परदा दिया भरम का ताते सूझै नाहिं
वज्रपात: तर्क नहीं, कुतर्क और हठधर्मिता
डॉ. आनन्द पाटील
जैवकीय उद्विकास के सिद्धान्तों को परे रख कर भी यह सिद्ध है कि मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठतम है। हिन्दू धर्म में मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि अवतार की चर्चा है। इन अवतारों व उनके कृत्यों में मनुष्य का विकासक्रम व सभ्यता-संस्कृति के चरण बिना किसी व्याख्या के ही दृश्यमान हैं। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी इस विकास व क्रम की चर्चा दृष्टिगोचर नहीं है। यह बात और है कि कुछ बुद्धिवादी, भगवान बुद्ध को अवतार रूप में सम्मिलित करने को षड्यन्त्र मानते हैं। जबकि वे भूल जाते हैं कि बुद्ध का जन्म हिन्दू के रूप में ही हुआ और उनका बौद्ध रूप हिन्दू सभ्यता-संस्कृति के विकास का क्रमागत रूप है। 'स्वदेशÓ के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित लेख 'राष्ट्रीय सन्दर्भ में भारत की संस्कृतिÓ में मैंने इसे स्पष्ट किया है - 'जब बौद्ध धर्म लोगों के मध्य लोकप्रिय नहीं हो पा रहा था, तब बौद्धों की महायान शाखा के अनुयायियों ने अपनी पूर्व-परम्परा (हिन्दू) का अनुसरण करते हुए अवतारवाद की परिकल्पना की। परिणामत: अवलोकितेश्वर पद्मपाणि, वज्रपाणि, तारा और मञ्जुश्री इत्यादि रूप लोक में प्रचलित हुये। वास्तव में बौद्ध धर्म भारतीय धर्म दर्शन का ही विस्तार था।Ó (पृ. 65-66)
वहीं, बुद्धिवादियों के आरोपों एवं तर्कों का सत्य पक्ष दि. 12 जून 2022 को 'स्वदेश सप्तकÓ में प्रकाशित लेख 'पट्टी पढ़ाये हुए इतिहास की खुलती पोल-पट्टीÓ में देखा जा सकता है। कुलमिलाकर, कोई हठात् इन अवतारों को सत्य न माने, किन्तु उनमें जैविकीय उद्विकास की स्थिति स्पष्टत: विद्यमान है। इस दृष्टि से हिन्दू धर्म को 'वैज्ञानिक धर्मÓ मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए, किन्तु अविचारी हठधर्मिता से ग्रसितों व उक्त सैद्धान्तिकी में दीक्षितों को प्राय: आपत्ति रही है। यह प्रमाणित है कि बुद्धिवादी तर्क नहीं, कुतर्क एवं हठधर्मिता से सामाजिकों में ईर्ष्या व द्वेष रोपित कर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करते हैं। अत: यहाँ जैविकीय उद्विकास व बुद्धिवादी सिद्धान्तों को उधृत कर पुनर्पिष्टपेषण नहीं करेंगे। वह कार्य भाषा एवं साहित्य विभागों के लिये छोड़ देना श्रेयस्कर होगा, क्योंकि बुद्धिवादी सिद्धान्तों तथा उनके प्रणेताओं के उद्धरणों के बिना उनका जीवित रहना कठिन प्रतीत होता है।
यहाँ मूल विषय है, मनुष्य के साथ प्राय: 'सामाजिक प्राणीÓ विशेषण जोड़ कर स्पष्ट किया जाता है कि मनुष्य भी वास्तव में प्राणी ही है, किन्तु सुसभ्य सामाजिकों के मध्य रहने व उसके समाजानुकूल आचरण-व्यवहार को दृष्टिगत रखते हुए उसे 'सामाजिकÓ कहा जाता है। उसी क्रम में ध्यानाकर्षण हो कि जब मनुष्य सभ्यता के विकासक्रम को भूल कर सामाजिकत्व के भेदन हेतु रोपे-रचे-परोसे सैद्धान्तिकीय विवादों में फँसता है, तब वह तार्किकता को ताक पर रख कर कुतर्कों का सहारा लेता है तथा अविचारी हठधर्मिता की सीमाएँ लाँघ कर, अपनी मति एवं प्रज्ञा का प्रयोग किये बिना प्राणीवत व्यवहार करता है। पिछले वज्रपात 'आत्ममुग्धता व अविचारी हठधर्मिता: अवगुण छाड़ै, गुण गहैंÓ में मैंने मनुष्य के इस पक्ष को स्पष्ट किया है। ऐसे मनुष्य जैविकीय उद्विकास की व्यतिक्रम स्थिति की ओर उन्मुख होते हुए पशुवत होते जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनका शरीर भले ही मनुष्य रूपी रह जाये, किन्तु वे मति एवं प्रज्ञा की क्षीणोत्तर स्थिति में पशुवत व्यवहार करने लग जाते हैं। ऐसे कुतर्की, अविचारी व हठधर्मी भारतीय बृहत्तर समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं।
