इनी पिरथी पर सबसी बड़ी अहिल्या माता: पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई होल्कर के 300वें जन्म जयन्ती वर्ष पर विशेष…
डॉ. सुमन चौरे: विगत वर्ष हम पश्चिम धाम द्वारकाजी गये थे। द्वारकाधीशजी के दर्शन करते हुए नागेश्वरजी ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूजन कर आगे ज्योर्तिलिंग सोमनाथजी के दर्शनों के लिये प्रस्थान किया। परिवार के छोटे-बड़े बच्चे सहित कुल मिलाकर हम दस लोग थे। तीर्थयात्रा पर निकले थे।
भीड़भाड़ की संभावनाएँ तो रहती ही हैं। हम संध्याकाल श्रीक्षेत्र सोमनाथजी पहुँचे। हमारे मन में तरह-तरह के प्रश्न उठने लगे। कैसे दर्शन होंगे, संध्या की आरती मिल जाय बड़ी कृपा होगी आदि-आदि।
मंदिर पहुँचे तो बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ कि वहाँ हमारे परिवार के अलावा दस बीस लोग और थे। आरती में बिल्कुल सामने ही खड़े रहे। वहीं बच्चों ने जी भर कर दौड़ा दौड़ की, हम भी मन भरकर बैठे। पंडितजी से चर्चा हुई। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि “आप लोग बड़े अच्छे समय पर आए हैं।
दीवाली का अवसर है, तो लोग अपने-अपने घर और व्यवसायों में व्यस्त हैं। त्योहार मनाने में लगे हैं। इन दिनों स्थानीय लोग भी कम ही आते हैं। पंडितजी से चर्चा के बीच हमने अपना विचार रखा कि कल गोवत्स द्वादशी भी है और शाम को प्रदोष भी है। हमारी ऐसी कामना है कि हम रुद्राभिषेक करवा लें।
पंडित जी ने कहा यहाँ तो नहीं हो पाएगा, मैं आपको फोन नंबर देता हूँ, वे पंडितजी अहिल्याबाई के मंदिर में अभिषेक करवा देंगे। अहिल्या बाई का नाम सुनकर मैं जरा चौंक गई। वह तो हमारी मालवा-निमाड़ की अहिल्याबाई हैं यहाँ-कहाँ सुदूर सौराष्ट्र में? अभिषेक करवाने वाले पंडितजी से हमारा संपर्क हुआ।
पंडितजी ने हमें बुलाया। उनके द्वारा निर्देशित स्थान पर प्रातःकाल ही हम सब पहुँच गये। पंडितजी ने बतलाया, “यह पुराना सोमनाथ मंदिर है, जिसे मालवा-निमाड़ की राणी देवी अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया। वह बड़ा मंदिर तो बाद में नया बना है। इस पुराने मंदिर को मुगल भी क्षति नहीं पहुँचा सके।” बाहर से मंदिर के दर्शन कर मन गद्गद हो उठा। अद्भुत समागम। मानो, समुद्र के तट पर माँ रेवा के दर्शन हो गये। मन्दिर प्रांगण की सीढ़ियों से नीचे उतरकर गर्भ गृह में पहुँचते ही शिवलिंग के दर्शन कर मन में अपार श्रद्धा उमड़ पड़ी। पंडितजी ने पूजन प्रारंभ कराया हमने उन्हें बताया, हम लोग अहिल्याबाई के क्षेत्र के लोग ही हैं। उनकी हमारे प्रति बड़ी श्रद्धा जागी। उन्होंने बड़े ही अन्तर्मन से अभिषेक करवाया।
मुझे तो अभिषेक करते हुए लग रहा था कि देवी अहिल्याबाई बैठी हैं और यह शिवलिंग उनके हाथ में ही रखा है। मेरे हृदय में अपार श्रद्धा उभर कर उठ रही थी। मुझे अनुभूत हो रहा था, कि अहिल्या राणी, देवी माता कैसी विराट और समर्पित रही, जिन्होंने देश के कोने-कोने में तीर्थ स्थानों पर भव्य मंदिर बनवाये। देश में भक्ति की आस प्रवाहित कर दी।
पंडितजी ने पूरे मनोयोग से पूर्ण शिवपूजन के साथ रुद्राभिषेक करवाया श्री ओम प्रकाश सोनी बिजोलिया ने बनाया है। रुद्राष्टाध्यायी, श्री शिवमहिम्न स्त्रोत तथा शिव ताण्डव स्त्रोत के पाठ के मध्य मुझे तो केवल वही गीत सुनाई दे रहे थे जो हम अपने मामा के घर के झूले पर हमारी मावसियों के साथ गाते थे। पंडितजी के श्लोक में मुझे वही गीत देवी अहिल्या के जस की करह सुनाई दिये।
गीत -
माय रेवा को जसोS निरमल पाणी,
असी सगुणी हो माय अहिल्या राणी
दुःखी नS को दुख्ख हरS बड़ी बलिहारीS
निमाड़ को उद्धार करण जलमी अवतारीS
बोलS ते अमिरित वाणी
अहिल्या राणी
माय बईण नS की पीड़ा जाणS
पिरजा का लोगS ओकाS मनS अरु प्राणS...
