पॉलिटिकल किस्से : इंदिरा गांधी लहर में भी ग्वालियर से नारायण शेजवलकर ने जीत दर्ज की
- 1980 में हुए आम चुनावों में राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने दी थी इंदिरा गांधी को रायबरेली में चुनौती
- चंद्रवेश पांडे
1980 के आम चुनावों में ग्वालियर-अंचल की तीन सीटों पर कांग्रेस जीती
ग्वालियर। आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों में देश में गैर कांग्रेसी सरकार तो बनी, लेेकिन लंबे समय तक चल नहीं सकी। यह गैर- कांग्रेसी सरकार मुश्किल से ढाई साल ही चल पाई। राजनीति की चतुर खिलाड़ी इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक कौशल से पहले तो चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया और बाद में उनकी सरकार गिरा दी। इसके चलते 1980 में फिर आम चुनाव हुए। यह धारणा बनी कि सरकार तो कांग्रेस ही चला सकती है। एक बार फिर इंदिरा गांधी का दौर चला, लेकिन इधर ग्वालियर में इंदिरा लहर के बाद भी कांग्रेस जीत नहीं सकी।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया इस बार रायबरेली में इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने चली गईं। माधवराव सिंधिया पहली बार कांग्रेस के टिकट पर गुना से लड़े। ग्वालियर छोड़कर शेष तीनों सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी विजयी हुए। उधर इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने रायबरेली पहुंची राजमाता भी चुनाव हार गईं, लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी में इतना डर पैदा कर दिया कि इंदिरा गांधी को मेडक सीट से भी नामांकन दाखिल करना पड़ा था। सन् 80 के चुनाव से पहले देश के राजनीतिक परिदृश्य में बड़े बदलाव हुए। इंदिरा गांधी से अलग हुए एक खेमे ने कांग्रेस अर्स बना ली थी। इस पार्टी के अध्यक्ष ब्रह्मानंद रेड्डी व बाद में देवराज अर्स रहे। देवराज अर्स कर्नाटक में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी व अर्स की पार्टियों में चुनाव चिन्ह को लेकर झगड़ा चला। बाद में चुनाव आयोग ने इंदिरा कांग्रेस को 'हाथ का पंजाÓ व कांग्रेस अर्स को चरखा चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया।
दोहरी सदस्यता के मसले पर संकट
उधर जनता पार्टी की सरकार भी दोहरी सदस्यता के मसले पर संकट में आ गई। बाद में इसी मुद्दे ने भाजपा को जन्म दिया। इंदिरा गांधी ने पहले चौधरी चरण सिंह की सरकार बनवाई फिर समर्थन वापस ले लिया था। जनता पार्टी के आपसी झगड़ों के चलते जनता का भी गैर कांगे्रसवाद से मोह भंग हो गया, और ढाई साल बाद कांग्रेस की फिर सत्ता में वापसी हो गई। 1977 के चुनाव में कांग्रेस के समर्थन से जीतने वाले माधवराव सिंधिया बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। जल्दी ही वे कांग्रेस में अच्छी खासी हैसियत पा गए। सन् 1980 के टिकट वितरण में इंदिरा गांधी ने उनकी खूब पूछ परख की। वे लगातार तीसरी बार गुना से चुनाव के मैदान में उतरे। इधर ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना में भी प्रत्याशियों के चयन में उन्हीं की चली। बताते हैं कि ग्वालियर से चंद्रमोहन नागोरी का नाम तय हो गया था, लेकिन बाद में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गौतम शर्मा ने राजेन्द्र सिंह के नाम की सिफारिश श्री सिंधिया से की।
अपने समय के दिग्गज नेता नारायण कृष्ण शेजवलकर जीते चुनाव
हालांकि राजेन्द्र सिंह व उनके परिवार की छवि शुरू से ही महल विरोधी थी, लेकिन श्री सिंधिया ने गौतम शर्मा के कहने पर राजेन्द्र सिंह के नाम को सहमति दे दी, और ऐनवक्त पर चंद्र मोहन नागोरी का टिकट कट गया। कांग्रेस के राजेन्द्र सिंह का मुकाबला जनता पार्टी के नारायण कृष्ण शेजवलकर से था। श्री शेजवलकर अपने समय के दिग्गज नेता थे। 77 के चुनावों में टिकट वितरण से लेकर पार्टी जिताने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। वे खुद भी सन् 77 में डेढ़ लाख वोटों से जीते थे। 80 में मुकाबला कांटे का था। लेकिन मतदान से दो तीन रोज पहले राजमाता ने ग्वालियर में चुनावी सभाएं लेकर राजेन्द्र सिंह की हवा बिगाड़ दी। श्री शेजवलकर ने उन्हें 25, 480 वोटों से पटखनी दे दी। कांग्रेस शेष तीनों सीटों पर विजयी रही।
- गुना में माधवराव ने नरेश जौहरी को 1, 16, 126 वोटों से हराया। जौहरी संविद सरकार में मंत्री रहे थे।
- भिण्ड में कांग्रेस के काली चरण शर्मा ने जनता पार्टी के रमाशंकर सिंह को 10 हजार वोटों से हराया।
- मुरैना में कांग्रेस के बाबूलाल सोलंकी ने छबिराम अर्गल को 32,533 वाटों से शिकस्त दी।