अभी-अभी दीपावली और छठ पर्व सम्पन्न हुआ है। उपरोल्लिखित सैद्धान्तिकी से ग्रस्त अर्थात् उत्पादन, स्व-अस्तित्व के लिए सघर्ष तथा योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धान्तों के भारवाहकों ने भी भारतीय उत्सवी परिधानों में उक्त पर्व मनाये। इससे भी प्रमाणित हुआ कि पूरे विश्व में यह सैद्धान्तिकीय फ्रेम केवल 'वैचारिक ढोंगÓ है। भारत का पड़ोसी देश इसका प्रमाण है कि यह सैद्धान्तिकी जब चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है, तब वह निरंकुश व अराजक हो जाती है। पश्चिम बङ्गाल में उस पशुता, निरंकुशता व अराजकता का सुदीर्घ इतिहास है। भारत के दक्षिणी प्रान्त, केरल में भी उस पशुता, निरंकुशता व अराजकता को देखा जा सकता है। जबकि सर्वविदित है, जहाँ धर्मराज्य (थियोक्रेसी) है, वहाँ बुद्धिवादिता का नामो-निशान नहीं है। इससे यह प्रमाणित होता है कि दो अविचारी, अतिवादी व असहिष्णु कदापि एक साथ नहीं रह सकते। एक स्व-घोषित आधुनिक बुद्धिवादी मित्र का यह कहना कि '40-45 तक तो मेरी भी वही धारा रही, किन्तु 50 तक पहुँचते-पहुँचते अमरकान्त के शकलदीप बाबू की-सी मनोदशा हो गयी है। प्रात: हरिनाम स्मरण और पुष्पम्-पत्रम् के लिए निकल पड़ते हैं। और, दिन भर में पीठ टिकाने मिल जाये, तो शम्भो-शम्भो! यार! ये शिव और हरि जीवन का आधार ही बन गये हैं। बाकी सब खोखला लगता है।Ó सर्वविदित है कि सामाजिकता तथा सभ्यता-संस्कृति में उत्पादन व वर्ग-संघर्ष की स्थिति को मानने व प्रचारित करने वाले बुद्धिजीवी अन्तत: निराशा, एकाकीपन, पलायन, संत्रास के शिकार होकर सामाजिकता तथा मूल्यों से भटक जाते हैं। और, जो हरि व शिव के पास तो छोड़िए, गृहमाता अर्थात् श्रीमती के पास भी नहीं जाते, वे कहाँ-कहाँ जाते हैं, सर्वज्ञात है। 'धर्मपत्नीÓ शब्द में बुद्धिवादियों को 'धर्मÓ शब्द आतंकित करता है। वे पत्नी को गृहमाता मानने के भी पक्षधर नहीं हैं। इस प्रकार वे मनुष्य की विकसित अवस्था में भी उन्मुक्त (पशुवत) जीवन के पक्षधर हैं।
ध्यातव्य है, भारत के दक्षिणी प्रान्त, तमिलनाडु से भक्ति की सर्वव्यापी लहर उठी और सम्पूर्ण भारत में विस्तारित हुई। उसके तिरुवारूर जैसे ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक शहर में, जहाँ से कर्नाटक संगीत का नादस्वर पूरे भारत में गुँजायमान हुआ व 'त्यागराज आराधनाÓ (शिव आराधना) ने सबको मन्त्रमुग्ध किया, शैव होने का अर्थ समझाया, उस शहर में बुद्धिवादियों ने सैद्धान्तिकी कूड़ा-करकट से सामाजिकों में विद्वेष फैलाना जारी रखा है। उनकी पशुता की कथाओं से भारतीय समाज परिचित है ही, किन्तु उनकी पशुता एवं असहिष्णुता की एक घटना इधर प्रकाश में आयी है। सर्वज्ञात है, दीपोत्सव के अवसर पर प्रभु श्रीराम का नामस्मरण न हो, यह असम्भव है। जैसा कि क्रिसमस के अवसर पर ईसा का नामस्मरण न होना कल्पनातीत है। अल्लाह का नामस्मरण दिन में पाँच वक्त होता ही है। किन्तु, तिरुवारूर में स्थित विश्वविद्यालय में आयोजित दीपोत्सव को वामपन्थियों द्वारा 'भगवाकरणÓ और 'हिन्दुत्वÓ करार देकर सामाजिकों के मध्य पशुत्व का संचार करना, उनकी अविचारी हठधर्मिता व पशुता को पुनर्प्रकाशित करता है। चर्चित है कि उस विश्वविद्यालय में नमाज़ अता करने के लिए विशेष स्थान आवंटित है। ज्ञात हो कि विश्वविद्यालय की स्थापना से ही क्रिसमस बड़े स्तर पर मनाया जाता है। क्रिसमस के समय विश्वविद्यालय में इतने सान्ता होते हैं कि कभी तो लगता है कि जहाँ ईसाइयत ने जन्म लिया, वहाँ भी वैसा दृश्य दुर्लभ होगा। उस अतिउदार विश्वविद्यालय में दीपोत्सव मनाने पर राजनीतिक शक्ति-अर्जन के लिए लालायित बुद्धिवादियों ने क़हर बरपाया है। इससे उनकी अविचारी हठधर्मिता व पशुता का पुनर्दर्शन हुआ है। अच्छा होता यदि वे सिद्धान्तों के भ्रमों से मुक्त होकर सामाजिक प्राणी बनते।
तथ्यात्मक आकलन से यह ज्ञात होगा कि तिरुवारूर में स्थित विश्वविद्यालय शिव मन्दिर की भूमि पर स्थापित है। और, आश्चर्य न हो कि हिन्दुओं ने इसे कदापि मुद्दा नहीं बनाया। सर्वविदित है, भारतीय समाज को सुशिक्षित बनाने के लिए मन्दिरों की ही भूमि ली जाती है। इस दृष्टि से हिन्दू समाज ने सहिष्णुता के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इन बातों के आलोक में इसका विस्मरण नहीं होना चाहिए कि भारत राम-कृष्ण-शिव और माँ की भूमि है। राम-कृष्ण-शिव और माँ भारत की संस्कृति हैं। भारतीय समाज में इन देव रूपी अवतारों की पूजा होती है और वे अतिवादियों के संहार की शिक्षा देते हैं। भारतीय संस्कृति में शास्त्र के साथ शस्त्र को अकारण ही महत्व नहीं है। भारतीय समाज निश्चय ही इसे विस्मृत नहीं होने देगा।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)