परित्राणायसाधूनांविनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थायसंभवामियुगेयुगे ।।8।।
श्रीमद भगवद्गीता के अध्याय 4 श्लोक 8मेंश्री कृष्ण के अवतरित होने को समझाते हुए कहा गया है कि, साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-धर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ।
भादप्रद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को,कंसके अहंकार रूपी बंदीगृह के समूल नाश हेतु दिव्य चेतना के प्रकटीकरण को श्री कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव के रूप मनाया जाता है।योगेश्वरकी ब्रह्म चेतना को मुरली मनोहर,गोपाल,मुरलीधर जैसे 100 विविध नामों से नामकरण किया गया,जो उनके विश्वरूपा के नाम को सार्थक करता है।वास्तुपुरुष कीसंकल्पना में भी यही संदेश दिया गया है कि,आस्तित्व में अगर निर्माण की सकारात्मक देव ऊर्जाएं विद्यमान हैं तो,उनके साथ विध्वंस करने वाली नकारात्मक ऊर्जाओं को होना भी अवश्यसंभावी है।जब विध्वंस की ऊर्जाओं का उत्पात बढ़ जाता है,तो रचियतास्वयं ही आस्तित्व की रक्षा हेतु धरापर प्रकटहोकर ऊर्जाओं का संतुलन करते हैं।श्रीमद भागवत गीता के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक में यही उपदेश श्री कृष्ण के द्वारा दिया जाकर,अर्जुन को अपने प्रकटीकरण का कारण दर्शाया है।
जीवन के दर्शन को समझने की जिज्ञासा आदिकाल से ही मानव मन में रही है,तथा सनातन काल से भारत वर्ष की धरा पर,आत्मबोध तथा दिव्य चेतना के मार्ग दर्शन से वेद,पुराण,आख्यान तथा अनेक ग्रंथों में जीवन के लक्ष्य को स्पष्ट किया है।इस गूढ़ जीवन दर्शन को अत्यंत ही सरल स्वरूप में श्री कृष्ण ने अपने उपदेशों के माध्यम से अर्जुन को जीवन के रण मेंप्रकट किया,जिससे अर्जुन की अनेक दुविधाओं का निराकरण हो सका।विश्व के कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करने वाले श्रीकृष्ण ने,श्रीमद भागवत गीता मे मात्र १८ अध्यायों में ही सम्पूर्ण जीवन दर्शन को समाहित कर दिया है।गीता सिर्फ ग्रंथ नहीं अपितु मानवता को समेटे ऐसा अप्रितम संदेश है,जिसको आत्मसात कर लेने से सम्पूर्ण विश्व में जीवन अमृत की अनंत निर्मल धारा का अविरल प्रवाह गतिमान हो उठेगा। आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व जो उपादेयता श्रीकृष्ण के द्वारा जीवन को व्यवहारिक रूप से प्रवाहरत रखने की थी, उससे कहीं बहुत अधिक प्रासंगिकता आज हमें आवश्यक प्रतीत होती है।
योगेश्वर के सभी स्वरूप भव्य हैं,जिनमे से मुरलीमनोहर रूपजीवन के आनंद को परिभाषित करता है।ओंकार ध्वनि जो कि इस आस्तित्व के मूल में समाहित है,की मधुर धुन श्री कृष्ण कीमुरली से समूचे आस्तित्व को मोहित कर संदेश देती है कि,जीवन का मूल उद्देश्य ही आनंद का अनुभव करना है।आस्तित्व में समाहित चेतना को मानवीय आवरण भी इसीलिए दिया गया कि,प्रेम तथा आनन्दकी अवर्चनीयऊर्जा का अनुभव प्राप्त हो सके,जिसकेलिएमनमोहक संगीत का स्पंदन ही सर्वाधिकअच्छा माध्यम है।यह अनुभूति केशवअपनी बांसुरी के द्वारा कराते हुए,जीवन को मधुर संगीत की लय पर नृत्य के साथ जीवन यात्रा पर निरंतर गतिमान रहने की प्रेरणा दे रहे हैं।
श्रीकृष्ण की १६ कलाएं, अपने आप में सम्पूर्ण आस्तित्व के नियंता होने का दर्शन है। सामान्य मानव के लिए समस्त १६ कलाओं में प्रवीण होना असम्भव है,क्योंकि यह केवल परम सत्ता के ही गुण धर्म है।इन सोलह कलाओं में से अंतिम कला, आस्तित्व के नियंता तो सिर्फ परम सत्ता ही है,परंतु प्रेरणा लेकर अगर हम स्व नियंता ही हो पाते हैं,तो यही मानवीय जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि होगी। श्री कृष्ण का योगेश्वर स्वरूप हमें प्रेरित करता है कि,कैसे गृहस्थ जीवन के दायित्वों को निभाते हुए हम अपने शांत स्वरूप को ध्यान के माध्यम से पा सकते हैं। रण क्षेत्र में श्री कृष्ण के उपदेश जीवन जीने की शैली बताते हुए स्पष्ट करते हैं कि,संत का रूप अनुकरणीय है,परंतु आवश्यकता होने पर दुष्टता का प्रतिरोध भी आवश्यक है। सिखों के दशम गुरु भी गृहस्थ को संत सिपाही की भूमिका में रहने का संदेश देते हैं।
जीवन के समक्ष उत्पन्न होने वाली नित्य चुनौतियों का सामना मन को शांत रख कर ही किया जा सकता है।कर्मवादी होकर शांत तथा प्रेमपूर्ण ह्रदय से फल की आसक्ति रखे बगैर,अपने दायित्वों को अपने स्वभाव के अनुरूप क्रियान्वित करने का अनुपम संदेश हमें अपने मार्ग पर अभय होकर गतिमान रहने की प्रेरणा देता है।नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए नकारात्मक तथा हानिकारक शक्तियों के निर्मूलन के जो उपदेश तत्समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिए हैं,वह आज भी उतने ही प्रासंगिक तथा समीचीन हैं।प्रति वर्ष श्री जन्माष्टमी के पावन पर्व पर, श्रीमद भागवत गीता तथा श्रीकृष्ण के विलक्षण १६ स्वरूपों को ध्यान कर योगेश्वर होने का संकल्प लें तथा अपने आत्मिक सौंदर्य में अभूतपूर्व वृद्धि करते हुए,जीवन पथ को सुगम बनाएं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): उपरोक्त लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।