अपने लिए कब कानून बनाएंगे 'माननीय'

रामेन्द्र सिन्हा

Update: 2021-12-27 09:19 GMT

वेबडेस्क। चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 के संसद में पारित होने के पश्चात् अब फर्जी मतदान की रोकथाम का रास्ता साफ हो गया है। चुनाव सुधारों को लेकर मोदी सरकार से लोगों की उम्मीदें जागी हैं। अब विधायकों-सांसदों की शैक्षणिक योग्यता, माफिया-बाहुबलियों के चुनाव लड़ने और नेताओं के दो निर्वाचन क्षेत्रों से ताल ठोकने जैसे मुद्दों पर भी बात होनी चाहिए।

सही है कि देश में करोड़ों की संख्या में जो फर्जी वोटर आईडी कार्ड बने हुए हैं, नया कानून बनने के बाद वे सभी गायब हो जाएंगे। वोटर आईडी को आधार से लिंक करने पर घुसपैठियों को पकड़ने में मदद मिलेगी। फर्जी वोटर आईडी के जरिए जो और कई तरह की गैर-कानूनी गतिविधियां हो रही थीं, उन पर भी अंकुश लगेगा। विपक्ष ने इसे निजता का हनन करने वाला विधेयक करार देते हुए आशंका जताई है कि यह प्रावधान करके सरकार स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी 'गुप्त मतदान' की प्रक्रिया से छेड़छाड़ कर सकती है।

विधेयक में मतदान के लिए अतिरिक्त योग्यता तिथियां पेश करने, सेवारत मतदाताओं के लिए मतदान को लिंग-तटस्थ बनाने और वोटर आईडी के साथ आधार को जोड़ने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के प्रावधानों में संशोधन करने का प्रयास किया गया है। विधेयक में एक प्रावधान है कि:

"निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी किसी भी व्यक्ति की पहचान स्थापित करने के उद्देश्य से यह आवश्यक कर सकता है कि ऐसा व्यक्ति आधार के प्रावधानों के अनुसार भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा दिया गया आधार नंबर प्रस्तुत करे। लोकसभा में विधेयक पर चर्चा करते हुए केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने लिंकेज को यह कहते हुए उचित ठहराया था कि लिंकेज "स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं।" उन्होंने कहा,"फर्जी मतदाताओं का इस्तेमाल करने वाले ही विधेयक का विरोध करेंगे। अगर कोई वास्तविक मतदाता है, तो विधेयक का विरोध करने की कोई जरूरत नहीं है।"

निर्वाचन आयोग पात्र लोगों को मतदाता के रूप में पंजीकरण कराने की अनुमति देने के लिए कई 'कट ऑफ तारीख' की वकालत करता रहा है। अब नए विधेयक में कहा गया कि संशोधन में मतदाता पंजीकरण के लिए हर वर्ष चार 'कट ऑफ तिथियों'-एक जनवरी, एक अप्रैल, एक जुलाई तथा एक अक्टूबर रखने का प्रस्ताव है।

झूठ बोले कौआ काटे - 

मार्च 2021 में केरल हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा था कि राज्य विधानसभा के अगले महीने होने वाले चुनाव में जिन मतदाताओं के नाम फर्जी हैं या जिन मतदाताओं के नाम बार-बार दर्ज हैं, वे केवल एक बार ही मतदान कर सकें। अप्रैल 2014 में एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में दो-दो हजार रुपये में सरकारी अधिकारियों की ओर से उम्मीदवारों से फर्जी वोटर बनवाने की डील का खुलासा हुआ था। इसमें पोलिंग बूथ अफ़सर बता रहा था कि नींबू के रस से स्याही का रंग नहीं चढ़ेगा। यही नहीं, वोटो के ठेकेदार यह भी बता रहे थे कि पपीते के दूध से उंगली की स्याही कैसे मिटाई जा सकती है। इतना ही नहीं दिल्ली की कई दुकानें खुलेआम चुनाव वाली स्याही मिटाने का केमिकल बेच रही थीं।

2004 में लोकसभा के 24 फीसदी सदस्य ऐसे थे, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे थे। 2009 में ऐसे सदस्यों की संख्या बढ़कर 30 फीसदी और 2014 में 34 फीसदी हो गई। 2019 में 43% सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले लंबित थे। वोटिंग मशीनों में 'उपरोक्त में से कोई नहीं' (NOTA) विकल्प का समावेश राजनीतिक दलों को बेहतर उम्मीदवारों को मैदान में लाने के लिए तथा मतदाताओं को सशक्त बनाने हेतु एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन वह प्रभावी नहीं सिद्ध हुआ है। यदि किसी क्षेत्र में 3,000 वोटर हैं, जिनमें से 2,999 ने नोटा को वोट दिया और एक वोटर ने किसी उम्मीदवार को, तो एक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीत जाएगा।

