वेबडेस्क। श्रीराम विष्णु के अवतार हैं। सृष्टि के कथानक में भगवान विष्णु के अवतार लेने के कारणों में भक्तों के मन में आए विकारों को दूर करना, लोक में भक्ति का संचार करना, जन – जन के कष्टों का निवारण और भक्तों के लिए भगवान की प्रीति पा सकने की इच्छा पूरा करना प्रमुख हैं। सांसारिक जीवन में मद, काम, क्रोध और मोह आदि से अनेक तरह के कष्ट होते हैं और उदात्त वृत्तियों के विकास में व्यवधान पड़ता है। रामचरितमानस में इन स्थितियों का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, नीच और अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और अन्याय करने लगते हैं पृथ्वी और वहाँ के निवासी कष्ट पाते हैं तब-तब कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं। एक भक्त के रूप में तुलसीदास जी का विश्वास है कि सारा जगत राममय है और उनके मन में बसा भक्त कह उठता है सीय राममय सब जग जानी करहु प्रणाम ज़ोरि जुग पानी। सारे जगत में चारों ओर राम को देखना भक्ति की पराकाष्ठा भी है और समदर्शी हो कर ऊपर से दिखने वाले विरोधों और उनसे उपजने वाली विपदाओं से उबरने का उपाय भी।
आज के दौर में समानता से ज़्यादा अनोखे, अद्वितीय, सबसे अलग, औरों से कुछ हट कर खुद को दिखने-दिखाने का रिवाज ज़ोरों पर चल पड़ा है। वेश-भूषा, आचार-विचार, बात-व्यवहार सबमें अपने लिए आत्यंतिक फ़र्क़ साबित करना आज श्रेष्ठता का मानदंड होता जा रहा है। हम विविधता का उत्सव मनाने को सदैव व्याकुल रहने लगे हैं। औरों से अलग होना निश्चय ही बहुमूल्य होता है क्योंकि वह नवीनता लाता है। नवीनता मन के लिए रमणीय होती है और इसलिए वह प्रिय भी हो जाता है। नए, यानी जो पहले से भिन्न या अपूर्व है, उसे मौलिक कहा जाता है। उसे समाज में आदर मिलता है और पुरस्कृत भी किया जाता है। कहते हैं सृजनात्मक होने के लिए किसी चीज़ को मौलिक, उपयोगी और प्रासंगिक होना चाहिए। अस्तित्व की मौलिक एकता से विविधता की ओर आगे बढ़ती मनुष्य की दिग्विजय यात्रा निश्चय ही मोहक और चित्ताकर्षक है। परंतु भिन्नता के अति आग्रह या दुराग्रह कुछ कठिन सवाल भी खड़ा करने लगता है क्योंकि सिर्फ़ विविधता और भिन्नता की सिद्धि के लिए विविधता को बढ़ाते जाने से जीवन-यात्रा नहीं सधती।
धरती पर जिस भौतिक दुनिया में हम रहते हैं वहाँ बड़ी भारी मात्रा में नाना प्रकार के पदार्थ मौजूद हैं और वे सभी अपने गुण धर्म में एक दूसरे से अलग भी हैं। मनुष्य जीवन के स्तर पर भाषा, धार्मिक विश्वास, खान-पान आदि में भी यह विविधता व्याप्त है। यह विविधता जिस तरह बढती जा रही है उसका कोई ओर-छोर नहीं दिखता। इसलिए उसकी गणना करना आसान नहीं है। इंद्रियानुभव पर ज़ोर देने वाले वैज्ञानिक युग में इस तरह के विश्लेषण की अंतहीन सम्भावनाएँ हैं और उसके तरह-तरह के परिणाम भी होते हैं।
