके अंदर सरस्वती और दुर्गा दोनों समान रूप से है अभी तुम सरस्वती दिख रही हो और शस्त्र संचालन के समय तुम दुर्गा के रोद्र रूप में दिखाई दे रही थी। तब लक्ष्मीबाई ने कहा "सती होने से अच्छा है नारी शस्त्रु से युद्ध भूमि में उसका दमन करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग करे।" लक्ष्मीबाई को लगने लगा था कब कैसा अवसर आये कोई नहीं जानता इसलिए युद्ध स्थिति में महिला सेना द्वितीय रक्षा पंक्ति का काम करेंगी।

दामोदर राव का जन्म - 

झाँसी  में जब पता चला की लक्ष्मीबाई मां बनने वाली हैं तो गंगाधरराव उत्साह से भर गए । सन् 1852 में लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया सबसे अधिक प्रसन्नता महाराज को हुई क्योकि झांसी को उसका उत्तराधिकारी मिल गया था, गंगाधरराव ने देखा झांसी में सभी घरो पर दिये जल रहे हैं केवल एक ही घर रोशन नहीं था वह था झांसी में रहने वाले अंग्रेज प्रतिनिध मेजर मालकम का निवास, गंगाधरराव ने कहा शायद उस अंग्रेज को झांसी की खुशी पसंद नहीं आई और गुस्से में आकर कहा कल हमारी और से उस अंग्रेज के घर को भी रोशन करें। इस प्रकार अंग्रेज अधिकारी भारतीय राजाओ का अपमान करते रहते थे। गंगाधरराव सब काम करने में ऐसे रूची लेने लगे जैसे वह पुनः जवान हो गए हो पर यह खुशी अधिक समय तक नहीं रही और दामोदरराव की चार महीने में मृत्यु हो गई। गंगाधरराव एकदम टुट गए और राजकाज में भी भाग लेना बंद कर दिया था। ऐसी स्थित में गंगाधरराव और लक्ष्मीबाई ने अपने रिस्तेदार के पांच वर्ष के बालक आनंदराव को दत्तक पुत्र गोद लिया, गोद लेने की परंपरा के बाद उसका नाम दामोदरराव रखा गया । लक्ष्मीबाई को लगा था शायद इससे गंगाधरराव का मन लग जाएगा पर नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था, गंगाधरराव जी का स्वास्थ्य अधिक खराब रहने लगा एक दिन उन्होंने लक्ष्मीबाई को बुलाकर कहा "झांसी को संभालकर रखना झांसी तुम्हारी हैं। कुछ दिनों पश्चात 21 नवंबर 1853 को गंगाधरराव का स्वर्गवास हो गया। इसका फायदा उठाकर अंग्रेजों ने दामोदर को उनका उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर 7 मार्च 1854 को झांसी राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का आदेश दे दिया। रानी ने कहा "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी" रानी यह निधयी साहसी, कुशल राजनीतिज्ञ थी, धैर्य रखकर किस समय क्या करना है यह वह अच्छी तरह जानती थी। अंग्रेजो ने उन्हें झांसी खाली करने का हुक्म दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी झांसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर यह भी के रानी महल भवन में रहकर राज्य का संचालन करने लगी। रानी लक्ष्मीबाई वकील जोन लेंग के माध्यम से अपने अधिकार के लिए इंग्लैंड की आदालत में भी मुकदमा चलाया पर वह सफल नहीं हो पाई क्योंकि अंग्रेज राज्य हड़पने की नीति पर ही काम कर रहे थे। ओरछा के तात्कालिक शासक ने झांसी पर अधिकार करना चाहा और आक्रमण कर दिया, लेकिन लक्ष्मीबाई की कुशल रणनीति में उलझकर अपनी जान बचाकर जेसे तेसे निकल पाया।

सैनिक विद्रोह -

1857 में मेरठ की छावनी में मंगल पांडे नाम के सैनिक ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह खड़ा कर दिया। जिसका समाचार पूरे भारत में आग की तरह फैल गया। लक्ष्मीबाई ने भी विशेष दरबार बुलाकर कहा " आप लोगो ने सुन लिया होगा मेरठ, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली आदि की छावनियों में सैनिक विद्रोह प्रारंभ हो चुका है। लगता है झांसी भी रंग दिखाए बिना न रहेगी।" और ऐसा ही हुआ क्रांतिकारियों ने झाँसी के किले पर कब्जा कर किला लक्ष्मीबाई को समर्पित कर दिया। लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से अनावश्यक युद्ध लड़ने के स्थान पर समय का इंतजार करना चाहती थी।  इसलिए राज्य के झंडे के साथ उसने किले पर अंग्रेजी झंडे को भी फहराया और अंग्रेज भी अभी अपनी लड़ाई लड़ने में लगे थे इसलिए वह भी उस समय शांत रहे ।

रानी - ह्यूरोज युद्ध - 

1858 के जनवरी माह में अंग्रेज सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। जनरल ह्यूरोज रानी को उकसाकर युद्ध करने के लिए रानी को मजबूर करना चाहता था इसलिए रानी को उकसाने लिए उपहार में हथकड़ी भेजी हमारी और से रानी के लिए सही समझ गई और उसका उपहार उसे वापस भेज दिया। दो सप्ताह की लड़ाई के बाद अंग्रेज सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झांसी से भाग कर 102 मिल का रास्ता तय कर कालपी पहुंची पर उसका विश्वस्त घोड़ा मारुत अपनी रानी को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाकर वीरगति को प्राप्त हुआ। सनी कालपी में तात्या टोपे से मिली और आगे की रणनीति जाना और तात्या के साथ मिलकर बनाई नाना ने अपनी सेना को लक्ष्मीबाई को सहयोग में देना तय किया। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया पर अधिक समय तक रानी ग्वालियर नहीं रहना चाहती थी। 

ग्वालियर पर कब्ज़ा - 

18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में अंग्रेज सेना और लक्ष्मीबाई की सेना में भयंकर युद्ध हुआ, रानी के पास अधिक सेना नहीं थी इसलिए वह उस युद्ध से बहार निकलना चाहती थी और एक नाला पार करने के लिए घोड़े को एड लगाई पर घोड़ा कूद नहीं पाया लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई घायल हो गई उनका सर फट गया था एक गोली लगी थी और वह घोड़े से गिर गई, पास एक मंदिर में उनके साथी लक्ष्मीबाई को लेकर गये वह रहने वाले संत ने उन्हें गंगाजल पिलाया लक्ष्मीबाई ने कहा "मेरा शरीर अंग्रेज न पाये और वह वीरांगना स्वतंत्रता समर की चिंगारी को और अधिक प्रज्वलित कर यह संसार छोड़कर ईश्वरधाम चली गई। लड़ाई की रिपोर्ट में अंग्रेज जनरल यूरोज़ ने टिप्पणी की कि "रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी।"

अंतिम टिप्पणी - 

रानी लक्ष्मीबाई की वीरगति होने के पश्चात कैप्टन केलेमन वोकर हेनिस ने लिखा "हमारा विरोध खत्म हो चुका था सिर्फ कुछ सैनिक से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला सैनिकों में जान फूंकने की कोशिश कर रही थी बार बार इशारों और तेज आवाज से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास कर रही थी लेकिन उसका कुछ खास असर नहीं पड़ रहा था। हमारे एक सैनिक की कटार की तेज धार से उनके सिर पर चोट लगी और कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर काबू पा लिया था, बाद में पता चला वह महिला और कोई नहीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।"

बलिदान जनमानस के लिए विस्मृत 

उस वीरांगना के विषय में अंत में यही पंक्तियां हैं। रानी झाँसी लक्ष्मीबाई की संघर्ष गाथा ओर बलिदान जनमानस के लिए विस्मृत नहीं वर्तमान काल में नारी सशक्तिकरण, नेतृत्व व संगठनतमक राजनीतिक प्रशासनिक कुशलता का जो परिचय रानी लक्ष्मीबाई ने दिया वह स्तुत्य हैं. उनके रणकुशलता वीरता अदम्य साहस की अंग्रेजी शासन ने भी प्रसंशा की है । वस्तुतः अंग्रेज साम्राज्य के लिए वो भय का पर्याय थी। रानी लक्ष्मीबाई भारतीय इतिहास वर्तमान और भविष्य के लिए सदा प्रेरणापुंज रहेगी। वर्तमान में नारी शक्ति और उनकी स्थिति को लेकर चलने वाले विषयों के लिए यह एक प्रत्युत्तर भी है की जब 18 वीं सदी में पश्चिम में जहाँ नारी पशुजन्य समझी जाती थी उस काल विशेष में एक नही अनेको भारतीय महिला नारी शक्ति के रूप न सिर्फ समाज, धर्म अर्थ राजनीति ही नही रण क्षेत्र में अपनी शक्ति का परिचय दे चुकी थी.. माता लक्ष्मीबाई तो उसी माँ भवानी के रूप का अनुवर्तन करती प्रतीत हो।  

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी।

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