प्रतिमाएं प्रतीक होती हैं। स्मरण स्वरूप प्रतिमाओं को सनातन सभ्यता में स्थान दिया गया है जिससे व्यक्ति-मनुष्य अपनी निष्ठा, आस्था और रूचि से अपने आईकॉन के साथ तादात्म्य बना सके। विश्व की तमाम सभ्यताएं अपने प्रतीकों के साथ जीती हैं, इसका उल्लेख हर सभ्यता में मिल जाएगा। कभी कोई अपने देवी-देवता से जुड़ा हुआ मिलता है तो कभी अपने पूर्वजों से। हमारे देवी-देवता या ईश्वर की प्रतिमाएं हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों होती हैं, कभी इस पर विचार कीजिए। इस पर भी विचार कीजिए कि जिसे लोग अपनी निष्ठा के साथ देखने-पूजने या मानने लगते हैं, उसके पीछे उस व्यक्ति की कौन सी ऊर्जा कार्य करती है? ऐतिहासिक दस्तावेजों में ऐसे विभिन्न उदाहरण है। ऐसे विभिन्न संघर्ष हैं जिसमें लोग अपने मानिंदों के लिए पर्याप्त हिंसा पर भी उतारू हो जाते हैं और अपने आईकॉन का किसी भी प्रकार से अपमान नहीं होने देना चाहते, न सुनना चाहते हैं। वह व्यक्ति प्रतीक बन जाता है लेकिन प्रतीक केवल प्रतीक नहीं होते वे अस्मिता के भी माध्यम बन जाते हैं।
प्रतिमाओं, मूर्तियों और कलाकृतियों में प्रतीकों की इस अभिप्रेरणा का एक मनोविज्ञान है और सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और दार्शनिक आधार भी है जिसे पीढ़ियां जीती हैं। जिसे पीढ़ियों तक माना जाता है। हाँ, इस संसार में एक धड़ा ऐसा भी है जो इन सबमें विश्वास नहीं करता। वह न मूर्तियों को मानता है और न ही प्रतिमाओं में विश्वास करता है। इन सबके न होने के बाद भी उसके अदृश्य कुछ प्रतीक, मान्यताएं, निष्ठाएं हैं जिसमें वह आत्मशक्ति, समाज शक्ति को ढूँढता है। वे लोग कदाचित अपने तरह की अभिव्यंजना में अपने जीवन के श्रेष्ठ होने की खोज में होते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत में इन सभी तरह के समाज की उपस्थिति है। सनातन परम्परा में तो मूर्तियों की अभिव्यक्ति है भी और नहीं भी है क्योंकि यहाँ सगुण और निर्गुण दोनों हैं। इस्लाम जो भारतीय सनातन परंपरा के साथ भारत में रह रहे हैं उनके लिए ये प्रतिमाएं मायने नहीं रखतीं लेकिन उनकी निष्ठा किसी न किसी में है उन्हें हम प्रतीक के रूप में समझ सकते हैं।
हमारा भारतीय इतिहास अपने महापुरुषों की भी प्रतिमाओं को उनके वैचारिकी के साथ जोड़कर अभिव्यक्त हुआ है। इन मान्य महापुरुषों को मानने और उनमें निष्ठा रखने की आत्मशक्ति और अभिरुचि उनकी अपनी सोच से जुड़ती रही है और एक ऐसा भी दौर उभरकर सामने आता है जब वे अपने आईकॉन के साथ इस प्रकार गहरे जुड़े लगते हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह अपने प्रेरणा पुरुष के प्रति उनकी अपनी निष्ठा है जो उन्हें ऊर्जा-स्रोत सी हो जाती है। भारत में हर भूभाग में ऐसे अभिप्रेरक, ऐसे महामान्य, ऐसे प्रेरणा पुरुष मिलते हैं जो कुछ लोगों, व्यक्तियों या समूहों के लिए प्रतीक-पुरुष या प्रतीक-नेत्री के रूप में स्थापित हैं। शायद ठीक-ठीक अब तक के सभी विद्यमान इन महान सख्शियतों जो हैं तो भी और नहीं हैं तो भी उन सबकी गणना करना मुश्किल है। वे हैं तो, साक्षात्, नहीं हैं तो भी जो उन्हें मानता है या जो उनमें निष्ठा रखता है, उनके ह्रदय स्थल में विराजित हैं, सुशोभित हैं, जिंदा हैं। ऐसा होना भी पर्याप्त पहेली बन जाता है और कदाचित एक समय आता है जब वे किंवदंती भी बन जाते हैं। इसके पीछे के कारणों को समझें। इसके पीछे उनके जीवन मूल्यों को समझें तो उनकी अपनी लीगेसी के पीछे उनके खुद के त्याग की लम्बी पृष्ठभूमि होती है। वे संत भी हो सकते हैं, वे ऋषि भी हो सकते हैं, वे महापुरुष भी हो सकते हैं, वे महाराज्ञी या महाराज भी हो सकते हैं, वे स्त्रियाँ भी हो सकती हैं, वे पुरुष हो सकते हैं। हमारे भारत में तो किन्नर और गन्धर्व भी अपने समय के ऐतिहासिक महत्व को प्रकट करते रहे हैं और उनकी भी अपनी पृष्ठभूमि कुछ लोगों के लिए निष्ठा और आस्था के विषय हैं।