हमारा शरीर भी अन्यान्य अंगों और उपांगों से बना है और वे सभी भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। हाथ, पैर, आँख, नाक और कान न केवल अपनी रचना में एक दूसरे से भिन्न हैं बल्कि इन सबका अलग-अलग उपयोग है और सामान्यत: एक दूसरे की जगह भी नहीं ले सकते। ये सभी स्वभावत: भौतिक जगत के भिन्न-भिन्न विषयों से जुड़े होते हैं। यह विविधता अनेक तरह के कार्यों को सम्पादित करना सम्भव बनाती है। निश्चय ही क्षमता का यह विस्तार जीवनी शक्ति या प्राणवत्ता से अनिवार्य रूप से जुड़ी होती है । इस तरह विविधता के अंतर्सम्बन्ध को पहचानना जीवन के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।
भिन्नता पैदा करना या भेद देखना चीजों को एक को दूसरे के विपरीत खड़ा करता है। इससे उपजने वाला अलगाव दूरियाँ पैदा करता है और हम जो भिन्न है उसमें दोष-दर्शन करने लगते हैं। दूसरी ओर जो समान लगता है उससे स्नेह, निकटता और मित्रता का रिश्ता बनाने लगाते हैं। धीरे-धीरे समय के साथ भिन्न छिजें कब खिसक कर विरोध के ख़ेमे में पहुँच जाती हैं इसका अंदाज़ा ही नहीं लगता। आज की दुनिया की प्रमुख समस्याएँ भिन्नता और विरोधजनित असंतोष, तनाव और हिंसा के रूप में उभरती दिख रही हैं। अलग नाम का उपयोग पहचान के लिए होता है परंतु यदि वह किसी लाभ से जुड़ जाय तो वह अलगाव का आधार बन कर समानता पर छा जाता है। जब ‘मैंपन’ का अहसास तीव्र होता है और हम अपने अकेले मैं को सबसे परे और सबके ऊपर रखने के लिए उद्यत होते हैं तो समानता ढँकती और बिसरती जाती है। दूसरी ओर भिन्नता प्रखर होती जाती है। तब हम भिन्नता को बचाए और बनाए रखने की कोशिश में लग जाते हैं। मैं के अखंड विस्तार में जो मेरा है उससे जो भिन्न या ममेतर है उसके साथ टकराव खड़ा हो जाता है। मैं का अहंकार फ़ुंफकार मारता है। उसे ‘अन्य’ फूटी आँख भी नहीं सुहाता और तब द्वंद्व का बीजारोपण होता है और कलह की पौध पनपती है।
एक और अनेक के बीच के रिश्ते राचीन काल से मनुष्य की सोच के केंद्र में रही है। पुरा काल के सृष्टि के आख्यानों में एक यह भी है की ईश्वर या परमात्मा को अकेले अच्छा नहीं लग रहा था ( स एकाकी न रमते ) और तब उसने एक से अनेक होने की इच्छा की (एकोहं बहुस्याम् ) और फिर जो भी दूसरा रचा गया उसमें वह स्वयं प्रवेश कर गया। इस आख्यान का एक आशय परमात्मा की उपस्थिति की व्याप्ति को दर्शाना है। ईशावास्योपनिषद भी यही कहता है – ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत् - अर्थात् यह दुनिया ईश्वर की वासस्थली है। इसलिए यहाँ हर जगह ईश्वर की उपस्थिति है। इस विचार की पराकाष्ठा शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत में हुई जिसमें यह प्रतिपादित किया गया - सर्वं खल्विदम् ब्रह्म – अर्थात् जो कुछ है वह ब्रह्म ही है। सर्वव्यापी ब्रह्म, ईश्वर या परमात्मा की संकल्पना जीवन जीने के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी जगत को सीय-राममय कह कर भी सम्भवत: यही भाव व्यक्त कर रहे हैं। वे ‘सारा जगत एक ही तत्व वाला है या एक ही तत्व का प्रकाश है ’ इस विचार की प्रतिष्ठा करते दिखते हैं। वस्तुतः