महल के साए से फिर दूर है 'महापौर'

Update: 2022-07-19 12:21 GMT

वेबडेस्क। यह संयोग मानें या तथ्य या दोनों ही। ग्वालियर नगर निगम के महापौर की सीट ग्वालियर महल से दूर ही रही। अब जबकि केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में हैं, महापौर अब कांग्रेस का होगा। ग्वालियर चंबल की रणनीति प्रदेश एवं देश की रणनीति को भी अक्सरर निर्णायक दिशा देती है, ऐसी परिस्थिति में ग्वालियर से भाजपा की हार निश्चित रूप से ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी कसक रही होगी।

उल्लेखनीय है कि विगत 57 साल से ग्वालियर में महापौर के पद पर भाजपा ही रही है। स्व. विष्णु माधव भागवत (1965) से लेकर श्री विवेक शेजवलकर (2019) तक ग्वालियर में महापौर की सीट पर भाजपा ही काबिज रही। इन 57 वर्षों में स्व. श्री नारायण कृष्ण शेजवलकर, स्व. पं. रामअवतार शर्मा, श्री भारत भूषण भार्गव, श्री माधव शंकर इंदापुरकर, डॉ. धर्मवीर, श्री जगदीश गुप्त, श्रीमती अरूणा सैन्या, श्री पूरन सिंह पलैया एवं श्रीमती समीक्षा गुप्ता, श्री विवेक शेजवलकर महापौर के पद पर रहे।

इतिहास साक्षी है कि ग्वालियर से सांसद रहते हुए गुना के सांसद रहते हुए भी स्व. माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर में महापौर का पद कांग्रेस के पास आए, इसका पूरा प्रयास किया। यही नहीं श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस में रहते हुए अपने समर्थक दर्शन सिंह सहित कई नेताओं को महापौर बनाने का प्रयास किया पर असफल रहे। इस बार बदले हालात में श्री सिंधिया भाजपा में थे और श्रीमती सुमन शर्मा को जिताने का प्रयास पूरी भाजपा के साथ कर रहे थे। सामने श्री सतीश सिकरवार की धर्मपत्नी महापौर पद के लिए थीं, जिसने श्री सिंधिया के खास मुन्नालाल गोयल को उपचुनाव में पटकनी दी थी। पर 2022 में इतिहास ने फिर खुद को दोहरा दिया। जो भाजपा महल के बगैर 57 साल से महापौर का चुनाव जीत रही थी वह महल के साथ रहने के बाद भी हार गई।

यद्यपि हार का यही एक कारण है, यह कहना गलत होगा। महापौर पद पर भाजपा की हार का बारीकी से विश्लेषण अभी शेष है पर निश्चित रूप से यह इतिहास तो लिखा ही जाएगा कि महल का आशीर्वाद इस बार भी महापौर को जिता नहीं पाया। इधर, गुना संसदीय क्षेत्र में गुना एवं अशोकनगर में भी कांग्रेस प्रत्याशियों की नगरीय निकाय में उमीद से अधिक जीत भाजपा के लिए चिंता का विषय है। कारण यह माना जा रहा है कि सिंधिया के आने के बाद कांग्रेस को प्रत्याशियों का ही टोटा पड़ेगा। वहीं जिन वार्डों में भाजपा जीती है वह वार्ड परंपरागत रूप से भाजपा के हैं, पर अब वहां भाजपा से सिंधिया समर्थक प्रत्याशी ही पार्षद चुनकर आए हैं। ऐसे में पार्टी नेता यह अवश्य प्रश्न कर रहे हैं कि इससे भाजपा को क्या लाभ हुआ।

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