यौन शोषण के शिकार बच्चों को न्याय दिलाने में मदद करेगी बाल मित्र पुलिस
परोमा भट्टाचार्य
वेबडेस्क। बिहार के बांका के चांदन थाना इलाके में 8 साल की मासूम को अगवा करके गैंगरेप किया गया। दरिंदों ने उसकी आंखें फोड़कर उसकी हत्या कर दी। अंत में उसे नाले में बहा दिया दिया। यह कहानी इकलौती नहीं है। आए दिन ऐसी घटनाएं हमें मीडिया रिपोर्टों के जरिए पढ़ने को मिलती रहती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर घंटे 3 बच्चों के साथ बलात्कार और 5 बच्चों का यौन उत्पीड़न होता है। रिपोर्ट बताती है कि देश में बाल यौन शोषण के 2020 में 47,221 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 99 प्रतिशत लड़कियां थीं। वहीं बिहार में बाल यौन शोषण के पॉक्सो (यौन शोषण से बच्चों का संरक्षण) अधिनियम के तहत वर्ष 2018 में 2094, वर्ष 2019 में 1540 और 2020 में 1591 मामले दर्ज किए गए। इस तरह बिहार में 2020 में पिछले साल की तुलना में यौन शोषण की पीडि़ताओं की संख्या बढ़ गई।
यौन शोषण के शिकार बच्चों को न्याय देने की प्रक्रिया पुलिस से शुरू होती है। पुलिस में ही आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाती है। न्याय की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने के लिए इस पहली सीढ़ी को पार करना महत्वपूर्ण होता है। लेकिन जिस पहली सीढ़ी से न्याय की उम्मीद बंधनी शुरू होती है, उसके बारे में कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेंस फाउंडेशन (केएससीएफ) की एक अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि पॉक्सो (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) अधिनियम के तहत 3 हजार मामले हर साल निष्पक्ष सुनवाई के लिए अदालत तक पहुंचने में विफल रहते हैं। हर दिन यौन शोषण के शिकार चार बच्चों को न्याय से इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि पर्याप्त सबूत और सुराग नहीं मिलने के कारण पुलिस द्वारा उनके मामलों को बंद कर दिया जाता है।
आरोपपत्र दाखिल किए बिना जांच के बाद पुलिस द्वारा बंद किए गए मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है। न्यायिक प्रक्रिया की पहली सीढ़ी का ही यह हाल नहीं है। यौन शोषण और बलात्कार के शिकार बच्चों के मामले जैसे-जैसे ऊपर पहुंचते हैं, वैसे-वैसे उनके मामलों को कोई न कोई बहाना बनाकर बंद कर दिया जाता है। लेकिन सबसे बड़ी चिंता एफआईआर के बाद पुलिस द्वारा मामलों को बंद करने को लेकर है।पीडि़तों के न्याय को सुनिश्चित करने में आरोपपत्र दाखिल करना एक महत्वपूर्ण कदम है क्योंकि इससे निष्पक्ष सुनवाई और न्याय का मार्ग खुलता है। एनसीआरबी के अनुसार पॉक्सो के बहुसंख्यक (40 फीसदी) मामले जो किसी कारण आरोपपत्र दाखिल किए बिना पुलिस द्वारा बंद किए गए थे, वे सही थे लेकिन उन्हें इसलिए बंद करना पड़ा क्योंकि उसके पक्ष में पर्याप्त साक्ष्य या सुराग नहीं मिले।
महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली ऐसे राज्य हैं, जिनमें पॉक्सो के 51 प्रतिशत मामले हैं। इन राज्यों में सजा की दर 30 फीसदी से 64 फीसदी के बीच है, जो काफी कम है। यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों के यौन शोषण से संबंधित अपराधों की गंभीर रूप से जांच की जानी चाहिए और अपराधी का पता लगाने के के सभी प्रयास किए जाने चाहिए। यह समझा जाता है कि छोटी उम्र के कारण बच्चे आरोपी की पहचान करने में सक्षम नहीं होते हैं और उस परिस्थिति की भी व्याख्या नहीं कर पाते जिसके आधार पर घटना को जांच के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन ये कुछ ऐसे मामले हैं जो अपवाद हैं। इसलिए अधिकांश मामलों को पुलिस द्वारा सबूतों की कमी या अपराधी की खोज नहीं होने का बहाना बनाकर बंद नहीं किया जा सकता है।
