आजादी के महानायक : नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
शिरोमणि दुबे प्रादेशिक सचिव सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान, भोपाल।
शिरोमणि दुबेवेबडेस्क। वीर प्रसूता मां भारती की कोख ने ऐसे अनेक सिंह सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने फांसी के फंदे को फूलों का कंठहार बना लिया ताकि देश जिंदा रह सके। क्रांतिकारी कोल्हू में बैल बनकर इसलिए जुतते रहे कोई मिशाल तो बने कि देश गोरी हुकूमत के विरुद्ध झुकने को तैयार नहीं है। दुनिया में ऐसा शायद ही कोई उदाहरण होगा जिसके माता-पिता भूख से तड़प रहे हों और वह 'आजाद' सरकारी लूटे गए धन की एक कौड़ी भी स्वयं पर खर्च करने को तैयार नहीं है। वतन के लिए ऐसे जुनून की कौन बराबरी कर सकता है कि फांसी का ऐलान होने के एक माह बाद अकालतख्त को चूम लेने के लिए आतुर भगत सिंह का वजन 5 किलो बढ़ जाता है। ऐसे ही देशभक्तों की परिपाटी में पले-बढ़े ''नेताजी'' को आज संपूर्ण राष्ट्र उनकी जन्म जयंती ''पराक्रम दिवस'' पर आदर पूर्वक याद कर रहा है, श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा है।
हां ! यह सोचकर मन बहुत बोझिल हो जाता है कि ऐसे महानायक को इतिहास ने लगभग भुला दिया। उन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तकों में उतने अक्षर भी नसीब नहीं हुए जितने गजनी, गौरी, अकबर, औरंगजेब जैसे लुटेरों पर खर्च कर दिये गये। आजादी की लड़ाई में नेताजी के योगदान को लेकर आज भी युवा पीढ़ी को बहुत कम जानकारी है। 1947 में जब देश आजाद हुआ था तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली थे। 1956 में वे भारत भ्रमण पर पधारे थे। भ्रमण के दौरान उनका पश्चिम बंगाल जाना हुआ था जहां कार्यवाहक गवर्नर पाणिभूषण चक्रवर्ती ने उनका भरपूर स्वागत सत्कार किया था। एटली के साथ अनेक विषयों पर चर्चा के दौरान गवर्नर चक्रवर्ती ने पूछा कि 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन की आग ठंडी पड़ चुकी थी। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध में आपको अमरीका आदि मित्र राष्ट्रों के साथ बड़ी जीत हासिल हुई थी। 1942 के बाद भारत में कोई बड़ा आंदोलन भी नहीं हुआ तब ऐसा क्या हुआ था कि आप भारत से 1947 में बोरिया बिस्तर बांध कर भाग खड़े हुए थे। तब क्लीमेंट एटली ने जवाब दिया था कि भारत छोड़ने के अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। भारत की सेना ब्रिटेन के राजमुकुट के सामने नतमस्तक होती थी उसकी बंदूकों की नलियां ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध छातियों पर तन गईं थीं। जो सेना ब्रिटिश सरकार की रीढ़ की हड्डी हुआ करती थी उस मेरुदण्ड को नेताजी ने तोड़ दिया था। पूरे देश में अंग्रेजी विरोध का ज्वालामुखी धधक उठा था ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ राख के ढेर में बदल जाएगा इसलिए हमें भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था यह बातें वह व्यक्ति कह रहा था जो भारत की आजादी के समय ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था। जिसके दस्तखत से भारत को आजादी मिली थी। यह भी सच है कि नेताजी ने आजाद हिंद फौज बनाते समय अपनी सिपाहियों से कह दिया था कि ''स्वाधीनता समर के बाद हममें से कौन जीवित बचेगा, कौन नहीं बचेगा लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूं कि अंत में विजय हमारी होगी। यदि हमारे मरने से भारत जी उठे तो हमें हंसते हंसते मर जाना चाहिए।
