राजनीति में शुचिता के प्रहरी थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय
प्रो. हरिशंकर सिंह कंसाना
आज के संचार क्रांति संपन्न युग में भी एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल जी की विचार निधि पर्याप्त रूप से जनसामान्य तक पहुंच पाई है यह कहना कठिन है | एक तो अच्छाई का विचार समाज में सदैव देरी से स्वीकृत होता है और राजनीति के क्षेत्र पर विचार हो तो सात्विक प्रवृत्ति के लोग इससे दूरी बनाए रखने में कुशल मानते हैं |आज की राजनीति के लिए मानो 'साम-दाम-दंड-भेद' ही ब्रह्म वाक्य हो गया हो ऐसा लगना भी स्वाभाविक है |
पंडित दीनदयाल भारतीय मनीषा के आधुनिक व्याख्याकार और चिंतक ही नहीं थे बल्कि दिव्य-दूरदृष्टि वाले महान राजनेता भी थे | भारत की प्रकृति और परंपरा के अनुकूल वे एक ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जिसमें राष्ट्र सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ हो सके| उन्होंने 'राष्ट्रनीति' के लिए राजनीति में पदार्पण किया | वह हमेशा कहते थे कि सत्ता उनके हाथों में दी जानी चाहिए जो राजनीति का उपयोग राष्ट्रनीति के लिए कर सकें | राष्ट्रीय संकट की घड़ी में सरकार को कठिनाई में डालकर अपना स्वार्थ सिद्धि उनकी राजनीति में नहीं थी इसीलिए 1962 में चीन द्वारा आक्रमण किए जाते ही उन्होंने उत्तर प्रदेश में जनसंघ का किसान आंदोलन बिना शर्त स्थगित किया |
सस्ती लोकप्रियता और वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेता समाज में वर्गीकरण खड़ा करके उपासना पद्धतियों ,संप्रदायों , भाषाई भिन्नता, आर्थिक आधार को लेकर स्वतंत्र वर्ग खड़ा कर देते हैं | जब तक इन सभी वर्गों के स्वतंत्र अस्तित्व को मानकर संतुष्ट करने की नीति पर अहंकार और स्वार्थ की राजनीति घोषित होगी तब तक राजनीति की दिशा अपनी दिशाऐं खोती जाएगी | दीनदयाल जी मानते थे कि संप्रदाय ,भाषा ,प्रांत ,वर्ग आदि का महत्व तभी तक होता है जब तक कि वह राष्ट्रहित के लिए अनुकूल होते हैं | वह वैसे ना रहे तो उनकी बलि चढ़ा कर भी राष्ट्र की एकता की रक्षा की जानी चाहिए |
पंडित जी ने माना कि राजनीतिक क्षेत्र के संबंध में जनता के मन में अनास्था का विचार प्रबल होना एक संकट है | इस स्थिति को बदलना होगा | भारत की राजनीति सिद्धांतहीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन जाएगी यह स्थिति जनतंत्र के लिए ठीक नहीं | कुछ नेताओं को एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने मे कोई संकोच नहीं होता क्योकिं यहाँ दलों के विघटन एवं युक्ति किसी तात्विक मतभेद व समानता के आधार पर नहीं होकर उसके मूल में चुनाव और पद ही प्रमुख रूप से रहते हैं |
भारतीय राजनीति में भी सिद्धांतों के संबंध में आज फिर से विचार करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई है |स्वार्थ लोलुप और निरंकुश व्यवस्था राष्ट्र जीवन में बहुत से दोष उत्पन्न कर देती है| आज राष्ट्र को आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी बनाने सद्गुणी, स्वार्थरहित, त्याग -तपस्या से जीवन व्यतीत करने वाले राजनीतिक प्रहरी चाहिए | ऐसे प्रहरी जो संपूर्ण जनसमाज के प्रति ममत्व की भावना रखकर एकात्मता का परिचय देते हो| ऐसे प्रहरी जो नीति- निर्माण व नीति क्रियान्वयन करते समय राजनीति की शुचिता पर विचार करते हो और मानते हो कि स्वार्थ स्वार्थपरक भावना हमारे मन में रही तो हमारी राष्ट्रीयता केवल चोर और डाकुओं के गठबंधन के समान हो जाएगी |
राज व्यवस्था और राजनेताओं का उद्भव मूलतः राष्ट्र के रक्षण के लिए हुआ है |वे धर्म की अवहेलना करके नहीं चल सकते क्योंकि शाश्वत मूल्य यथा दया, क्षमा, परोपकार, राष्ट्रानुराग, त्याग की भावना, सात्विकता के रूप में संरक्षित धर्म हमारे संपूर्ण जीवन को व्याप्त किए हुए है | धर्मराज्य में भूमि की एकता अखंडता और उसके प्रति श्रद्धा प्रमुख रूप से विद्यमान रहती है | एकात्म मानव दर्शन पर आधारित धर्मराज्य मोबोक्रेसी हो या ऑटोक्रेसी दोनों की बुराइयों से दूर है | इसके सिद्धांत किसी किताब पर आधारित न रहकर द्वंद्वातीत महापुरुषों की तपस्या द्वारा सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का अंतर्दृष्टि से साक्षात्कार करने के उपरांत निश्चित होते हैं |
राजनीति के क्षेत्र में अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन है कि हमें 'स्व' पर विचार करने की आवश्यकता है | जब तक हमें अपनी वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो अपने सामर्थ्य का ज्ञान नहीं हो सकता क्योकि परतंत्रता में 'स्व' दब जाता है|| राष्ट्र अगर आत्मनिर्भर नहीं; नीतियों के मामले में स्वतंत्र नहीं; आर्थिक मामलों में पिछलग्गू है तो ऐसा राज्य विनाश का कारण बन जाता है | भारतवर्ष की अति प्राचीन सनातन राष्ट्रजीवन की आधारभूत मान्यताओं को ठुकराकर यदि हम बैठेंगे और तर्कयुक्त निष्कर्षों को तिलांजलि दे देंगे तो हमारे हाथ कुछ नहीं लगने वाला |
भारत के उज्जवल अतीत से प्रेरणा लेकर उज्जवलतम भविष्य का निर्माण हो सके इस प्रयास में जीवन खपाने वाले अजातशत्रु पंडित दीनदयाल जी के लिए राजनीति साधना थी साध्य नहीं | जहाँ दरिद्रता और दैन्य का साम्राज्य हो; जहाँ निरक्षर निस्साहसी और किंकर्तव्यविमूढ़ मानव की पांव की दवाई फटी हुई हों; उस दरिद्रनारायण को एक स्वस्थ एवं सुंदर समाज का दर्शन करा सकें यह सोच आज हर राजनेता के मन में होना चाहिए |
आइए ! दीनदयाल जी के रक्त की एक -एक बूंद को माथे का चंदन बनाकर शुचिता की राजनीति के सुपथ पर अग्रसर हो | उस दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाकर कर्मभूमि मे कूदें और इस पवित्र भूमि को निष्कंटक बनाएं |
(लेखक : सहा. प्रोफेसर (राजनीति शास्त्र), उच्च शिक्षा विभाग ,म.प्र.)