मुगल फिरंगी नक्खS मेटणS की ठाणी
अहिल्या राणी
भावार्थ : माँ रेवा का जल जैसा निर्मल और गुणी है, उसी प्रकार की सगुणी अहिल्या माता है। वह दुःखियों के दुःखों को दूर करती है, उसकी महिमा अपार है। ऐसा लगता है कि निमाड़ का उद्धार करने के लिए ही उसका अवतार हुआ है। वह माताओं और बहिनों के दर्द को समझती है। समस्त प्रजा को वह अपना मन प्राण समझती हैं। उसकी वाणी में अमृत की धारा प्रवाहित होती है। उसने सब के कष्ट दूर करने के लिए मुगलों और फिरंगियों को देश से खदेड़ने की ठानी है। माता अहिल्या निमाड़ के लिए शिव शंभू का वरदान है।
माता अहिल्या देवी के विषय में लिखने का सोचती हूँ को एक स्मृतियों का बहुत बड़ा कुल ममसाल याने मामा के घर का और दूसरे अपने परिवार का दादा-बाबूजी के साथ बचपन में महेश्वर गई थी, तब का प्रकट हो जाता है। फिर तो कई बार महेश्वर गई, किन्तु बह बालपन की स्मृतियाँ ही मेरी अपनी अनुभूतियों का एक बड़ा अविस्मरीय खजाना है।
मुझे पूरी तरह से याद है, मैं वर्ष 1956 में दादा-बाबूजी के साथ निमाड़ की एक लोक साहित्य संगोष्ठी में गई थी। तब अपने दादा-बाबूजी के साथ बहुत से साहित्यकार भी थे। हम किले में पहुंचे। मैं तब आठ साल की ही थी। किले में सबसे पहले मण्डप सभा कक्ष में पहुंचे। मुझे पूरी तरह स्पष्ट दिखाई दे रहा था, स्तम्भों पर एक जैसी कलाकृतियाँ दिखाई दे रही थी। न सुई की नोंक इतना अन्तर न बाल बराबर फ़र्क।
मैंने सबके सामने अपनी बाल सुलभ जिज्ञासा रखी ऐसी अद्भुत कला एक हाथ ने बनाई या यह अनेक हाथों का हुनर हो । किले की खूबियां बनाने वाले एक भाई ने बताया, प्रमुख तो इस सबका निर्माण का उद्देश्य था राज्य के कलाकारों की कला में निपुणता लाना और दूसरा गरीब जनता को रोजगार देना। उन्होंने आगे बताया इस किले का निर्माण शास्त्रीय पद्धति से हुआ है। किले की छत पर क्या बनना है।
शिखर, मुंढेर पर क्या बनना है, द्वार पर और झरोखे पर क्या बनना है, स्तम्भों पर क्या बनना है? कला में निष्णात कला पारखी सब रूप रेखा बनाते थे। निर्माण की पद्धति थी, संस्कृत के विद्वान पंडित श्लोक बोलते थे और उनके उच्चारण के ही स्तम्भों एक साथ ही बीसों हाथ-छैनी हथौड़ा चलाते थे - पद्मनाभम.. कमल नयनम... एक साथ एक जैसी कला उकेरी जाती थी। कला जौहरी घूम-घूमकर निरीक्षण करते थे। इस प्रकार एक ही किले, एक ही मंदिर के निर्माण में कितने ही सिद्ध हस्तों की आजीविका चलती थी। यह रानी अहिल्याबाई को सूझ-बूझ और ममतामयी माता की कार्य क्षमता का परिचायक है।
माता अहिल्याबाई का किला और हथकरघे देखकर छोटी उम्र में ही मन में देवी अहिल्याबाई राणी के प्रति असीम श्रद्धा और आस्था ने जन्म लिया। कैसी रही होंगी वह राणी, उन दिनों न आधुनिक साधन न सुविधा थे और न ही नारी स्वतंत्रता फिर भी अपनी प्रजा के सुख-सुविधाओं और उनकी योग्यता का मूल्यांकन कर उनके हित में कार्य करना अपने आप में एक देवी शक्ति का प्राकट्य भाव ही रहा है, तभी वह राणी से माता कहलाई।