आज भी इतिहास में कितना बड़ा झूठ पढ़ाया जाता है 'दे दी हमें आजादी बिना खड़ग- बिना ढाल'। कौन कहता है कि आजादी बिना खड़ग और बिना ढाल के प्राप्त हो गई थी? कौन कहता है कि देश की स्वतंत्रता के लिए लाखों बलिदानियों ने अपना खून नहीं बहाया था? आजाद हिंद फौज के 60 हजार सैनिकों में से 26, हजार सैनिक शहीद हो गए। उन्होंने अपनी गरदनें कटवा दीं, इसलिए हम आजाद हैं। सुभाषचंद्र बोस गांधी जी से बहुत प्रभावित थे लेकिन अहिंसा के रास्ते पर चलना उन्हंे गवारा नहीं था। वे जानते थे कि आजादी भीख में नहीं मिलती, आजादी छीनने से हासिल होती है। उसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। नैसर्गिक सिद्धांत भी यही है कि आपने स्वतंत्रता को युद्धों में खोया है उसे उसी समरांगण में जीत कर हासिल किया जा सकता है। सुभाष बाबू जिन्हें लोग 'नेताजी' के नाम से जानते हैं। वे भारत को आजाद देखने के लिए हमेशा तत्पर दिखाई देते थे उनकी इसी इच्छा के चलते उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा के सर्वोच्च पद को ठुकरा दिया था और घोषणा कर दी थी कि अब इस देश का युवा फिरंगियों की चाकरी को तैयार नहीं।
एक और घटना जो नेता जी के रौबीले, स्वाभिमानी व्यक्तित्व को उजागर करती है। 16 जनवरी 1941 में नेताजी ने भारत छोड़ दिया था और अफगानिस्तान, रूस होते हुए जर्मनी पहुंच गये। 1942 मैं उनकी मुलाकात हिटलर से हुई थी इसी मुलाकात के समय नेताजी ने हिटलर द्वारा लिखित पुस्तक 'आत्मकथा' में भारत के बारे में किए गए अनर्गल प्रलाप का मुद्दा उठाया था। नेताजी ने हिटलर से कहा था कि जैसा आप भारत को जानते हो यह वैसा नहीं है। अगले संस्करण में भारत के बारे में लिखी गई गलत बातों को सुधार लेंगे तो अच्छा होगा। जिस हिटलर के सामने बड़े-बड़े ताकतवर देशों की रूह कांपती हो उस तानाशाह से गुलाम देश का प्रतिनिधि आँखों में आँख डाल कर बात करता हो यह सिद्ध करता है कि नेताजी देश के विरुद्ध एक शब्द भी सहन करने को तैयार नहीं थे। इसी मुलाकात में हिटलर ने सुभाष बोस को ''नेताजी'' कहकर सम्मानित किया था।
मित्रों आज की जो कांग्रेस है नेताजी 1938 में उसके अध्यक्ष बन गए थे। उन्होंने 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया था। सुभाषचन्द्र बोस ने महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल आदि सभी नेताओं को एक सलाह दी थी कि 'अभी हमारा शत्रु कमजोर है, हमें अंग्रेजों के विरुद्ध पूरी ताकत से प्रहार करना चाहिए तब गांधी जी ने कह दिया था ऐसी स्थिति में शत्रु पर प्रहार करना नैतिकता नहीं होगी। यह नेताजी की दूरदर्शिता को दिखाता है। यदि उसी समय नेताजी की बात मान ली गई होती तो शायद हम 1939-1940 में हम आजाद हो गए होते। आजादी की जंग में नेताजी का योगदान कितना बड़ा है ! यह इस बात से समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने नेताजी को 11 बार जेल में डालने का पाप किया था जबकि उस समय शायद ही किसी नेता को इतनी बार जेल जाना पड़ा था।
नेताजी के बारे में एक और खास बात जो लिखना जरूरी है कि वे दुश्मन को चकमा देकर वेष बदलकर गायब हो जाते थे। 11वीं बार जब नेता जी को जेल जाना पड़ा तब पठान के वेश में अफगानिस्तान, रूस के रास्ते जर्मनी पहुंच गए थे। जर्मनी पर उन्हें कुछ शक हो गया तो जापान पहुंच गए।
