डॉ सुनील पावगी
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्रथम गायिका केसरबाई केरकर उन कलाकारों में थीं जिन्होंने अथक प्रयास से रागों की शुद्धता कायम रखते हुए अपनी बुलंद आवाज में पूर्णता के साथ गायन प्रस्तुत किया। जिस समय केसर बाई का जन्म (1890) हुआ उस समय संगीत का मुख्य केन्द्र मंदिर ही हुआ करते थे जहां आम लोगों को भजन, कीर्तन तथा अन्य प्रकार के भक्ति संगीत सुनने को मिल जाया करता था। शास्त्रीय संगीत सुन पाना हरेक के लिए संभव नहीं था। गोवा के केरी गांव जन्म लेने वाली केसरबाई मंदिरों में होने वाले संगीत को आत्मसात करते हुए उसे निरंतर गाती रहती थीं। केसरबाई के मामा ने उनका संगीत प्रेम देखते हुए उन्हें 8 साल की उम्र में उस्ताद अब्दुल करीम खां से सीखने के लिए कोल्हापुर भेजा। लेकिन यह शिक्षण अधिक दिन नहीं चला और कुछ कारणवश उन्हें गोवा लौटना पड़ा।
संगीत की तालीम पाने के लिए केसरबाई को अगले 19 वर्षों तक छटपटाना पड़ा। वे निराशा के गर्त में पहुंच गईं। वे जहां भी जाती थीं, किसी न किसी कारण से उनकी तालीम कुछ समय बाद बंद हो जाती थी। सन् 1908 में केसरबाई को लेकर उनकी मां व चाचा गोवा छोड़कर मुंबई पहुंच गए। वहां अगले 6 वर्ष तक उन्हें प्रख्यात सितार वादक उस्ताद बरकतउल्ला से सीखने को मिला। इसके बाद देश के अप्रतिम गायक पं. भास्कर बुवा बखले के पास सीखने पहुंची। लेकिन पं. बखले के अचानक पुणे चले जाने पर केसरबाई की तालीम कुछ समय तक पं. रामकृष्ण बुवा वझे के पास हुई। विभिन्न गुरुओं से सीखने का क्रम टूटते रहने के कारण आखिर केसरबाई वाई ने निश्चय किया कि अब वे जयपुर-अतरौली घराने के महान गायक उस्ताद अल्लादिया खां से ही शास्त्रीय संगीत सीखेंगी। खां साहब अनेक शर्तों के बाद बड़ी मुश्किल से एक बड़ी धनराशि लेकर केसरबाई को सिखाने के लिए राजी हुए। इस तरह केसरबाई का वर्षों का भटकाव समाप्त हुआ और सन् 1944 तक उनकी निरंतर तालीम उस्ताद अल्लादिया खां के पास हुई। सन् 1946 में गायनार्य उस्ताद अल्लादिया खां की मृत्यु के पश्चात केसरबाई के एकल गायन के विभिन्न कार्यक्रम प्रारंभ हुए। इससे पहले तक वे अधिकांशत: गुरु के पीछे बैठकर ही गाती थीं। जल्दी ही केसरबाई के गायन की पूरे देश में धूम मच गई और उनके कार्यक्रमों की श्रृंखला बढ़ती ही चली गई। कोलकाता के एक संगीत समारोह में उनका गायन सुनकर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'सुरश्रीÓ की उपाधि दी।
जयपुर-अतरौली घराने की विशेषताओं के साथ उनके गाए अनवट रागों - बसन्ती केदार, सावनी- नट, नट- बिलावल, सावनी-कल्याण के साथ-साथ तोड़ी, शंकरा, जयजयवंती और मालकोंस जैसे रागों को सुनने श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ती थी। प्रख्यात गायिका और भारत रत्न एम.एस. सुब्बलक्ष्मी, सिद्धेश्वरी देवी और बेगम अख्तर जैसी गायिकाएं केसरबाई की प्रशंसक थीं। सन 1953 में केसरबाई केरकर राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाली पहली शास्त्रीय गायिका बनीं। सन् 1969 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें महाराष्ट्र की राज्य गायिका का खिताब दिया। सन् 1971 में उन्हें भारत सरकार से पद्मभूषण सम्मान मिला। केसरबाई की आवाज शास्त्रीय संगीत की दृष्टि से इसलिए बेमिसाल थी क्योंकि उसे गुरु के मार्गदर्शन में 'वायस कल्चरÓ के अनुसार परिपक्व किया गया था। इसी कारण तीन सप्तकों में उनकी आवाज की फिरत, स्वरों का लगाव और आलाप-तान तथा बोल तानों का प्रस्तुतिकरण अद्भुत था। उनके गायन को प्रत्यक्ष सुनने वाले एक संगीत समालोचक ने लिखा था 'केसरबाई की ओजपूर्ण आवाज में तानें इस तरह निकलती थीं जैसे अतिशबाजी हो रही हो। तानों की समाप्ति पर स्वरों के रंग बिखरते थे।Ó केसरबाई का गायन इतना लोकप्रिय था कि उनके गाए रागों की ध्वनि मुद्रिकाएं अमेरिका तक में बिक्री का रिकॉर्ड बनाती थीं। सन् 1977 में अमेरिका (नासा) ने अंतरिक्ष में 'वायेजर-1Ó नामक एकल मानव रहित अंतरिक्ष यान छोड़ा था जिसमें मानव संस्कृति सहेजने के लिए विश्व की कुछ विशेष आवाजें रखी गई थी। 'वायेजर-1Ó हमारे सौर मंडल और उसके बाहर की खोज के लिए प्रक्षेपित किया गया था जो अगस्त 2023 तक पृथ्वी से 161 एयू (24 अरब किमी) दूर पहुंच चुका है। इसका उद्देश्य है कि कभी किसी संस्कृति के संपर्क में यह आया तो उन्हें पृथ्वी की संस्कृति का पता चलेगा। रॉबर्ड ब्राउन नामक संगीत शास्त्री ने भारतीय संगीत के प्रतिनिधि के रूप में सुरश्री केसरबाई केरकर की राग भैरवी में गाई ठुमरी 'जात कहा हो अकेलीÓ को शामिल किया है। केसरबाई का 16 सितंबर 1977 को 87 वर्ष की आयु में मुंबई में निधन हुआ। उन्हें उनकी शानदार गायकी और सिद्धांतों से न हटने वाली स्वाभिमानी गायिका के रूप में याद किया जाता है।
(लेखक प्रख्यात संगीतज्ञ हैं)