किले के नित्य नियम काम-काज से हमारे मामाजी भी जुड़े हुए थे। वे राजमाता अहिल्याबाई के जीवन काल से ही चली आ रही पूजन पद्धति में भी सम्मिलित थे। वे हमें अहिल्याबाई के पूजन स्थान पर दर्शन करवाने के लिए ले गये। वहाँ वे सभी शिवलिंग पूजन में रखे थे, जिनका नित्य पूजन स्वयं अहिल्याबाई अपने हाथों से किया करती थीं।
वहीं पर भगवान् के लिये बना सोने का झूला भी रखा था। जिसको हमने बहुत पास से बिल्कुल निकट से देखा सवा मन (पचास सेर) सोने का झूला। लगा इसका स्पर्श कर लें, जिसे एक देवी ने नित्य पूजा। यहाँ देवी अहिल्या की आस्था का प्रबल प्रवाह उस उम्र में भी मुझे हुआ था जो आज तक जैसा का तैसा मेरी आँखों में बसा है।
वैसे तो राजमाता अहिल्याबाई के विषय में सब लोग बहुत कुछ तो नहीं पर कुछ न कुछ तो अवश्य जानते थे। यह बात अलग है कि जो व्यक्ति वहाँ की जानकारी देता था तो उसमें अहिल्याबाई के प्रति इतना समर्पित आन्तरिक आदर भाव होता था मानों वह माता अहिल्या के सानिध्य में रहा हो और आजकल की ही बात बता रहा है। यहाँ तो माता अहिल्या का हम हमारा, अपनेपन का भाव है, जिसकी गरिमा की आँच आज भी कर्मचारियों पर प्रजा पर है।
राजमाता की कचहरी बैठक, वे बता रहे थे जब राजमाता ने जब मालवा की राजधानी इंदौर से महेश्वर लाने का निर्णय लिया, तो उन्होंने विचार किया कि स्थानीय बोली के पूर्ण ज्ञान के अभाव में प्रजा से संवाद अधूरा रहेगा। प्रजा की सही बात समझना और अपनी बात प्रजा को समझाना राजधर्म के निर्वहन में अतिमहत्त्वपूर्ण था।
इसलिए राजमाता ने उस क्षेत्र बोली निमाड़ी और आदिवासियों की भीली सीखी। बड़े से खुले कक्ष में राजमाता की मूर्ति और उनके हाथ में शिवलिंग दूर से ही देखकर लगा जैसे कोई तेज प्रवहित हो रहा है। अहिल्याबाई की प्रतिमा के चारों ओर तेज प्रभा मण्डल निर्मित हो गया हो। मामा ने बताया कि एक निश्चित अंतराल पर पूर्व निश्चित तिथियों में दरबार नियमित लगा करता था।
किन्तु कोई तत्काल ध्यानाकर्षण वाली समस्या आ जाय तो बीच में भी दरबार लगाया करती थीं। लोगों की व्यक्तिगत समस्याओं पर भी सामूहिक दरबार लगाती थी ताकि प्रजा आपत्ति न उठाए। दरबार में वह सबसे आगे लोगों को बैठाती थीं जो दीन हों, निर्धन हों और पिछड़ी बस्ती से आते हों। अपने संबोधन में हाथ जोड़कर सर्व प्रथम कहतीं शिव शंभू की जय और फिर माता रेवा की जै और फिर म्हारा निमाड़वासी नS का पाँय लागू।
सभा में वह आश्वस्त कर कहती थी जिसको जो कुछ कहना है पूरी तरह निर्भीक होकर कहे खुलकर कहो ''बार-आर आश्वस्त करते हुए कहती थी - डरो मत, शिव शंभू तम्हारा साथ छे। यदि राज्य का प्रशासनिक कर्मचारी सतावजS तो बिना संकोच को बिना भय की वात करो।''