डॉ. भीमराव अंाबेडकर की सबसे बड़ी प्रतिमा का औपचारिक रूप से अनावरण अमेरिका के मैरीलैंड शहर में किया गया है जो 19 फीट ऊंची है। भारत के बाहर भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर की सबसे बड़ी प्रतिमा का औपचारिक रूप से स्थापना किया गया, तो इससे भारत को प्रतिष्ठा मिली है। स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी के रूप में इसे जाना जाएगा। अमेरिका के विभिन्न हिस्सों से 500 से अधिक भारतीय-अमेरिकी और अन्य देशों के लोग सुप्रसिद्ध कलाकार और मूर्तिकार राम सुतार की बनायीं प्रतिमा के प्रत्यक्षदर्शी बने। मौजूद लोगों ने जय भीम के नारे लगाए।
सरदार पटेल की प्रतिमा स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के बाद डॉ. आंबेडकर के स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी की स्थापना हमारे महापुरुषों के प्रति सम्मान, निष्ठा और उनके विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का जीवंत उदहारण है जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया। स्टैच्यू ऑफ यूनिटी गुजरात में जब स्थापित हुई तो लोगों में उत्साह था। अब समानता की प्रतिमा यानी स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी की जब स्थापना हुई तो अमेरिका में रह रहे 4।5 मिलियन भारतीय अमेरिकियों को केवल ख़ुशी नहीं है अपितु भारत में रह रहे लगभग डेढ़ अरब भारतीयों में भी गर्व की अनुभूति है। सबसे अहम् बात यह है कि सरदार पटेल और डॉ. आंबेडकर, दोनों प्रतिमाओं के शिल्पकार राम सुतार ही हैं। 13 एकड़ में बने इस प्रतिमा के अलावा लाइब्रेरी, कन्वेंशन सेंटर और बुद्ध गार्डन भी है। यह स्थल इस प्रकार एक तरह से देखा जाए तो आंबेडकर के वैचारिकी पर कार्य करने वाले अध्येताओं के लिए शोध और अध्ययन का केंद्र भी भविष्य में बनेगा। व्हाइट हाउस से स्टैच्यू ऑफ इक्वेलिटी करीब 22 मील दूर है लेकिन इसमें कोई दो मत नहीं कि जो भी पर्यटक अमेरिका जाएंगे, मैरीलैंड जाएंगे और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के प्रति अपनी अभिरुचि व श्रद्धा के साथ उनके इस परिसर से लाभान्वित होंगे।
इसके पहले तेलंगाना शहीद स्मारक और हुसैन सागर में बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ अब आंबेडकर की प्रतिमा भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनी थी। आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा विजयवाड़ा में भी आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित की गयी है। प्रसिद्ध मूर्तिकार एवं आर्किटेक्ट राम वी सुतार और महाराष्ट्र के अनिल सुतार ने ही इस प्रतिमा को भी डिजाइन किया था और उसे जीवंत बनाया था। अंाबेडकर की 125 फीट ऊंची प्रतिमा है और अब स्टैच्यू ऑफ़ इक्वैलिटी जो अमेरिका में स्थापित हुई है वह मात्र 19 फीट है लेकिन इसका स्थान अमेरिका के मैरीलैंड में सुनिश्चित किया गया है तो इसका सन्देश बड़ा है। व्यक्ति वही, विचार उनके वही