यह मान कर ही सृष्टि मात्र में गुणवत्ता और शक्ति की प्रतिष्ठा हो सकेगी और हम उनका वास्तविक मूल्य समझ सकेंगे। आज हम पृथ्वी, जल, वायु आदि सभी को उपभोग्य वस्तु और खुद को उपभोक्ता मान कर बिना विचारे बहिचक उनका शोषण करते हैं। यह अलग बात है कि अब इस स्वार्थ वृत्ति का हानिकर पहलू उभर कर सामने आने लगा है। यदि पूरा जगत राममय है तो वह भी श्रीराम की ही तरह पूजनीय और वंदनीय हैं। श्रीराम सत्य, तप, तितिक्षा, संतोष, धैर्य, धर्मपरायणता की प्रतिमूर्ति है। श्रीराम का भाव परदुःखकातरता के साथ प्रतिष्ठित है। राममय होने के साथ यह आशा भी बलवती होती है कि राम के अनुगामियों में इन सब सद्गुणों की वृद्धि होगी। दायित्व आने के साथ शक्ति की उपस्थिति होगी। विरोध और वैमनस्य की जगह आदर और सम्मान ले लेते हैं। राम को समदर्शी, दीन बन्धु, भक्तवत्सल और करुणाकर आदि कहा गया है। जो सीय-राम-मय होगा, वह इन सब भावों से आप्लावित होगा, उसमें ये सब भाव भी उपस्थित होंगे। तब जगत की अनुभूति और प्रतीति का नज़रिया तथा पैमाना बदल जाएगा। राम भाव की उपस्थिति में साम्य देखना सम्भव होगा और सम्यक् व्यवहार भी सध सकेगा।
सब में किसी एक तत्व की उपस्थिति सब की अनुकूलता को द्योतित करती है जिससे सबके हित की सम्भावना बनती है। ऐसे में सभी एक दूसरे का भला करना चाहेंगे क्योंकि तब दूसरा पराया नहीं रह जायगा । ऐसे ही उदार व्यक्ति के लिए कहा गया कि ‘निज’ और ‘पर’ का भेद मिट जाता है। वह अपने में सबको और सबमें अपने को देखता है। इस नए समीकरण में परस्पर भरोसा मुख्य हो जाता है। तब प्रतिरोध कम होता जाता है और परस्पर समर्थन बढ़ता है। सबको अपने जैसा मानने के कई परिणाम होते हैं। अपने अस्तित्व-बोध का विस्तार कर जो अपने लिए ठीक या प्रिय नहीं लगता उसे दूसरों के साथ करने से बचते हैं। उनके लिए आत्मन: प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत् का विचार जीवन का पाथेय सा हो जाता है। तभी ‘सर्व’ और ‘सर्वोदय’ की संकल्पना पुरेगी, सर्वे भवंतु सुखिन: की कामना फलवती होगी और राम-राज्य का संकल्प पूरा हो सकेगा।
भेद-बुद्धि को जीवन में अपनाना कितना सतही, सरलीकृत, भ्रामक और हिंस्र है इसका अनुभव हम सब अपने जीवन में नित्यप्रति करते रहते हैं। क्षुद्र मानसिकता वाला यह भाव विचलित और स्खलित कर देने वाला होता है। ऐसी पाप बुद्धि के चलते अहंकार प्रचंड होने लगता है। तब एक दूसरे को नीचा दिखाना, चोट पहुँचाना, परवाह न करना और आधिपत्य ज़माना आसान हो जाता है। अहं भाव की अनर्गल वृद्धि के बीच हम दूसरे या किसी अन्य का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करना चाहते। सीय राममय कह कर तुलसीदास जी समूची सृष्टि को प्रिय और अभिनंदनीय बनाते हैं। वे यह संदेश भी देते हैं कि वह लोक जिसमें हम विचरण करते हैं सौहार्द और सामरस्य का आगार है क्योंकि राम सबके हैं और सबमें उपस्थित हैं। लोक-मानस में राम आज भी व्याप्त हैं तो इसीलिए कि वे स्वयं ही लोकाराधक हैं।