वेबडेस्क। झाबुआ यानि मध्यप्रदेश के पश्चिमी छोर पर सघन जंगलों और पहाडि़यों से घिरा वो इलाका जहाँ भील आदिवासियों के पुरखों ने कभी अपने बसेरे की तलाश की थी। कुदरत को ही अपना आराध्या माना और उसमें लय होते पुरूषार्थ में ही पूजा के अर्थ तलाशे। भूरी इसी महान विरासत का सुनहरा भविष्य बनकर अपने समय की किंवदंति बन जाएगी, यह सोचते हुए ज़रा आश्चर्य ही होता है। बहरहाल, भूरी बाई की कहानी, कि़स्मत की कहानी नहीं है। वह कर्म के पसीने की कहानी है। गये बरस नाम के साथ पद्मश्री की मोहर लगी तो मटियारे आदिम रंग महक उठे।
यह अस्सी का दशक था। रोज़ी की तलाश में भटकते-भटकते अपने पति के संग वे भोपाल आयीं। घर-गाँव-देहरी सब पीछे छूट गये लेकिन स्मृतियों की रंग-रूपहली छवियाँ साथ चली आयीं। मजदूरी के लिए हाथ आगे बढ़ते तभी भूरी को बीमारी ने घेर लिया। देह पर फफोले उग आये। तभी हाथों ने कूची थामी और रंगों की सोहबत में सृजन का एक नया अध्याय रचना शुरू हुआ। एक स्त्री के भीतर मौजूद लालित्य और सौन्दर्यबोध का नैसर्गिक प्रवाह फूट पड़ा। जैसे यह एक नई यात्रा पर चल पड़ने की भीतरी पुकार थी।
डगर भी नई, रफ्तार भी नई और मंजि़ल भी नई। इस नए आग्रह की ज़मीन उस बेचैनी और कसौटी से तैयार हुई जहाँ भीली चित्रांकन की परंपरा में स्त्रियों का प्रवेश निषेध था। वहाँ अपने लोक देवता पिथौरा को रचने की अनुमति पुरूषों को ही थी। अपने लिए वर्जित इस भूमि को हासिल करने के लिए भूरी ने पिथौरा कला के आसपास सिमट आए रंगों, मिथकों, प्रतीकों, बिंबों और आशयों को मन की आँखों से देखा और एक दिन सूने फलक पर वे सब नई शक्ल में ढलकर एक स्त्री की महान सर्जना में बदल गये। यूँ पिथौरा ही भूरी की प्रेरणा बना। निश्चय ही यह एक जनजातीय स्त्री की स्वाधीन चेतना, उसकी मौलिक सूझ-बूझ, उसके कौशल और रचनात्मक जि़द की विजय थी।
भूरी के केनवास पर खिलखिलाते रंग उन स्मृतियों, गाथाओं और आध्यात्मिक प्रसंगों को उकेरते हैं जो उसने पूर्वजों से सुने और धरती-दीवार पर आकार लेते चित्रों में देखे थे। देशज गंध की गमक भरे भूरी के इस अद्भुत काम पर मूर्धन्य चित्रकार जे. स्वामीनाथन की निगाह गयी जो बीती सदी के अस्सी के दशक में कलाओं के मरकज़ भारत भवन में आदिवासी कला दीर्घा का आकल्पन कर रहे थे। भूरी बाई के रंगों ने यशगामी यात्रा के शुभ चरण नापना शुरू किया। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ने उन्हें आग्रहपूर्वक बुलाया। उन्हीं दिनों जनजातीय और लोक कलाओं के संरक्षण और दस्तावेज़ीकरण के लिए म.प्र. की सरकार ने 'सुपर न्यू मेरेरी' श्रेणी के तहत नए पद का सृजन किया। भूरी बाई चयनित हुई। राष्ट्रीय अहिल्याबाई और राज्य स्तरीय शिखर सम्मानों से भी वे विभूषित की गयीं।
भूरी बाई को भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय के परकोटे में तल्लीनता से सृजनरत देखना आगन्तुकों के लिए सदा एक सुखद अनुभव होता है। देस-परदेस के अनेक संग्रहालयों की दीवारों पर भूरी के चित्र चस्पा हैं। उनका सृजन एक स्त्री के हाथों प्रकृति की महान प्रार्थना हैं। लोक देवता पिथौरा का आशीर्वाद बरसा है भूरी पर।