जापान में रासबिहारी बोस जिन्होंने 'आजाद हिंद फौज बना ली थी'। उनके साथ मिलकर 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार की घोषणा कर दी देश के बाहर अंग्रेजों को नीचा दिखाने के लिए नेताजी की यह बड़ी कूटनीतिक विजय थी। आज भी हमें यही पढ़ाया जाता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू बने थे। पराधीन भारत में आजाद हिंद सरकार के पहले प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। उनकी सरकार को विश्व के 9 देशों से मान्यता प्राप्त हुई थी।
यद्यपि यह विडंबना ही है कि नेताजी को सार्वजनिक जीवन में हमेशा तिरस्कार झेलना पड़ा जबकि उनकी महानता यह थी कि वह सभी का सम्मान करते थे। 06 जुलाई 1944 को टोक्यो (जापान) के रेडियो से देश में पहली बार उन्होंने गांधी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि से संबोधित किया था। 1943-44 में जब महिलाओं को हिकारत की नजरों से देखा जाता था तब नेताजी ने रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाकर महिलाओं को सम्मान दिया था। महिलाओं ने भी घर-परिवार छोड़कर देश के लिए लड़ाई लड़ी थी।
एक बार नेताजी को अचानक लापता हो जाने के बाद ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी से पूछा था? आप नेताजी के बारे में क्या सोचते हैं तब गांधी ने सुभाष बोस को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। यही नहीं देश की आजादी के बाद गांधी जी को कहना पड़ा कि आज यदि नेता जी होते तो देश का विभाजन नहीं होता। देश टूटने से बच गया होता लेकिन देश की शोकांतिका यह है कि इंडिया गेट पर आज भी उन सैनिकों के नाम लिखे हैं जिन्होंने अंग्रेजी सेना के साथ जलियांवाला बाग में हजारों देशभक्तों को गोलियों से छलनी कर दिया था उनकी गद्दारियों से देश हर रोज शर्मसार होता है। कुछ राजनैतिक कुनबे के लोग आज भी नेता जी की राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न उठाते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि यदि नेताजी कथित राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार ना हुए होते तो नक्शे पर पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश पैदा नहीं होते तब सिंध भी पराई नहीं होती और ना रिंकल कुमारी के जिस्म का कोई दरिंदा सौदा करने की हिम्मत नहीं कर पाता।
बेशक हमें 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता मिली थी लेकिन आजादी के 75 वर्षों के बाद देश को सांस्कृतिक आजादी की तलाश है। हमें उन नायकों के अखंड भारत के सपनों को पूरा करना ही होगा जो उन्होंने खुली आंखों से देखे थे। 'छीन के लेंगे आजादी हम ले के रहेंगे आजादी' जैसे नारे लगाने वाले बहके-भटके युवाओं को साफ-साफ कहना होगा यदि तुम्हें वतन से आजादी चाहिए तो इस देश की 140 करोड़ जनता-जनार्दन तुम्हारी इन भावनाओं का सम्मान करना जानती है।
''दरिया तेरी खैर नहीं, बूँदों ने बगावत कर दी है,
नादां न समझ इनको, लहरों ने बगावत कर दी है।
हम परवाने हैं मौत समां, मर जाने का खौफ कहां,
ऐ तलवार तुझे झुकना होगा, गर्दन ने बगावत कर दी है''।।
कभी महाभारत काल में युधिष्ठिर ने धर्म की विजय वैजयंती फहराने के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में शंखनाद किया था। आजादी के अमृत महोत्सव में नेताजी के 'पराक्रम दिवस' 23 जनवरी 2023 को प्रातः 11ः00 बजे ओल्ड कैम्पियन मैदान से सांस्कृतिक विजय का सुघोष होने वाला है। आइए, हम सब इस ऐतिहासिक क्षणों के साक्षी बनें इसी अपेक्षा के साथ।
वंदे मातरम।