झूठ बोले कौआ काटे, सत्ता बदले या ना बदले, बाहुबली विधायक नहीं बदलते हैं। कहा जाता है कि हरिशंकर तिवारी जेल में रहकर चुनाव जीतने वाले पहले नेता हैं। उसके बाद ही बाहुबलियों में ये सिलसिला चल पड़ा था। और तो और, उप्र के कुछ बाहुबलियों के सामने मोदी लहर भी फेल सिद्ध हुई। मुख्तार अंसारी, सात बार से लगातार विधायक है। पांच बार अलग-अलग पार्टी से और दो बार निर्दलीय, यानी मुख्तार कभी चुनाव हारा ही नहीं। प्रदेश के तीन मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव, मायावती और योगी आदित्यनाथ से लोहा लेने वाला विजय मिश्रा कभी चुनाव नहीं हारा।

बोले तो, सरकारी नौकरी पाने के लिए एक चपरासी को भी कम से कम 10वीं पास होना पड़ता है। पर अनेक सांसद और विधायक तो 5वीं और 8वीं पास ही हैं। जनप्रतिनिधि कोई सरकारी कर्मचारी भी नहीं हैं। आठ घंटे की ड्यूटी भी नहीं करते। न किसी सेवा के लिए बाध्य हैं। न कोई शैक्षिक योग्यता निर्धारित है। इसलिए, लोग यह भी मांग करते हैं कि उन्हें सरकारी कर्मचारियों की तरह पेंशन व अन्य सुविधाएं क्यों दी जाएं। लेकिन, शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने के सवाल पर 'माननीयों' की दलील होती है कि ये लोकतंत्र के खिलाफ है, संविधान के खिलाफ है।

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा था कि जिन अनपढ़ लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब झोंक दिया, शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता लगाकर उन्हें चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता। ठीक है, तब साक्षरता दर 12% थी। आज माहौल अलग है, संसाधन बेहतर हैं। देश की साक्षरता 74 फीसदी से उपर है। अम्बेडकर भी शिक्षित होकर ही दलितों का प्रतिनिधित्व बेहतर कर सके, सावित्रीबाई फुले भी शिक्षा का अलख जगाती रहीं। आज कितने ऐसे राजनेता हैं जो सच में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक की जिन्दगी जी रहे हैं। 2017 में उप्र में जीते 71 फीसदी विधायक करोड़पति हैं।

झूठ बोले कौआ काटे, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-33 (7) एक उम्मीदवार को 2 सीटों से चुनाव लड़ने का अधिकार देती है। इस प्रावधान को अंसवैधानिक बताते हुए दिगग्ज वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके दलील दी थी कि दो सीटों पर जीतने की स्थिति पर उम्मीदवार को एक सीट खाली करनी पड़ती है, लिहाजा उस सीट पर दोबारा चुनाव होता है, इससे सरकार को राजस्व का नुकसान होता है। इसलिए नियम में फिर से संशोधन किया जाए और एक उम्मीदवार को एक सीट से ही चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। बात में दम तो है। याचिका का जहां चुनाव आयोग ने समर्थन किया था, वहीं सरकार इस याचिका और 33 (7) में संशोधन के विरोध में थी। सरकार ने कहा था कि संशोधन से उम्मीदवारों के अधिकारों का उल्लंघन होगा।

विडंबना ये भी है कि कुछ राज्यों की विधायिका ने पंचायत चुनावों के लिए न्यूनतम शैक्षिक अर्हता का कानून तो बना दिया है, लेकिन दूसरों के लिए कानून बनाने वाले अपने लिए इस तरह का कानून बनाने के खिलाफ हैं। कब बनाएंगे अपने लिए आचार संहिता? कब माफिया-बाहुबलियों के चुनाव लड़ने पर शिकंजा कसेगा, कब दो जगह से चुनाव लड़ने पर रोक लगेगी?

और अंत में, बात जहां से शुरू हुई थी, वहीं आते हैं। फर्जी वोटिंग की रोकथाम के लिए वोटर आईडी और आधार को जोड़ने वाले विधेयक से चुनाव सुधारों के लिए आस तो जगी है। मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा पिछले उप्र विधानसभा चुनावों से पहले किए गए खुलासे को दृष्टिगत रखते हुए यह कानून अपरिहार्य भी है। तब मतदाता सूची में 11.50 लाख से ज्यादा मल्टीपल मतदाताओं को आयोग ने चिन्हित किया था। जय हो !

 (लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।)

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