- अदिति सिंह
भारत में विकास के कार्यों में कानूनी पेचीदगियां, धार्मिक एवं राजनीतिक हस्तक्षेप कोई नई बात नहीं है। वैसे भी विपक्ष और कुछ वर्ग विशेष के नुमाइंदों ने सरकार के प्रत्येक विकास के कार्य को सांप्रदायिक और सियासी मुद्दा बनाने की कुत्सित मानसिकता बना ली है। हाल ही में हमने नये संसद भवन के उद्घाटन, पवित्र सेंगोल और राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा जैसे प्रकरणों में कई कुतर्कों और दुर्भावनाओं के विष वमन को झेला है। यही संकीर्ण मानसिक प्रवृत्ति अन्य छोटे-बड़े विकास कार्यों को भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश करती रहती है।
दिल्ली में एक सुनहरी मस्जिद है। यह लुटियन जोन में सड़क के बीचों-बीच गोल चक्कर में स्थित है। कभी इस गोल चक्कर को ‘हकीम जी का बाग’ भी कहा जाता था। इस छोटे से बाग में सुनहरी मस्जिद खड़ी है। इसके चारों तरफ दिन-रात ट्रैफिक चलता है। नई दिल्ली नगर परिषद (एनडीएमसी) ट्रैफिक व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए सुनहरी मस्जिद को हटाना चाहती है। एनडीएमसी के चीफ आर्किटेक्ट ने हाल ही में दिए एक विज्ञापन में जनता से इस मस्जिद को हटाने के संबंध में अपने सुझाव और आपत्तियां मांगी थी। जैसे ही ये विज्ञापन आया मानो कोई भूचाल आ गया हो। राजनेताओं से लेकर मौलानाओं ने इस मस्जिद को हटाने का विरोध किया। इसके विरोध में दिल्ली उच्च न्यायालय में दो याचिका भी दायर हुईं।
एक याचिका में तो इसे दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन पर बने होने का दावा भी किया है, जबकि एनडीएमसी ने हलफनामा देकर कहा है कि ये एनडीएमसी की जमीन है। सोशल मीडिया पर भी इसका हर तरह से विरोध किया जा रहा है। हैरत की बात है कि हर कोई जानता है कि इस मस्जिद की वजह से अकसर वहां ट्रैफिक की समस्या बनी रहती है और जुमे के दिन यहां नमाजियों की अच्छी खासी भीड़ रहती है। लेकिन इसे एक सांप्रदायिक मुद्दा बनाया जा रहा है और यह आरोप लगाया जा रहा है कि ये सब किसी एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए किया जा रहा है। जबकि सच तो यह है की पिछले पांच साल में इसी वर्तमान सरकार ने विकास कार्यों के लिए अनगिनत मंदिरों को तोड़ कर सड़कें चौड़ी करवाईं और निर्माण कार्य करवाए जिससे ट्रैफिक की समस्या में लाभ भी हुआ। लेकिन ये सब न इतनी प्रमुखता से मीडिया में आता और न ही यह सब कभी विस्तृत चर्चा का विषय बनता है । शायद मंदिरों को तोड़ कर ट्रैफिक की समस्या का हल निकालने को सकारात्मक रूप से देखा जाता है और जबकि यह बात दूसरी ओर लागू नहीं होती।
इस मस्जिद को दिल्ली सरकार की 2009 की अधिसूचना के अनुसार ग्रेड-III विरासत भवन के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। आपको यह जान कर अचरज होगा की 2009 की अधिसूचना के तहत, विरासत संरक्षण समिति की सलाह पर नई दिल्ली नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष ने 141 विरासत स्थलों को शामिल किया था। अचरज वाली बात यह है कि 141 स्थलों में से 51 मस्जिदें और मकबरे हैं और केवल दो मंदिर हैं, जिन्हें विरासत स्थलों में शामिल किया है। अगर आप दिल्ली एकीकृत भवन निर्माण उपविधि 2016, के अनुलग्नक - ll में क्लॉज 1.5 को पढ़ें तो साफ समझ आता है की इन स्थलों को विरासत स्थलों की सूची में सुझाव देने से लेकर स्थान देने तक का जिम्मा सरकार का है।
इस सूची को तैयार करके जून 2005 में सार्वजनिक किया गया था, जब यहां कांग्रेस की तथाकथित पंथनिरपेक्ष सरकार थी। उसके बाद अक्टूबर 2009 में ये सब स्थल इस सूची में शामिल किए गए। अब प्रश्न यह है की 2009 में जब ये सूची तैयार की गई तब केवल एक समुदाय के स्थलों के प्रति इतना झुकाव क्यों? माना दिल्ली में 12वीं शताब्दी से मुसलमान शासकों का राज रहा है। पहले दिल्ली सल्तनत और फिर उसके बाद मुगल परंतु दिल्ली का इतिहास इससे भी पुराना है। दिल्ली पांडवों, मौर्यों, तोमरों और चौहानों के अधीन रही है। क्या इसकी सांस्कृतिक विरासत में केवल मस्जिद और मकबरे ही आते हैं? और न के बराबर मंदिर? क्या इसके अलावा इसका कोई इतिहास