माता अहिल्या न्याय करते समय अपने हाथ में शिव शंकर को इसलिए विराजित रखती थी कि यह न्याय उनके शंकर ने किया है। उनसे कोई गलत फैसला न हो जाय। वे प्रजा के सुख चैन की सत्यता जानने के लिए रात्रि में वेश बदलकर अपने राज्य में घूमती थी अपने विश्वसनीय सेवकों को भी उन्होंने यह कार्य सौंप रखा था।वे चाहती थी कि मेरे राज्य में कोई भूखा न सोय न कोई प्रशासन की ओर से प्रताड़ित किया जाए।
बैठक के पश्चात् हम किले की भीतर बढ़े जहाँ एक लम्बा चौड़ा कक्ष देखा। वहाँ पर महिलाएँ हाथ करघों पर साड़ियाँ बुन रही थीं। राजमाता अहिल्याबाई महान थीं, वे महिलाओं की खूबियों को अच्छे से जानती थीं, इसलिए उन्होंने महिलाओं को रोजगार देकर उनमें आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता और आत्म जागृति का विकास कराया।
राजमाता ने देखा निमाड़ की धरती धवळा सोन्ना उगलज, यानी उत्तम कोटि का कपास भरपूर मात्रा में होता है। यह कपास कच्चे माल के रूप में दूसरे राज्यों में कम दाम पर चला जाता है। तब अहिल्याबाई को दूरदृष्टि और सूझ-बूझ ने बहुत बड़ा वस्त्रोद्योग निमाड़ में स्थपित करा दिया। महेश्वरी लुगड़ा बाहर जाने लगा, जिससे यहाँ की प्रजा को आर्थिक लाभ मिला और बाहर से नगद राशि आने लगी जो राजकोष में बढ़ोत्तरी का जरिया बना।
प्रजा के हित और राजकार्य में पैसा लगने लगा। राजमाता ने महिलाओं के मान-सम्मान का ध्यान रखते उनमें स्थित शक्ति का पूरा उपयोग किया। उनकी शक्ति को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने के अवसर दिया। उन्होंने अपने निमाड़ की महिलाओं कौ कार्य कुशलता को देखकर शक्तिशली सशस्त्र सेना तैयार की। प्रशिक्षित महिलाएँ बरछी, भाला, तीर-कमान और तलवार बड़ी निपुणता से चलाना सीख गईं।
राजमाता अहिल्याबाई के नेतृत्व में इस नारी सेना ने मुगलों के भी छक्के छुड़ाये। अहिल्या बाई की इस नारी सेना ने कई आदिवासी हिंसक समूहों को भी परास्त उन्हें ठण्डा कर दिया। अहिल्याबाई होल्कर पहली ऐसी शासक थीं जिन्होंने अपने राज्य को सशक्त बनाने हेतु नारियों को ससम्मान आदर करते हुए हर क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया। सेना गठन उनकी अपनी बुद्धिमत्ता का परिचायक रही।
बहुत सुना था देवी अहिल्याबाई की पार्थिव शिव पूजा के विषय में। बड़ी जिज्ञासा थी बालमन में इस पूजा को देखने की। दूसरे दिन हम भोर से पहले ही उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ प्रतिदिन सवा लाख पार्थेश्वर बनाकर पूर्ण शास्त्रीय विधि-विधान से पूजन कर उन्हें सूर्योदय के पूर्व ही पुण्य सलिला नर्मदाजी में विसर्जित कर दिये जाते।
यह बड़ा ही अद्भुत दृश्य था। हमने देखा कैसे लकड़ी के बड़े-बड़े पाटों पर निश्चित संख्यानुसार काली माटी से शिवलिंग निर्मित करना। साथ ही एक साथ सौ-सवा सौ पंडितों के समवेत स्वर में संस्कृत के मंत्रों का वाचन कर स्तुति करने से समूचा वातावरण गुंजित और भक्तिमय हो जाता था। लगता था जैसे उस पूजन में अदृश्य रूप से देवी अहिल्या भी मौजूद रहती हैं। यह शाश्वत सत्य है शिव सदैव अपनी पूजा में उपस्थित रहते हैं।
