यूपी में जातीय गोलबंदी पर केंद्रित होगा लोकसभा चुनाव, अयोध्या बनेगा केंद्र
- विपक्ष कर रहा चुनावी माहौल को 'अगड़ा बनाम पिछड़ा' बनाने की तैयारी
- लोकसभा चुनाव से पहले सपा तैयार कर रही जातीय ध्रुवीकरण के लिए जमीन
- 'स्वामी' को कमान सौंपने के पीछे छिटकते पिछड़ों को जोड़ने की सपाई कवायद
लखनऊ/वेब डेस्क। 2024 का मुख्य महासंग्राम उत्तर प्रदेश में अयोध्या पर केंद्रित होगा। जनवरी, 2024 में अयोध्या के भव्य राम मंदिर को लोकार्पित कर दिए जाने की तैयारी है। इसलिए सत्ता पक्ष भाजपा के पास राम मंदिर के रूप में सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है। मुख्य विपक्ष सपा ने राम मंदिर से भाजपा के पक्ष में उपजने वाले सकारात्मक माहौल की काट तलाशने के लिए 'रामचरितमानस' को सहारा बनाया है। पिछड़ी जातियों की गोलबंदी के लिए 'सपा मुखिया' अखिलेश यादव ने बसपा-भाजपा के रास्ते पार्टी में आए मौर्य को 'स्वामी' मान लिया है। बयान वीर 'स्वामी' को पुरस्कृत कर राष्ट्रीय महासचिव बनाए जाने के पीछे यह सबसे बड़ी वजह है। अब स्वामी खुलकर माहौल को अगड़ा-बनाम पिछड़ा बनाने में जुट गए हैं।
रामचरितमानस पर विवादित बयान देने के बाद माना जा रहा था कि स्वामी को अखिलेश दंड मिलेगा। सपा में भी एक बड़ा धड़ा स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस बयान को रामचरितमानस का अपमान बता रहा था। हालांकि हुआ इससे उलट अखिलेश ने मौर्य को प्रमोशन देकर 'स्वामी' को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर दिया। शिवपाल यादव और आजम खान भी राष्ट्रीय महासचिव हैं, लिहाजा अब पार्टी के अंदर अखिलेश यादव ने स्वामी प्रसाद मौर्य का कद अपने चाचा शिवपाल और पार्टी के सबसे बड़े मुस्लिम नेता आजम के बराबर कर दिया है। स्वामी के जेबी संगठन महासभा ने रामचरितमानस की प्रतियां जलाने की दुष्कृत्य उनके इशारे पर ही किया है। विधानसभा चुनाव में खुद की जमानत जब्त करवा चुके स्वामी ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए श्रीरामचरितमानस की मनमानी व्याख्या करके हिंदू धर्म को क्षति पहुंचाने का काम किया। इससे सपा दो खेमों में बंटी नजर आ रही है। महिला मोर्चे की राष्ट्रीय अध्यक्ष जूही सिंह ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर अपनी असहमति व्यक्त कर इसका संदेश भी दिया है।
हिन्दू ध्रुवीकरण होने की आशंका से भयभीत हैं अखिलेश
भाजपा के पक्ष में हिन्दू ध्रुवीकरण होने की आशंका ने अखिलेश यादव को भयभीत कर रखा है। विधानसभा चुनाव 2022 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद से गठबंधन के बावजूद मुंह की खाने वाले अखिलेश यादव की जुबान का स्वाद अब भी कसैला बना हुआ है। उन्हें इस बात का भान है इसलिए उन्होंने एक सोची-समझी रणनीति के तहत स्वामी के सहारे पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के ध्रुवीकरण की रणनीति बनाई। इसके लिए उन्होंने भी 85 बनाम 15 प्रतिशत का जुमला उछाला है। श्रीरामचरितमानस की प्रतियां जलाए जाने से पहले अखिलेश यादव ने एक बयान भी दिया था, जिसमें उन्होंने योगी आदित्यनाथ से कहा है कि वो स्वयं एक महंत हैं इसलिए उनको वो चौपाइयां पढ़कर दिखानी चाहिए। अगर उनकी हिम्मत है तो उन चौपाइयों को पढ़कर दिखा दें यानी अखिलेश यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य एक साथ श्रीरामचरितमानस के विरोध में खड़े हो गए। इस तरह इन्होंने श्रीरामचरितमानस को 2024 के चुनाव में मुद्दा बनाने का फैसला भी कर लिया है।
जनवरी में लोकार्पित होगा राम मंदिर : 1 जनवरी 2024 को श्री राम मंदिर का लोकार्पण प्रस्तावित है। बीजेपी श्री राम मंदिर को सबसे बड़ा मुद्दा बना सकती है। इसलिए अखिलेश सेना ने अब फैसला किया है कि श्रीरामचरितमानस की चौपाइयों की मनमानी व्याख्या करके श्रीराम को अपमानित करके हिंदू धर्म को तोड़ कर वोट बटोरने का काम किया जाए। यह वही अखिलेश हैं जो 2022 के विधानसभा चुनाव में हिंदुओं को और खासकर ब्राह्मणों को लुभाने के लिए फरसा लेकर पूरे उत्तर प्रदेश में घूम रहे थे। जब वोट लेने का समय होता है तब अखिलेश परशुराम के भक्त बन जाते हैं और जब काम निकल जाता है तो अखिलेश यादव और समर्थक गोस्वामी तुलसीदास को तुलसीदास दुबे कहकर ब्राह्मणों को चिढाने का काम करते हैं।
