स्वतंत्रता के बाद मिशनरियों के विरुद्ध चलाया अभियान

रमेश शर्मा

Update: 2024-01-25 20:21 GMT

26 जनवरी भारत के लिये अति पवित्र दिन है। यह भारत के गणतंत्र का उत्सव दिवस है। दासत्व के एक लंबे अंधकार के बाद भारतीय जीवन में अपना संविधान आया था। भारतीय गणतंत्र की वर्षगाँठ के साथ इस दिन एक और गौरव मयी स्मृति जुड़ी हुई है। वह स्मृति है रानी गाइदिनल्यू के जन्मदिन की। वे क्राँतिकारी थीं उन्होंने तेरह वर्ष की उम्र से सशस्त्र संघर्ष आरंभ किया था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी उन्हे शाँति न मिली। नागालैंड के लिये नागा संस्कृति ही महत्वपूर्ण है। वे नागालैंड के स्वत्व और स्वाभिमान की पक्षधर थीं। इस नाते चाहतीं थीं कि स्वतंत्रता के बाद नागालैंड में नागा संस्कृति ही स्थापित हो पर ईसाई धर्म प्रचारकों का एक बड़ा नेटवर्क था। उनके काम को भारत की स्वतंत्रता के बाद भी कोई अंतर नहीं आया । स्वतंत्रता के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने स्व संस्कृति का अभियान छेड़ा। इसलिये ईसाई मिशनरीज उन्हें अपना शत्रु मानने लगे इस कारण उन्हें स्वतंत्रता के बाद भी भूमिगत होना पड़ा।

रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को नागालैण्ड के गाँव रांगमो-नंग्कओ में हुआ। उन दिनों नागालैण्ड में अंग्रेज दो तरह के अभियान चला रहे थे एक स्थानीय निवासियों के आर्थिक शोषण का और दूसरा उनके धर्मांतरण का। अंग्रेजों की अपनी रणनीति थी। पहले भोले भाले सामान्य जनों पर दबाव बनाना। फिर राहत के नाम पर ईसाई मिशनरियां पहुँचती और समस्याओं के समाधान के लिये धर्मांतरण का मार्ग सुझातीं। तब सरकार कुछ राहत भी देती। इससे बड़ी संख्या में लोग धर्मान्तरण करने लगे। अंग्रेजों के इस कुचक्र के विरुद्ध नागालैण्ड में हेराका आंदोलन आरंभ हुआ। यह एक सशस्त्र अभियान था जिसका नेतृत्व जादोनाग कर रहे थे। जादोनाग रिश्ते में गाइदिनल्यू के मामा लगते थे। बालिका गाइदिनल्यू बचपन से ही क्राँतिकारी जादोनाग के संपर्क अभियान से जुड़ गयी थी। जादोनाग संदेशों का आदान प्रदान गाइदिनल्यू के माध्यम से ही करते थे। इस नाते गाइदिनल्यू बचपन से ही सभी क्रातिकारियों के संपर्क में आ गयीं थीं। वे तेरह वर्ष की आयु में ही शस्त्र चलाना सीख गयीं थीं और इसी आयु में क्राँतिकारी महिलाओं को शस्त्र प्रशिक्षण भी देंने लगीं थीं। इसी बीच एक मुठभेड़ में जादोनाग बंदी बना लिये गये और उन्हें 29 अगस्त 1931 में फांसी दे दी गयी। इस घटना के बाद क्राँतिकारियों के नेतृत्व का दायित्व रानी गाइदिनल्यू के कंधों पर आ गया। वे सोलह साल की आयु में टीम की कमांडर बनी। बहुत शीघ्र ही उन्होंने एक सशक्त ब्रिगेड तैयार कर ली जिसमें चार हजार क्राँतिकारी थे। उन्होंने नागा नागरिकों से सरकार को टैक्स न देने और अपनी संस्कृति से ही जुड़े रहने की अपील की। उनसे मुकाबले के लिये अंग्रेजों ने असम राइफल तैनात कर दी। असम राइफल्स ने रानी की तलाश के लिए अनेक गाँवों में आग लगा दी। उनकी सूचना देने वाले को पाँच सौ रुपए का पुरस्कार तथा टैक्स माफी की घोषणा की गयी।

रानी की ब्रिगेड के दो ही काम थे एक असम रायफल्स की चौकियों पर हमला करना दूसरा जहाँ भी धर्मांतरण के लिये ईसाई मिशनरियां पहुँचतीं वे लोगों को सचेत करतीं और लोगों से अंग्रेजों को टैक्स न देने की अपील करतीं। इससे अंग्रेज ज्यादा बौखलाये और उन्होंने रानी की तलाश अभियान तेज कर दिया। भय और लालच का नेटवर्क खड़ा किया। अंतत: 14 अप्रैल 1933 को रानी गिरफ्तार की गयीं। उन पर मुकदमा चला और जेल में डाल दी गयीं। उन्हें गोहाटी, तूरा और शिलांग की जेलों में रखा गया और अनेक प्रकार की यातनायें दी गयीं। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली और रानी रिहा की गयीं। लेकिन उन्हें आजादी के बाद भी राहत न मिली। इसका कारण यह था कि सत्ता भले अंग्रेजों की खत्म हो गयी थी पर अंग्रेजों का नेटवर्क ज्यों का त्यों था। प्रशासन में भी और समाज में भी। ईसाई मिशनरियों का काम अपनी जगह चल रहा था। रानी गाइदिनल्यू ने सरकार से नागा संस्कृति के संरक्षण की माँग की। और कबीलों का एकत्रीकरण आरंभ किया। तत्कालीन सरकार ने उनके इस अभियान को विद्रोह की संज्ञा दी और 1960 में वे पुन: भूमिगत हो गयीं और अपनी गतिविधि संचालित करने लगीं। उन्होंने अपने भूमिगत जीवन में रहते हुये सरकार को यह संदेश भेजा कि वे भारतीय हैं, भारत सरकार से उनका संघर्ष नहीं लेकिन वे भारत में रहकर नागा संस्कृति के सम्मान के लिये संघर्ष कर रही हैं। अंतत: 1966 में उनका सरकार से समझौता हुआ वे बाहर सार्वजनिक जीवन में आईं और नागा संस्कृति के सम्मान अभियान में जुट गयीं । उन्हे 1972 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का ताम्रपत्र प्रदान किया गया, 1982 में पद्मविभूषण सम्मान मिला और 1983 में विवेकानंद सेवा सम्मान प्रदान किया गया। उनका निधन 17 फरवरी 1993 में हुआ। 1996 में उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी हुआ। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 24 अगस्त 2015 को उनकी स्मृति में एक सिक्का जारी किया और उन्हे रानी माँ कहकर संबोधित किया ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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