माँ रेवा की लहर-लहर में सूर्य की रक्तिम आभा हिलोले ले रही थी। पार्थेश्वर विसर्जन का श्रद्धा भाव मन में तरंगित हो रहा था। इसके पश्चात् तो कई बार महेश्वर गई किन्तु में बचपन की उस आभा कान्ति को अपने मन के एक कोने में अभी भी संजोये हुई हूँ क्योंकि वहाँ भी अब वैसा नहीं है, समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। बदलता जा रहा है।
राजमाता अहिल्याबाई को मैं अपने मातृ पक्ष की ओर से ऐसा जानती हूँ, जैसे वह मेरी माता की निकट संबंधी हैं। मैं पुन; अपने बचपन में खो गई। अहिल्याबाई को कोई कैसे जानता है, पहचानता है। सबके अपने अलग-अलग अनुभव और अलग-अलग अध्ययन है, किन्तु मुझे अहिल्याबाई अपने ममसाल (ननिहाल) की एक सदस्य सी जान पड़ती हैं।
मेरी मौसियां झूले पर बैठकर अहिल्याबाई के ऐसे गीत गाया जैसे राम- कृष्ण की महिमा या देवी के जस गा रही हो। मेरे मामा एक कथा वाचक थे, जो कथा के मध्य किसी राजा की दयालुता और दानवीरता का उदाहरण देते थे, तो वे माता अहिल्याबाई से उसकी तुलना किया करते थे।
गाँव-गाँव, ओटले-ओटले, दासे-दासे पर बैठकर लोग अहिल्याबाई के शासन काल का यशोगान करते थे। यहाँ तक कि दैनिक व्यवहार, क्रिया-कलापों में भी अहिल्याबाई की सहिष्णुता, कर्मठता और दूर दृष्टि का उदाहरण देते थे। वे बाते ऐसे किया करते थे मानों आज कल की बात कर रहे हों। उनकी जीवन्त कथा शैली और सपाट बयानी ऐसी कि उनके कहानी किस्से सुनकर ऐसा लगता था कि वे देवी अहिल्याबाई की सभा से अभी हाल उठकर चले आ रहे हों।
मराठा साम्राज्य के मालवा के सूबेदार मल्हारराव होलकर कहते थे कि राजा ऐसा ही होना चाहिए जो व्यक्ति की खूबियों को पलभर में परख ले। मल्हारराव ऐसे ही एक जौहरी थे, जो अहिल्याबाई जैसे हीरे को परख कर गाँव से ले आये थे। उन्हे अपने तुनक मिजाज बेटे के लिए ऐसी योग्य बहू चाहिये थी, जो बेटे को राजकीय कार्यों में सहयोग दे।
मल्हारराव होल्कर ने चहुँ ओर से उठे विरोध को दरकिनार करते हुए अहिल्याबाई को प्रशिक्षित करते रहे। नए-नए उत्तरदायित्व सौंपते रहे। अहिल्याबाई भी अपने ससुर की परीक्षा में पूरी तरह खरी उतरी। अहिल्याबाई के पति खण्डेराव होल्कर एक अच्छे योद्धा थे। उन्होंने निज़ाम को हराया, मीरमनी खान को धूल चटा दी।
तारापुर का किला फतह किया पुर्तगालियों का बड़ी बहादुरी से सामना किया किन्तु उनकी एक बुरी आदत तुनक मिजाजी और कामवासना ने उन्हें अयोग्य शासक साबित कर दिया। कुंभेर के किले की घेराबंदी के समय छल द्वारा उन्हें गोले से उड़ा दिया। मल्हारराव अपने बेटे खण्डेराव के ऐसे अंत से हिल गये।
जब अहिल्याबाई अपने पति खण्डेराव के साथ सती होने को तैयार हुई तब मल्हारराव ने कहा - बेटी मेरी तरफ देखो, मैंने तुम्हें इस राज्य की प्रजा की रक्षा के लिए तैयार किया है। तुम्हें इस प्रजा की भलाई के लिए और मेरे विश्वास के लिए जीवित रहना होगा। खण्डेराव के जाने पर मेरा पुत्र गया, किन्तु तुम्हारे जाने से हमारा मालवा राज्य और होल्कर परिवार का सब कुछ चला जायेगा। अपने पितृ तुल्य ससुर की दयनीय दशा देखकर अहिल्याबाई ने श्वेत वस्त्र धारण कर हाथ में शिवशंभू को रखकर अपना नया जीवन शुरू किया।
होल्कर परिवार पर आई घोर विपत्ति को देखकर शत्रु प्रसन्न हुए। विरोधी शक्तियों का हौसला और बढ़ गया | अहिल्याबाई पर मल्हारराव का विश्वास देखकर परिवार के भीतर भी विरोध बढ़ा और अहिल्याबाई के विरूद्ध नये-नये षड़यंत्र रचे जाने लगे।
राज सिंहासन पाने के लिए परिवार के लोग ही फन उठाकर खड़े हो गये। अहिल्या पर कुछ वश नहीं चला तो खण्डेराव की विमाता ने मालेराव का अपनी माँ अहिल्याबाई के खिलाफ भड़काना शुरू किया।
इस व्यवहार से अहिल्या आहत हुईं, किन्तु राज्य को अपना ध्येय मानकर अपना जीवन उसी ओर होम दिया।
अहिल्या तो अहिल्या ही थी, दुगनी शक्ति से समस्त विभीषिकाओं से जूझी। महाराजा होल्कर राव के जाने के पश्चात राज्य की तो बात ही अलग है, अहिल्याबाई के साथ राजगद्दी को लेकर घरेलू षड़यंत्र बढ़े।
मुगल अंग्रेज शक्तियाँ ताकतवर हो गईं, किन्तु अहिल्याबाई को साथ देने के लिए एक जेठ तुकोजी और एक सास भी थीं। मल्हार राव के साथ तीन रानियाँ सती हो गईं, मालवा वाली रानी जो अहिल्या को बहुत प्यार करती थी, जीवित रहकर उसकी ताकत बनीं।
अहिल्याबाई शिव शंकर की भक्ति में तटस्थ खड़ी रही। सब कुछ सहन कर राज्य की चिन्ता में लगी रहने वाली माता को लोग अब माता अहिल्याबाई कहने लगे।
मेरी छोटी मम्माय (नानी) तो अहिल्याबाई की ऐसी भक्त थी, कि बात-बात में वह अपनी बहू-बेटियों को अहिल्याबाई का उदाहरण देती थी। हम मजाक-मज़ाक में पूछते थे, ''नानी माय आप तो अहिल्याबाई का ऐसा उदाहरण देती हैं, जैसे उसके साथ रही हो।” अपनी पूजा में सभी देवी-देवताओं के साथ अहिल्या माता की जय भी बोलती थी।
वे कहा करती थीं, “हाँ बेटी सीखो-सीखो अहिल्या सी सीखो। दुश्मन सीS लड़ती भी थी, नS घर को चूल्हा चौको सबका रुचि को भोजन भी बणावती थीS। सासु धणी तलती थी पण कदी जुबाव नी देती थी।
संवदार उठी नS सासु-ससरा का पाय लागती थी, ओका माथा सी पल्लू नी सरकS एतरो काण कायदो राखती थी।” हम लोग नानी माय के साथ ऐसी ही बातें करते थे ताकि वे अहिल्याबाई का उदाहरण दें। यही अहिल्याबाई के जीवन की सार्थकता रही कि कोई दो ढ़ाई सौ साल बाद भी जन-मन में ऐसी रची बसी है।
जो राम-कृष्ण सीता राधा आदि जैसे ही अहिल्याबाई के भी किस्से कैणात कथा-वार्ता और लोक श्रुति के भंडार भरे हैं। निमाड़ तो अहिल्या मय है। वहाँ आज भी लोग आँखन देखी जैसी, कानन सुनी जैसी बात करते हैं ।
निमाड़ के प्रख्यात लोक साहित्यकार बाबूलाल सेन दादा महेश्वर में ही रहे हैं। उनके घर पहुँचे कि ही वे अहिल्या की बात शुरू कर देते थे। वे अहिल्याबाई की न्याय प्रियता के किस्से उनके मुँह से सुने, ऐसा लगता है, जैसे वे उस समय के प्रत्यक्षदर्शी रहे हों। सेन दादा के घर की गली अहिल्याबाई के किले के पिछले द्वार पर ही खुलती है। वे कहते थे कितने ही राजा रजवाड़े न्याय मूर्ति हुए, किन्तु देवी अहिल्या जैसा न्याय किसी ने नहीं किया।
अहिल्याबाई न्याय करती थी, तो शिवशंभू को वे यह कह कर न्याय देती थी, यह न्याय आप ही कर रहे हैं शिवशंभू ।'
सेना दादा कहा करते थे अहिल्याबाई न्याय की देवी है। एक बार का किस्सा वे सुनाया करते थे कि उनका पुत्र मालेराव बड़ा ही उदण्ड निराधमी और दुराचारी था समझ लो माता के चरित्र के एक दम उल्टा विपरीत। एक वारी की बातS आय, मालेराव रथ भगाड़ तो जाई रहयो थों। अर्थात् निरुद्देश्य रथ दौड़ा रहा था। रास्ते में गाय बछुड़े जा रहे थे। डर के बछुड़ा भागा और रथ के निकट आ गया। मालेराव अपनी मस्ती में रथ दौड़ा रहा।
जान-बूझकर रथ तेज दौड़ा रहा था बछुड़ा रथ के नीचे आकर मर गया गाय उसके पास बैठकर रोने लगी। संयोग से अहिल्याबाई उधर से गुजरी। उन्होंने इस स्थिति को देखा कि अपने मृत बछुड़े के पास बैठकर गाय रो रही थी। अहिल्याबाई भी द्रवित हो आँखों से बह निकली। वहाँ उपस्थित जनता में से किसी ने भी नहीं बताया कि बछुड़े कैसे मरा किसने मारा। अहिल्याबाई तो अहिल्याबाई थी, उन्होंने पता लगा लिया कि इसका हत्यारा कौन है? बछुड़ा का अन्तिम संस्कार कराकर अहिल्याबाई महल में पहुँची।
उन्होंने अपनी सुनवाई को बुलाया और पूछा - सुनवाई एक उहापोह में एक दुविधा में हूँ, तुम ही मेरी समस्या का निराकरण, निदान कर सकती हो।' बहू ने कहा कहिए सासु बाई अहिल्याबाई ने पूछा - “किसी की माँ के सामने कोई उसकी संतान को कुचलकर मार डाले तो, उस हत्यारे के लिए के लिए क्या सजा हो? उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिए? बहू मेना बाई ने तुरन्त कहा उसे तो मृत्य दण्ड देना चाहिए सासुबाई।
अहिल्याबाई ने सेवकों को, तुरंत आदेश दिया 'मालेराव के हाथ-पाँव बाँधकर रथ के पहिये से कुचल दिया जाय।' सेन दादा डबडबाई आँखों से बोले देखो 'माय नS कसो जीवS बांध्यो' अर्थात माँ ने अपना हृदय कितना कठोर किया होगा तब ऐसा निर्णय लिया। कोई भी कर्मचारी ऐसा काम करने को तैयार नहीं हुआ।
तब स्वयं अहिल्याबाई रथ पर बैठी और रथ के सामने मालेराव को फेंक दिया। अहिल्याबाई ने जैसे ही रथ को हाँका वहीं गाय कहीं से दौड़कर आई और रथ के सामने खड़ी हो गई। अहिल्याबाई ने रथ से कूदकर गाय को हटाने का प्रयास किया गाय अडिग खड़ी रही। अहिल्याबाई गाय के गले लगकर 'फूट-फूटकर रोने लगी। गाय की आँखों से भी अजस्र धार बहने लगी। कहते हैं, कुछ दिन बाद किसी बीमारी से मालेराव की मृत्यु हो गई । लगता है ममता न्याय और दया का इस सृष्टि पर कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है न रहा होगा। अहिल्याबाई ने अपनी ममता को कलंकित नहीं होने दिया। अहिल्याबाई के जीवन के उनकी न्यायप्रियता के अनेकों उदाहरण अभी भी लोक में प्रचलित हैं ।