विधानसभा में भी दो-दो हाथ की तैयारी : सपा मुखिया अखिलेश अब स्वामी के समर्थन में खुलकर कूद पड़े हैं। कुछ दिन तक उन्होंने श्रीरामचरितमानस पर मचे शोर से खुद को दूर रख सियासी तापमान का अंदाजा लगाया। राजनीतिक लाभ के लिए अखिलेश अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी इस विवाद में घसीटना चाह रहे हैं। अखिलेश यादव विधानसभा में योगी से उक्त चौपाई का अर्थ पूछेंगे और यह भी पूछेंगे कि शुद्र की श्रेणी में कौन कौन जातियां आती हैं। वह पुनः पिछड़े वर्ग की राजनीति पर फोकस करना चाह रहे हैं। जातीय जनगणना का मुद्दा उछालना हो या राष्ट्रीय कार्यकारिणी और संगठन के जातीय समीकरण इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। उनके 2022 के प्रयोग को आंशिक सफलता मिली और सपा 100+ सीट झटकने में सफल रही। पश्चिम यूपी ने कुछ हद तक थाम लिया था, जबकि पूर्वांचल में तो बीजेपी कई जिलों में साफ हो गई।
कहीं नुकसान में न डाल दे अखिलेश की प्रयोगधर्मिता
अखिलेश प्रयोगधर्मी हैं। पहला प्रयोग उन्होंने 2017 में किया तो सपा गर्त में चली गई। दूसरा प्रयोग 2019 का आम चुनाव था, जब दो धुर-विरोधी एक साथ हो गए। फिर तो अखिलेश को अपनी सीट तक संकट में आती दिखी। बाकी जो नतीजा रहा है उस पर तो खुद उन्होंने कहा था कि वे इंजीनियर हैं तो प्रयोग करते रहते हैं। सो 2022 में भी किए और स्वामी ने सपा की साइकिल का खेल बिगाड़ दिया। ऐसा सपा के गठबंधन सहयोगियों का कहना है। उसमें एक केशव देव मौर्य भी हैं। अब फिर अखिलेश जी प्रयोग पर उतरे हैं। नीतीश ने जो लौ जलाई है बिहार में उसे थाम लिया है। मंडल को मथने की दोबारा कवायद शुरू हो गई है। पर सवाल यह है कि क्या यह 1990 के दशक जैसा कमंडल के खिलाफ यूपी में कारगर होगा। यह सवाल इसलिए भी उठता है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं मंडल का प्रतीक हैं और उनका दल कमंडल का। तो इस तरह से मंडल के हाथ में कमंडल हैं। सीएसडीएस एजेंसी के मुताबिक, लोकसभा चुनाव में उनके जातीय समूह का एक हिस्सा भाजपा के साथ जुड़ जाता है। फिर जिन्हें जोड़ने की कवायद स्वामी के सहारे अखिलेश कर रहे हैं उसमें भी एक वर्ग हिन्दुत्व की धारा में बह रहा है। ऐसे में कहीं अखिलेश का यह प्रयोग उलट न पड़ जाए।
मुसलमान और राजभर में बिखराव है अखिलेश की बड़ी समस्या : अखिलेश यादव की समस्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश है। यह उनका सबसे बड़ा संकट है। वह इसलिए, क्योंकि न गढ़ बचा और न मूल। मूल की बात के तो इमरान मसूद ने जो खेल शुरू किया है, उससे सपा का संकट और बढ़ रहा है। कम से कम सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क के बयान के बाद तो लग रहा है कि बड़ा उलटफेर होने वाला है। फिर भारत जोड़ो यात्रा के दरमियान कैराना में उमड़ा जनसैलाब भी बहुत कुछ कह रहा है। बसपा और कांग्रेस दोनों जुटी हैं, उसमें सपा के हाथ क्या लगेगा यह सवाल तो रहेगा ही। जहां तक बात गढ़ की है तो उसके नतीजों ने यादव कुनबे को के माथे पर सिकन ला दी थी। उप चुनाव में मैनपुरी की जीत ने कुछ उम्मीद कुनबे में जगाई है। पर क्या वह नरेंद्र मोदी के आगे टिकी रह पाएगी सवाल बड़ा है। बात पूरब की करें तो उसमें ओमप्रकाश राजभर बड़ा फैक्टर रहे हैं। छठवें और सातवें चरण में सपा के पक्ष में माहौल अकेले राजभर ने गढ़ दिया था। वह तो अब साथ हैं नहीं। दूसरा, विधानसभा चुनाव में अगड़ा बनाम पिछड़ा का माहौल भी बना था। नरेंद्र मोदी जब मैदान में उतरेंगे तो क्या पूरब में यह फैक्टर चल पाएगा, यह भी एक सवाल है।