धर्म सम्राट करपात्रीजी महाराज एक महान सन्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका पूरा जीवन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना और स्वत्व जागरण के लिये समर्पित रहा। इतिहास प्रसिद्ध गौरक्षा आँदोलन उन्हीं के आव्हान पर हुआ था। वे उतना ही भोजन ग्रहण करते थे जितना हाथों में आ जाये। इसलिये करपात्री महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुये। संत स्वामी करपात्री जी महाराज का जन्म श्रावण मास शुक्ल पक्ष द्वितीया संवत् 1964 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिला अंतर्गत ग्राम भटनी में हुआ था। पिता श्री रामनिधि ओझा परम् धार्मिक और वैदिक विद्वान थे । उनकी शिक्षा काशी में हुई थी। और माता शिवरानी देवी भी धार्मिक एवं संस्कारों के प्रति समर्पित गृहणी थीं। जन्म के समय उनका नाम 'हरि नारायणÓ रखा गया। सात वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार और 9 वर्ष की आयु में विवाह हो गया। पत्नि महादेवी भी संस्कारित परिवार की थीं। गौना पन्द्रह वर्ष की आयु में हुआ। पर उनका मन घर गृहस्थी में न लगा। वे सोलह वर्ष की आयु में गृहत्याग कर सत्य की खोज में चल दिये और ज्योतिर्मठ पहुँचे। वहाँ शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी से दीक्षा ली और हरि नारायण से 'हरिहर चैतन्यÓ बने। चौबीस वर्ष की आयु में दंड धारणकर स्वयं अपना आश्रम स्थापित कर 'परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराजÓ कहलाए। 1942 के भारत छोड़ो आँदोलन में संतों की टोली बनाकर शोभा यात्रा निकाली और गिरफ्तार हुये। उस समय की राजनीति में स्वामी जी ने दो बातें अनुभव कीं। एक तो भारत विभाजन के वातावरण की तीव्रता और दूसरे राजनीति में नैतिकता, साँस्कृतिक वोध और राष्ट्रभाव का अभाव। स्वामी ने समाज में इन दोनों बातों पर जाग्रति लाने के लिये देशव्यापी यात्रा की। संत और समाज सम्मेलन किये लेखन भी किया। उनके संबोधनों और साहित्य में एक ओर राष्ट्रचेतना और गौरव का भान होता और दूसरी ओर धार्मिक कुरीतियों का निवारण भी। स्वामी ने सनातन धर्म को विकृत करने वाले किस्से कहानियों का तर्क और प्रमाण सहित खंडन किया । इन दोनों उद्देश्य पूर्ति के लिये दो संस्थाओं का गठन किया ।
पहली अखिल भारतीय धर्म संघ और दूसरी रामराज्य परिषद। आखिल भारतीय धर्मसंघ का गठन 1940 में किया जिसका दायरा व्यापक बनाया। स्वामी जी ने देश भर में पदयात्रा की वे जहाँ कहीं जाते वे गौरक्षा, गौपालन और गौसेवा पर जोर देते थे। और चाहते थे कि भारत में गौहत्या प्रतिबंधित हो। उन्हें तत्कालीन सरकारों से आश्वासन तो मिले पर निर्णय न हो सका। स्वामी जी चाहते थे कि सविधान में संशोधन करके गौ वंश की हत्या पर पूर्ण पाबन्दी लगे जब बात न बनी तब स्वामी करपात्री जी महाराज के नेतृत्व संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। इस धरने में चारों पीठाधीश्वर शंकराचार्य एवं भारत की समस्त संत परंपरा के संत सम्मलित हुये। उन दिनों श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं।
स्वामी करपात्रीजी को आशा थी कि गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लग जायेगा । पर उनकी उम्मीद के विपरीत निहत्ते संतों पर पुलिस का गोली चालन हो गया। जिसमें अनेक संतों का बलिदान हुआ। गौरक्षा आँदोलन में संतों के बलिदान ने स्वामी करपात्री जी महाराज को बहुत क्षुब्ध किया । इसके बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय बनारस स्थित अपने आश्रम में ही बिताया। और माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 को केदारघाट वाराणसी में शरीर त्यागा। यह 7 फरवरी 1982 की तारीख थी। स्वामी जी की इच्छानुसार उनकी नश्वर देह को गंगाजी के केदारघाट में ही जल समाधि दी गई।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)