नहीं ? या उसको खोजने से या इन सूचियों में स्थान देने से आप ये न भूल जाएं कि दिल्ली के इतिहास का अर्थ है केवल मुसलमान शासकों का शासन। दिल्ली का नाम सुनते ही आपके दिमाग में जो छवि बनती है वो यही तो बनती है। इसका कारण यह है हमें इतिहास में पढ़ाया ही यही गया है। इसे मनोविज्ञान में इंडॉक्ट्रिनेशन (indoctrination) कहा जाता है जब किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण को बहुत ही सूक्ष्म तरीके से बदला जाता है। रोमिला थापर जैसे इतिहासकार इसी इंडॉक्ट्रिनेशन के सहारे भारत के लोगों के दिमाग को भरमाते है। हम लोग बिना इस बात का विश्लेषण किए कि हमें ऐसा इतिहास या कहानी क्यूं सुनाई जा रही हैं , इसी को सच मान लेते है। ये भूल जाते हैं कि इस कहानी के पीछे की क्या राजनीति है। इन्हीं कहानियों ने देश के युवा को भरमाया है । उसे अपनी संस्कृति और धर्म से दूर किया है।
यह सर्वविदित है कि पूर्व की तथाकथित पंथनिरपेक्ष सरकारों ने एक विशेष वर्ग के वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए , कई कानूनी दांव-पेंच खेले हैं और यह उनके कई कार्यों में दिखाई देता है, जैसे कि सांस्कृतिक विरासत की सूची, कम्युनल वायलेंस बिल, वक्फ बोर्ड को दिये कई अधिकार इत्यादि।
जिस तरह से एनडीएमसी द्वारा सुझावों को आमंत्रित किया गया है, वो भी एक विडंबना है। क्या एनडीएमसी के पास ऐसे संसाधन हैं, जिनसे वो एक निश्चित समय में बहुत ही बारीकी से सुझावों, उनकी गुणवत्ता और स्रोतों की विश्वसनीयता को सत्यापित कर सके? इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में नकली ई-मेल और ट्विटर अकाउंट बनाना क्या इतना मुश्किल है?
यह भी सत्य है कि 80-90 फीसदी मामले बातचीत और आपसी सहमति से सुलझाने की कोशिश होती है और कई कोशिशें नाकामयाब हो जाती हैं। वर्ष 2015 में जयपुर में कुल 13 प्राचीन मंदिरों को मेट्रो रेल परियोजना के लिए तोड़ा गया था। इसमें रोजगारेश्वर महादेव और कष्ट हरण महादेव जैसे प्राचीन मंदिर भी थे। ये निर्णय मंदिर समिति की सहमति से लिए गए थे और वैकल्पिक व्यवस्था की भी बात हुई थी।
गुजरात में भी बस रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम (बीआरटीएस) के निर्माण के दौरान कई मंदिरों को तोड़ा या विस्थापित किया गया। ऐसे ही कोलकाता में हवाईअड्डे के विस्तार के समय में एक मस्जिद, जिसकी ऊंचाई 25 मीटर थी उसे हटाने के लिए हवाईअड्डा प्राधिकरण 1986 से प्रयासरत था। मस्जिद दूसरे रन-वे के उत्तरी छोर से 200 मीटर की दूरी पर थी। अंत में जब मस्जिद समिति नहीं मानी तो कई गुना लागत के साथ हवाईपट्टी को दूसरे छोर से विस्तृत किया गया। इन अड़चनों को वजह से इस हवाईअड्डे के विस्तार का काम 2013 में पूरा हो पाया।
इसके विपरीत अगर गुजरात के बीआरटीएस परियोजना की बात करें तो उस समय के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही ये परियोजना सफलतापूर्वक पूरी हो पाई। एक पुराने साक्षात्कार में एम. रामचन्द्रन (जो उस समय नगर विकास मंत्रालय में सचिव थे) कहा था कि नगर आयुक्त को केवल मुख्यमंत्री के कार्यालय में सूची भेजनी होती थी और बाकी का काम हो जाता था।
सुनहरी मस्जिद संसद के पास एक अत्यंत संवेदनशील स्थान पर है जहां बार बार ट्रैफिक जाम लगना सुरक्षा के दृष्टिकोण से अत्यंत भयावह है। भारत की सरकार को भी ये समझना होगा कि बातचीत और सुझावों का अपना महत्व है, अपितु राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर इस तरह से निर्णय लेना सरकार की कमजोरी को ही उजागर करता है। विकास के कार्यों में यदि ऐसी बाधाएं आती हैं तो उनका निराकरण प्रशासनिक सख्ती से करना ही उचित है। पूर्व की सरकारों द्वारा पोषित संकीर्ण स्वार्थों और स्तरहीन कुतर्कों को कुचल कर ही स्वर्णिम भविष्य की आधारशिला रखी जा सकती है। सरकार से देशहित में कड़ी रवैया अपेक्षित है। उम्मीद है कि वर्तमान सरकार आम नागरिकों की विकास संबंधी अपेक्षाओं पर एक निर्णायक कदम उचित समयावधि में लेगी ताकि ये या ऐसी कोई और समस्या भविष्य में गतिरोध उत्पन्न न कर सके।
(लेखिका, सुप्रीम कोर्ट की वकील हैं।)