हैं लेकिन कभी-कभी स्थान का महत्व प्रासंगिकता को बढ़ा देता है। इस प्रतिमा के साथ कुछ यूं ही हुआ है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री की बात स्मरण आ गयी। जब 125 फीट प्रतिमा का अनावरण हो रहा था तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने कहा था कि आंबेडकर विश्वपुरुष हैं। आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित सिद्धांत सार्वभौमिक है। यह सिद्धांत एक देश के एक शहर, एक राज्य तक सीमित नहीं है। डॉ. बीआर आंबेडकर दुनिया भर के दलित समुदायों के लिए आशा की किरण हैं। यह जो स्टैच्यू ऑफ़ इक्वैलिटी है वह यह सिद्ध कर रही है कि वास्तव में डॉ. आंबेडकर का कद और विचार चिरकाल तक कैसे सबके लिए आशा की लौ बनकर उजाला देते रहेंगे।
भारत की स्थिति डॉ. आंबेडकर के साथ ही जोड़कर क्यों सुधार के लिए देखी जाती है, आज सवाल यह है। सवाल यह है कि भारत और दुनिया में आज भी इक्वैलिटी के लिए डॉ. आंबेडकर को क्यों स्मरण किया जा रहा है? नि:संदेह उनका विचार और उनके लिए गए निर्णय उन्हें महान बना रहे हैं। पुनश्च यदि तेलंगाना की उस प्रतिमा के अनावरण को स्मरण करें तो वहां प्रकाश आंबेडकर ने एक बात कही थी वह बातें आज भी दु:ख को कम करने वाली नहीं लगतीं। प्रकाश आंबेडकर ने कहा था कि कई पार्टियाँ जीतीं, हारीं और सरकारें बदलीं... आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक, यह हम सभी के लिए शर्म की बात है कि दलित अभी भी गरीब हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। यह जो स्थितियों में बदलाव की बात की जा रही है वह यूं ही नहीं है। भारत में अब भी गरीबी है। गरीबी में दलित समाज के लोग ज्यादा हैं। विश्व में भूख और गरीबी के सवाल नि:संदेह समानता के दो पग चलने का आह्वान करते हैं। डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा यदि अमेरिका में स्थापित हुई है तो यह केवल प्रतिमा नहीं है अपितु यह प्रतिमा है भूख और गरीबी से लड़ने के लिए जोश भरने की।
भारत में कोल्हापुर में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा 1950 में सबसे पहले लगायी गयी थी। तब से अब तक भारत में और दुनिया भर में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाएं गाँव-देहात से अमेरिका तक पहुँचीं। उन सब प्रतिमाओं ने जोश भरा लेकिन गरीबी, भुखमरी और दूसरी चुनौतियों से हम सब जूझ रहे हैं। इसका मतलब यह भी निकला है कि प्रतिमाओं के भरोसे न रहें, हमें अपने हिस्से के अधिकार और कर्तव्य-बोध हमारे विकास के पैमाने बन सकते हैं। प्रतिमाएं बननी चाहिए। आस्थाएं होनी चाहिए। हमारे कर्तव्य और अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, यह भी समझने की आवश्यकता है। एक समय उत्तर प्रदेश में और भारत के विभिन्न अंचलों में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमाओं को अपमानित किया गया, उन्हें तोड़ दिया गया, विवाद हुए, संघर्ष हुआ लेकिन उससे हमारे जीवन के संघर्ष कम नहीं हुए। डॉ. आंबेडकर ने शायद इसीलिए कहा था कि शिक्षित बनो, इसको आज समझना आवश्यक है। यह समझना आवश्यक है कि डॉ. आंबेडकर हमसे क्या चाहते थे। यह प्रतिमाएं जिन लोगों ने भी स्थापित की है, उसके पीछे यह उद्देश्य है कि बाबासाहेब के वास्तविक सन्देश को हम आत्मसात करें और अपने स्वयं और आने वाली पीढ़ी के लिए समानता का समाज स्थापित करें।
(लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं)