ग्वालियर - मुरैना लोकसभा क्षेत्र को मिला था डबल मेंबर कोंस्टीटूएंसी का दर्जा, एक सीट से चुने गए दो सांसद
चंद्रवेश पांडे
18वीं लोकसभा के आम चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में जब हम अतीत के पन्ने पलटते हैं तो पिछले आम चुनावों के कई रोचक किस्से सामने आते हैं। आजादी के सूर्योदय के बाद जब 1952 में देश में पहले आम चुनाव हुए तब से आज तक चुनावों के तमाम तौर तरीके बदल गए हैं। धनबल और बाहुबल का जोर है, तो प्रचार के तौर तरीके भी बदले हैं। आज सोशल मीडिया का जोर है। वोट के लिए बैलेट पेपर की जगह ईवीएम मशीन ने ले ली है आदि- आदि। पहले आम चुनाव की बात बताने वाले अब या तो कागजी आंकड़े हैं या फिर चंद उम्रदराज लोग। इन्हीं आंकड़ों और बुजुर्गवार लोगों की बयानी हम कुछ पुराने चुनावों की कहानी बता रहे हैं - 'कहानी लोकसभा चुनाव की' में। आप भी पढ़ें...
आजादी के बाद 1952 में जब पहला आम चुनाव हुआ तब हर तरफ खुशी का माहौल था। लोग बताते हैं कि जो बात पहले आम चुनाव में थी, वह कभी दोबारा नहीं देखी गई। ठीक वैसा ही हर्ष वैसा ही उत्साह जैसा पहली संतान होने पर होता है। देश की आजादी में यूं तो कांग्रेस की बड़ी भूमिका थी लेकिन ठीक इसके उलट ग्वालियर चंबल की वादियों में सन् 52 हिन्दू महासभा का परचम लहरा रहा था। हालांकि सन् 57 में चुन गए दोनों सांसद कांग्रेस के ही थे। देश की आजादी के बाद पहले चुनाव 1952 में हुए थे। स्वतंत्रता का उत्साह व उमंग अभी ठंडे नहीं पड़े थे। स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महती भूमिका के चलते कांग्रेस आत्मविश्वास से भरी हुई थी। लेकिन उसे कतई एहसास नहीं था कि ग्वालियर चंबल में हिन्दू महासभा ने जड़ें जमा ली हैं। असल में इस दौर में ग्वालियर का सिंधिया राजवंश पूरी ताकत के साथ हिन्दू महासभा के साथ खड़ा था। ऐसे में ग्वालियर के लोग जो सिंधिया राजवंश के प्रति गहरी आस्था रखते थे, वे खुलकर हिन्दू महासभा के साथ थे।
हिन्दू महासभा का असर या यूं कहे कि जोर का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने विदर्भ महाराष्ट्र से बुलाकर विष्णु घनश्याम देशपांडे को चुनाव के मैदान में उतार दिया। श्रीदेशपांडे हिन्दू महासभा के महासचिव थे। वे ग्वालियर के अलावा गुना की सीट से भी लड़े। पुराने लोग बताते हैं कि उन्हें चुनाव लड़ाने में राजमाता विजयाराजे सिंधिया की विशेष भूमिका थी। विष्णु घनश्याम देशपांडे हिमस के ऐसे नेता थे जिनपर महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप था। इतना ही नहीं गांधी जी की हत्या से ठीक तीन दिन पहले उन्होंने भारत विभाजन के लिए गांधी जी को जिम्मेदार बताते हुए उनकी कटु आलोचना भी की थी।
गांधी की हत्या के बाद जहां पूरे देश में लोग कांग्रेस के साथ खड़े थे, वहीं ग्वालियर अंचल में हिमस का जोर था। नतीजतन श्रीदेशपांडे ग्वालियर और गुना दोनों सीटों से चुनाव जीत गए। गुना में उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी गोपीकृष्ण विजयवर्गीय को 56518 वोटों से हराया तो वहीं ग्वालियर में उन्होंने वैदेही चरण पाराशर को हराया। चूंकि श्रीदेशपांडे ग्वालियर व गुना दो जगह से चुनकर आए थे सो उन्हें एक जगह से सांसदी छोडऩा लाजिमी था, लिहाजा उन्होंने ग्वालियर की सीट छोड़ दी। इसके बाद ग्वालियर से हिमस के ही नारायण भास्कर खरे को नागपुर से बुलाकर टिकट दिया। श्री खरे, शुरुआती दौर में कांग्रेस में रहे। कांग्रेस में वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। वे