मामलों को बंद करना पुलिस की जांच और नीयत पर एक ओर जहां संदेह पैदा करता है, वहीं दूसरी ओर यह एक गंभीर चिंता भी पैदा करता है। इसलिए पुलिस को बिना किसी देरी की जांच प्रक्रिया का संचालन करने की सलाह दी जाती है। दूसरी ओर यौन शोषण के शिकार बच्चे को न्याय दिलाने के उद्देश्य से पुलिस के लिए त्वरित जांच करना भी महत्वपूर्ण है।
ऐसे मामलों में जहां अभियुक्त एक परिवार का सदस्य है या जहां पीड़ित हाशिए के समाज से आते हों। या आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले पीड़ितों, घरेलू नौकरों, गरीब माता-पिता के बच्चों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों के बच्चों को लगातार अपने मुकदमों को जारी रखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है। जिन मामलों में पीड़ित हाशिए के समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उन मामलों में पीडि़त एफआईआर में वर्णित तथ्यों से किसी प्रभाव में आकर या किसी मजबूरी में समय आने पर अपने बयान को बदल देते हैं या सच से खुद मुकर जाते हैं। ऐसे मामलों में पीड़ित और परिवार को मामले को जारी रखने के लिए समझाया जाना चाहिए या उनको सलाह दी जानी चाहिए। साथ ही, पीड़ितों को अभियुक्तों द्वारा मिल रही धमकियों और लोभ-लाभ के प्रलोभन से बचाने की भी आवश्यकता है, क्योंकि ऐसे उपाय यदि नहीं किए गए तो बच्चों के खिलाफ यौन अपराध बढते रहेंगे।
इसलिए पॉक्सो के तहत रजिस्टर्ड सभी मामलों को अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक या पुलिस उपायुक्त द्वारा बारीकी से जांच की आवश्यकता है। इसके अलावा पीडि़तों और उनके परिवारों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि आरोपी किसी भी तरह पीडि़तों को प्रभावित नहीं कर सकें और पीडि़तों की पहचान को बदल देना चाहिए।बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की जांच के लिए एक समर्पित यूनिट की भी आवश्यकता है। यूनिट के लिए पर्याप्त जनशक्ति, बुनियादी ढांचा और उपकरण होना आवश्यक है, ताकि इन मामलों की निरंतर और प्राथमिकता से जांच करने में कोई असुविधा पेश नहीं हो। देश के अधिकांश जिलों में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की जांच के लिए विशेष इकाईयों का होना जरूरी है। पीड़ितों के साथ करुणा और सहानुभूति से भी पेश आने की जरूरत है।
पॉक्सो मामलों की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों के लिए नियमित रूप से ट्रेनिंग और वर्कशॉप की भी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उनके व्यवहार या आचरण को बाल मित्र बनाया जा सके और बच्चों और महिलाओं से संबंधित मामलों को पूरी संवेदनशीलता के साथ निपटाया जा सके।
एक साल से यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों को न्याय दिलाने के लिए केएससीएफ की ओर से ''जस्टिस फॉर एवरी चाइल्ड'' नामक अभियान देशभर में चलाया जा रहा है। अभियान का लक्ष्य बच्चों के यौन उत्पीड़न के मामले में देश के उन 100 संवेदनशील जिलों में पॉक्सो अधिनियम के तहत चल रहे मुकदमों में कम से कम 5000 मामलों में बच्चों को तय समय में त्वरित न्याय दिलाना है। इस अवधि के दौरान यौन शोषण और बलात्कार के शिकार बच्चों को कानूनी और स्वास्थ्य सुविधाएं, पुनर्वास, शिक्षा और कौशल विकास के अवसरों की सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएंगी। बाल यौन शोषण के पीड़ितों और उनके परिवारों को विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य सहायता भी उपलब्ध कराया जाएगा।बच्चों का यौन शोषण और बलात्कार जघन्यतम अपराध है। इसको करता कोई और है लेकिन इससे पूरे समाज और देश का सिर शर्म से झुकता है। इसलिए समय रहते उपर्युक्त उपायों पर यदि कार्रवाई होती है तो कोई कारण नहीं कि बच्चों का यौन अपराधों से संरक्षण और सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो।