लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है। संभवतः यह पहला ही अवसर था जब मैं ग्वालियर से अहमदाबाद अकेले ही यात्रा कर रही थी। प्रायः दोनों बच्चे साथ हुआ ही करते थे लेकिन उस बार मुझे अचानक जाना पड़ गया। लंबी दूरी की ट्रेन थी, सो रात का खाना भी साथ था। लेकिन मारे संकोच के मुझसे खाया ही नहीं गया। एक आंटी जी को पैरों में परेशानी थी तो रात में उन्हें लोअर बर्थ देकर, मैं उनकी ऊपर वाली बर्थ पर चली गई थी। अब भूखे पेट नींद तो क्या ही लगती! सुबह साढ़े पाँच बजे तक सहनशक्ति भी जवाब दे गई। मैंने अलसुबह ही अँधेरे में बिना कोई आवाज किए पूड़ी-सब्जी खा ली। खाई क्या, बस ये समझिए कि निगल ही ली। खाते समय यही भाव मन में आता रहा कि कोई देख न ले। किसी प्रकार की कोई ध्वनि न निकले। न जाने यह अपराध बोध क्यों था!
बात आई-गई हो गई। 2015 में मुझे बेटे के साथ मनिपाल जाना था। वहाँ से लौटी तो पहले उडुपि से मंगलौर हवाई अड्डे तक आना था। उसके बाद मंगलौर-मुंबई और मुंबई-अहमदाबाद की फ्लाइट थी। फ्लाइट में कुछ खाया नहीं था तो मुंबई आने के बाद फिर वही पूर्व वाली मनःस्थिति से सामना हुआ। लेकिन भूख के आगे किसका जोर चलता है भला! जैसे-तैसे फूड कोर्ट में जाकर बैठी। चारों तरफ नजरें दौड़ाईं तो देखा सभी खाने में या लैपटॉप पर व्यस्त हैं। मैंने उठकर ऑर्डर किया और अपनी ट्रे लेकर खाने बैठ गई। संकोच इस बार भी था लेकिन इस बार मैं सोचने पर मजबूर हो गई। आखिर इसमें गलत क्या है!
बाद में मैंने कुछ मित्रों से इस विषय पर बात की तो ज्ञात हुआ कि लगभग सभी इस स्थिति से कभी-न-कभी गुजरीं हैं। कुल मिलाकर आम मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्रियाँ घर के बाहर अकेले कुछ भी खाने में सहज नहीं हैं। वे एक अजीब किस्म की सकुचाहट से भर जाती हैं। हमारे घर की बड़ी स्त्रियाँ आज भी इसी मानसिकता को जी रही हैं। जबकि मैं यह पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि हमें किसी ने नहीं सिखाया कि अकेले बाहर खाना बुरा है। लेकिन हुआ यह है कि हम उस समय की पैदाइश हैं जब बाहर खाने का इतना प्रचलन नहीं था और न ही स्त्रियों का अकेले यात्रा करना इतना सामान्य हुआ करता था। कोई-न-कोई सदा ही हमारे साथ रहा। रेस्टोरेंट भी गए तो सपरिवार या मित्रों के साथ। गोलगप्पे भी तब ठेले पर खड़े होकर नहीं खाते थे बल्कि घर मँगवा लिए जाते थे या खुद बनाते थे। बड़े हुए तो मेले में भी सहेलियों के साथ ही चाट या सॉफ्टी खाई। हमें साथ की आदत हमेशा से है और हर बात में है। इसलिए अकेले जाने में डर आज भी लगता है और बाहर अकेले खाना भी अच्छा नहीं लगता। जबकि लड़के बड़े आराम से कभी भी, कहीं भी खड़े होकर अपनी पसंद का खा-पी लिया करते हैं। कहीं भी आते-जाते हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि हम सशक्तीकरण की बात करते हैं तो यह भी आवश्यक है कि हम अकेले बेझिझक किसी रेस्टोरेंट में अपने मन का खाना भी सीख लें। पूरा स्वाद लेकर खाएं। यूँ धुकधुकी न लगे कि हाय! कोई देखेगा तो क्या सोचेगा! क्योंकि कोई कुछ नहीं सोचेगा। सारा मायाजाल हमने निरर्थक बुन रखा है। हमारी सोच को हमने ही जकड़ा हुआ है। हमारी राह में सबसे बड़ी बाधा हम स्वयं ही हैं। यदि आप भी उन्हीं स्त्रियों में से हैं तो कृपया इससे निकलिए। मैं निकल चुकी हूँ। इसलिए स्पष्टतः कह पा रही हूँ।
- प्रीति 'अज्ञात'