पुनर्मूल्यांकन कर नई शिक्षा नीति को प्रभावी रूप से लागू करना समय की मांग
बीरेंद्र पांडेय
शिक्षा के संबंध में गांधी जी का मानना था, शिक्षा ऐसी हो जो बालक अथवा मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास कर सके। इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद का कहना था कि मनुष्य की अंर्तनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। यूनेस्को की डॉलर्स कमेटी के रिपोर्ट के अनुसार किसी भी देश की शिक्षा का स्वरूप उस देश की संस्कृति एवं विकास के अनुरूप होना चाहिए। अर्थात उस देश का विकास उसके तासीर के हिसाब से होने चाहिए। क्या भारतवर्ष में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का है! यह बड़ा प्रश्न है? स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध विभिन्न महापुरुषों के नेतृत्व में देश की आजादी हेतू जहाँ एक तरफ आंदोलन चलाए जा रहे थे। तो दूसरी तरफ महामना मदन मोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे, डॉक्टर एनी बेसेंट द्वारा आधुनिक शिक्षा के साथ भारतीय चिंतन शिक्षा प्रणाली कैसे लागु किया जाये इस मंथन में लगे हुए थे, तथा अपना वैचारिक और व्यवहारिक संघर्ष जारी रखा था। जिसका प्रतिमान (मॉडल) आज भी देश खड़े हुए दिखाई पड़ रहे हैं।
15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा तो फहरा दिया गया। परंतु देश की व्यवस्था में किसी भी प्रकार का मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात अपेक्षा यह थी कि देश की शिक्षा और स्वास्थ्य का स्वरूप भारतीय दृष्टि से अपनी सामाजिक राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप होगा, परंतु ऐसा नहीं किया गया। ऐसा लगता है कि भारत की समृद्ध ज्ञान-संपदा और उसकी अभिव्यक्ति को भी अतीत में अंग्रेजों के पास बंधक रख दिया गया। और मैकाले साहब के ऐसे मुरीद हुए की अपनी ज्ञान परम्परा को अपनाना तो दूर स्मृति भ्रंस के कारण पहचानने से ही इंकार कर दिया गया। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले उन सारे महापुरुषों के विचारों को दरकिनार करके अंग्रेजों के दी हुई शिक्षा व्यवस्था में समय-समय पर कुछ छोटे-मोटे बदलाव करके उसी व्यवस्था को जारी रखा गया। और यदि व्यवस्था में परिवर्तन के कुछ प्रयास हुए भी तो वे अधिकतर दिशाहीन थे, जिनके दृष्टि भारतीय एवं देश की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं थी।
आजादी के बाद पहली बार वर्ष 1949 में उच्च शिक्षा में सुधार के लिए राधाकृष्णन आयोग बना। वर्ष 1952 में माध्यमिक शिक्षा के लिए मुदलियार आयोग का गठन किया गया। सन 1964 में कोठारी आयोग द्वारा समग्र शिक्षा पर काम शुरू हुआ। परंतु आश्चर्यजनक बात यह है की प्राथमिक शिक्षा हेतु कोई आयोग आज तक बना ही नहीं। जिस उम्र में भारतीय ज्ञान संस्कार की परिकल्पना अथवा नींव डालनी थी उसके लिए कोई आधारभूत शिक्षा प्रणाली विकसित ही नहीं किया गया। इसी से हम देश के नेतृत्व की शिक्षा के प्रति दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं।
हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के 21 वर्ष के बाद प्रथम शिक्षा नीति 1968 में बनी, दूसरी 1986 में बने। इस अंतराल को ध्यान से देखें तो स्पस्ट हो जाता है की भारत में शिक्षा को ले कर कोई गंभीरता नहीं थी। जबकि किसी भी देश के प्रगति या उत्थान की नींव शिक्षा होती है। स्वतंत्रता के पश्चात देश में नियमित रूप से हर 5 वर्ष के बाद आर्थिक योजनाएं बनाई जाती रही, हर वर्ष निश्चित समय पर बजट बनता रहा। पर शिक्षा के संदर्भ में किसी प्रकार निश्चित समय सीमा के अंदर कोई व्यवस्था बनाने का विचार नहीं किया गया।
शिक्षा के सुधार के संदर्भ में जो आयोगों का गठन हुआ, उन्होंने कुछ अच्छी अनुशंसायें भी दी परंतु दृढ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में उनका क्रियान्वयन नहीं किया गया। उदाहरण के लिए वर्ष 1968 में कोठारी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने की बात कही थी इसे 1986 की शिक्षा नीति में स्वीकार किया गया था, परंतु आज तक व्यवहार में नहीं लिया गया। स्वतंत्रता के बाद देश के विमर्श के केंद्र में बनती बिगड़ती "सरकारें" रहीं। जबकि भारत की परंपरा रही है कि हमारे देश में शिक्षा स्वास्थ्य सहित अधिकतर व्यवस्थाओं के केंद्र में "समाज" रहा है।
आज भारत में 34 साल बाद 2020 में आई नई शिक्षा नीति कई सुझाव निर्देशों के बाद लागु होने की तैयारी में है, जिसे इसरो के वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की कमेटी ने तैयार किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 21वीं सदी के भारत की जरूरतों को पूरा करने के लिये भारतीय शिक्षा प्रणाली में बदलाव हेतु जिस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को मंज़ूरी दी है, अगर उसका क्रियान्वयन सफल तरीके से होता है तो यह नई प्रणाली भारत को विश्व के अग्रणी देशों के समकक्ष ले आएगी। नई शिक्षा नीति, 2020 के तहत 3 साल से 18 साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के अंतर्गत रखा गया है। 34 वर्षों पश्चात् आई इस नई शिक्षा नीति का उद्देश्य सभी छात्रों को उच्च शिक्षा प्रदान करना है जिसका लक्ष्य 2025 तक पूर्व-प्राथमिक शिक्षा (3-6 वर्ष की आयु सीमा) को सार्वभौमिक बनाना है। स्नातक शिक्षा में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, थ्री-डी मशीन, डेटा-विश्लेषण, जैवप्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों के समावेशन से अत्याधुनिक क्षेत्रों में भी कुशल पेशेवर तैयार होंगे और युवाओं की रोजगार क्षमता में वृद्धि होगी।