मराठी अखबार तरुण भारत के संस्थापक संपादक भी रहे। बाद में वे 15 अगस्त 1949 को हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। वे हिमस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। वे जब ग्वालियर से उपचुनाव लड़े तब भी यहां हिमस का असर तो बरकरार था ही, सो वे आसानी से जीत गए। उन्होंने उस जमाने के कांग्रेस के रसूखदार व कद्दावर नेता गौतम शर्मा को शिकस्त दी। पहले चुनाव की इस जीत ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं के हौसले आसमान पर पहुंचा दिए।
कांग्रेसियों को जिन्ना का साला कहते थे
हिमस के नेता सन् 52 से 57 का दौर ग्वालियर में कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलों व संघर्ष वाला रहा। इस दौर में हिमस के नेता कार्यकर्ता इतने दुस्साहसी हो गए थे कि गांधी टोपी या खादी पहनकर सड़क पर निकलने वाले किसी भी व्यक्ति को बख्शते नहीं थे। वे कांग्रेसियों को जिन्ना का साला कहकर फब्बतियां कसते थे। सराफा बाजार, डीडवाना ओली, दौलतगंज बाड़ा आदि क्षेत्रों में तो सरेराह कांग्रेसियों की ठुकाई पिटाई तक की घटनाएं हुईं।
गौतम शर्मा व डोंगर सिंह ने किया कांग्रेस को मजबूत
इस संक्रमण के दौर में जब कांग्रेस के नेता परेशान थे, तब गौतम शर्मा और कक्का डोंगर सिंह ने कसम खाई कि वे हिन्दू महासभा के असर को खत्म करके ही रहेंगे और ग्वालियर में पूरी ताकत से कांग्रेस को खड़ा करके रहेंगे। और उसके बाद ही घर लौटेंगे। दोनों नेता सुबह से शाम तक जनसंपर्क करते, लोगों को कांग्रेस से जोड़ते, उन्हें सदस्य बनाते।
सेवादल के प्रशिक्षण वर्ग लगाते और रात सराफा बाजार स्थित कांग्रेस कार्यालय में बिताते। बताते हैं कि दोनों नेता डेढ़- दो साल तक घर की देहरी नहीं चढ़े। इसी दौर में डोंगर सिंह के पुत्र राजेन्द्र सिंह, घनश्याम कश्यप, कीर्तिदेव शुक्ल, हरिबल्लभ शर्मा, ओमप्रकाश शर्मा, शंकरलाल खड्डर जैसे कांग्रेस के युवा नेताओं ने नेहरू फ्रंट बनाया। इन युवा नेताओं की टोलियां शहर से लेकर गांव-देहात तक कांग्रेस की रीति-नीतियों का प्रचार करती थीं। इन लोगों ने काफी हद तक कांग्रेस को मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया। सन् 1957 के लोकसभा चुनाव की चर्चा करें, उससे पहले यह जानना दिलचस्प होगा कि तब ग्वालियर संसदीय क्षेत्र में क्या फेरबदल हुआ। हुआ यह कि सन् 57 में ग्वालियर के साथ मुरैना जिला शामिल किया गया। जबकि इससे पहले मुरैना-भिण्ड मिलकर एक संसदीय क्षेत्र था।
ग्वालियर मुरैना को मिलाकर बनाए गए क्षेत्र को डबल कोंस्टीटूएंसी का दर्जा दिया गया। यानि एक क्षेत्र से दो सांसद चुने जाने थे। एक सदस्य सामान्य वर्ग का और दूसरा अनुसूचित जाति वर्ग का। इस चुनाव तक कांग्रेस ने अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली थी, कांग्रेस के प्रत्याशी राधाचरण शर्मा (सामान्य) व सूर्यप्रसाद (अनारक्षित) वर्ग दोनों ने ही कांग्रेस के टिकट पर शानदार जीत दर्ज की। इस चुनाव में हिन्दू महासभा का सफाया हो गया। फिर हिन्दू महासभा ग्वालियर में ठीक से खड़ी नहीं हो सकी। हां, हिन्दू महासभा के बड़े नेता बृजनारायण बृजेश अपवाद रहे वे सन् 57 के आम चुनाव में शिवपुरी क्षेत्र से विजयी रहे। उन्होंने कांग्रेस के श्यामलाल पाण्डवीय को 11,679 मतों से शिकस्त दी। डबल मेंबर कॉन्स्टीटुवेंसी के तहत ग्वालियर में भी सन् 52 के चुनाव में कांग्रेस जीती और तब आरक्षित कोटे से कांग्रेस के सूर्य प्रसाद सांसद चुने गए।