अहिल्याबाई ने अपने इष्ट देव के लिए सवामन याने पचास सेर सोने से सुन्दर झूला निर्मित करवाया। झूला देवालय में ही रखा रहता था जिसे डाकुओं ने किले की दीवार फाँदकर चुराया था। कहते हैं डाकुओं ने घोरपड़ (गोह) की पूँछ में रस्सी बाँधकर उसे किले की दीवाल से चिपकया और रस्सी पकड़ कर दीवाल फाँद कर देवालय से, डाकू झूला और सामान लूटकर ले गये किन्तु एकाएक डाकुओं को दिखना बन्द हो गया।
उन्हें लगा कोई शक्ति उन्हें पीछे खींच रही है। वे अंधे जैसे हो गये। बड़ी मुश्किल से उन्होंने किले से बाहर निकलकर झूला जमीन में गाड़ दिया। इसके पश्चात डाकू पकड़ा भी गये और झूला मिल गया।
अहिल्याबाई के विषय में क्या लिखूँ क्या छोड़ूँ। लोक में रंजी बसी देवी। देवी के गीत अभी भी कानों में गूँजते हैं। जब भी मामा के गाँव Sजाते थे, उमंग से गीत गाते थे -
इना माळवा लिमाड़S मS सबसी बड़ी अहिल्या माता,
अहिल्या माता का जसS नक्छत्र गावता
जोगो-जोगो शिवालय बणाड्या
रेवा तट पर घाटS न घाटS बंधाड्या
पंडित पुजारी नS का मानS वधायाS
दीन दुःखी न का दरद मिटायाS
असी कळु तकS हमS जसS गावताS
इनी पिरथी पर सबसी बड़ी अहिल्या माताS....
भावार्थ : मालवा-निमाड़ में सबसे बड़ी अहिल्या माता है। जिनके यश तो तारा-गण-नक्षत्र भी गाते हैं। स्थान-स्थान पर उन्होंने शिव मंदिर और देवी-देवताओं के मंदिर बनवाये। उन्होंने विद्वान पंडित और ज्ञानी लोगों का सम्मान बढ़ाया। गरीब पिछड़ों और दुखियों का उद्धार किया। रेवा-तट और पवित्र नदियों पर भव्य घाट बनवायें। गरीबों को रोजगार देकर आत्मनिर्भर बनाया, प्रजा का हित किया। लोग अहिल्याबाई को माता मानकर उनका कीर्तिगान करते हैं। मालवा-निमाड़ का गौरव हैं देवी अहिल्याबाई।
देवी अहिल्याबाई के शिवलोक गमन के सैकड़ों वर्षों बाद भी जिस श्रद्धा और आस्था से उनके मन्दिर में निरन्तर पूजा-पाठ चलता आ रहा है, महेश्वर का वस्त्र उद्योग फल-फूल रहा है और जिस अपनेपन और सादगी से उनकी राजधानी महेश्वर के लोग बाहरी आगन्तुकों से मिलते हैं, जिस सम्मान और अपनत्व से अहिल्या देवी के विषय में बात करते हैं उससे प्रतीत होता है कि देवी अहिल्याबाई ने मालवा-निमाड़ की भोळई प्रजा में परस्पर सम्मान, आत्मनिर्भर जीवन और शिवशंभू के प्रति समर्पण के जो बीज बोये थे वे अख्खय वट (अक्षय वट) भाँति विस्तारित होते जा रहे हैं।
ये सब देवी अहिल्या की धर्मपरायणता और प्रजा प्रेम का ही प्रताप है कि उनकी उपस्थिति महेश्वर सहित देशभर के तीर्थस्थानों के उनके द्वारा पुनरोद्धार किए गए मन्दिरों में अनुभूत की जाती है। यह शिव शंभू की कृपा है जिसने अहिल्याबाई को महाराणी से लोकमाता और फिर लोकमाता से देवी बना दिया। देश में उच्च प्रतिमान स्थापित करने वाले महानतम व्यक्तित्वों में प्रमुख है लोकमाता देवी अहिल्याबाई। कल्याणकारिणी देवी अहिल्या माता की जय हो।