राम - कृष्ण: धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश

अवधेश त्रिपाठी

Update: 2023-10-23 21:01 GMT

सनातन धर्म के दो पुराण (इतिवृत) दो विभूतियों के लिए समर्पित हैं, राम और कृष्ण। दोनों के जीवन में साम्य कम, विरोध ज्यादा दिखाई देता है। किन्तु लक्ष्य दोनों का एक ही है - धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश। साधु प्रकृति का त्राण और दुष्टता का संहार व विनाश। दोनों के जन्म की परिस्थितियाँ भी समान थीं, धर्म की ग्लानि (उपेक्षा, अपमान, अनादर, अस्वीकार्यता)। यद्यपि ऊपर से कृष्ण का चरित्र दोहरा दिखाई देता है, परन्तु भीतर एक अन्त:सूत्र से वह जुड़ा हुआ है - धर्म की स्थापना।

राम, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनके जीवन में आदर्श ही आदर्श है। साध्य (लक्ष्य) की प्राप्ति के लिए वे साधन से समझौता नहीं करते। जबकि कृष्ण यथार्थवादी हैं। उनके लिए साध्य की शुचिता का महत्व है। साध्य की शुचिता के लिए वे साधन से समझौता करने के लिए तैयार हैं (तत्पर नहीं)। यद्यपि उनका यह समझौता समस्त विकल्पों के समाप्त होने पर ही है।

राम का जन्म राजप्रासाद में हुआ था। युवावस्था में वे राजा बनते-बनते रह गये। राम ने वैभव के बाद विपन्न जीवन जिया। उन्हें वन-वन भटकना पड़ा। बाद में वे राज सिंहासन पर बैठे। कृष्ण कारागार में जन्मे थे। उनका बचपन विपन्नता में गायों को चराते हुए गुजरा। द्वारिकाधीश तो वे बाद में बने।

राम का बचपन अनुशासित व मर्यादित था। जबकि कृष्ण स्वभाव से ही खिलंदड और एक प्रकार से उद्दंड थे। उन्होंने बाल सुलभ लीलाएं की।

राम का जीवन मन-वचन-कर्म से एक नारीवृत था। कृष्ण शरीर में प्राण की तरह अनेक में समान रूप से विद्यमान रहे।

राम के जीवन में सद्गुणों को वैयक्तिक जीवन का मापदंड के साथ चित्रण किया गया है। संसार में मानवीय सम्बन्धों की गरिमा, संवेदना, आदर्श और कर्तव्य निर्वाह उसका आधार है। सीता हरण के माध्यम से प्रेम, विरह, विषाद की आत्मगत संवेदना का उदात्तीकरण होकर उसने समष्टिगत संवेदना को ग्रहण किया है। कृष्ण का जीवन परिवर्तन के विराट बिम्ब को प्रस्तुत करता है। वे नि:स्पृह रहते हुए समष्टि के कल्याण का विचार करते हैं। यद्यपि सम्बन्धों का विचार कृष्ण ने भी किया है, परन्तु वे सम्बन्धों को कभी भी कर्तव्य निर्वाह में बाधक नहीं बनने देते। उन्होंने परिस्थितियों की काल व स्थान के सापेक्ष समीक्षा पर बल दिया है।

राम मूल्यों के संरक्षक हैं। उनका आदर्श रघुवंश की समृद्ध परम्परा है - रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाहिं पर बचन न जाई। वे त्रेतायुग के सांस्कृतिक मूल्य-निर्धारक हैं। कृष्ण द्वापरयुग के मूल्यों के (देश, काल, परिस्थिति के अनुसार) सृजक, उनके संस्थापक हैं। वे लक्ष्य को धर्मानुकूल निर्धारित करते हैं। किन्तु उसे पाने के लिए वे कोई भी विधि अपना सकते हैं। उनका लक्ष्य नैतिक है किन्तु उसे पाने में वे राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने प्रण किया था कि महाभारत के युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा। किन्तु जब पितामह भीष्म ने उन्हें विवश कर दिया तब प्रतीकात्मक ही सही उन्होंने शस्त्र ग्रहण किया। बालक अभिमन्यु के सामूहिक रूप से छल पूर्वक किये गये वध ने युद्ध की मर्यादा को समाप्त कर दिया था। परिणाम में गुरु द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण, जयद्रथ, दुर्योधन के वध के समय मूल्यों की समय और परिस्थिति के अनुसार समीक्षा कर उन्हें नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता उन्होंने अनुभव की। शिशुपाल उनका सम्बन्धी था। किन्तु सम्बन्धों की भी अपनी मर्यादा और सीमा होती है। सीमा का अतिक्रमण करने पर कृष्ण ने शिशुपाल के वध में किंचित भी देर न की। वहीं सुदामा से मित्रता निभाने में उन्होंने परम उदारता का परिचय दिया। इतना ही नहीं समय को भाँपकर वे रणछोड़ भी बने।

राम सामाजिक जीवन का साध्य हैं। उनका सामना रावण जैसे नीतिज्ञ से था जहाँ साध्य से समझौता नहीं किया जा सकता था। कृष्ण उस साध्य की प्राप्ति के लिए समयानुकूल परिस्थिति में सामाजिक जीवन का साधन हैं। राम और कृष्ण दोनों ही अपने-अपने युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

वर्तमान में न साध्य की शुचिता का विचार है न साधन की। आज मनुष्य की इच्छा ही साध्य है, जिसकी पूर्ति के लिए किसी भी साधन को अपनाने में कोई गुरेज नहीं है। येन-केन इच्छा की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य हो गया है। अब संघर्ष देवता और असुरों के बीच न रहकर असुरों-असुरों के बीच का है। ऐसे में राम हमारे आदर्श हैं और सदैव रहेंगे। किन्तु साधन के स्तर पर हमें कृष्णनीति को ही अपनाना पड़ेगा। यह इससे भी सिद्ध होता है कि कृष्ण भी शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ। कहकर स्वयं राम बनने की कामना करते हैं।

इस तरह राम मन का निरोध है - 'रघुबंसन कर सहज सुभाऊ, मन कुपंथ पग धरय न काऊÓ। राम के लिए जन भावना - 'को रघुवीर सरिस संसार, सीलु सनेह निबाहन हाराÓ की थी। किन्तु यह तभी सम्भव है जब - 'सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं सुधर्म निरत श्रुति नीती।Ó यह सम्बन्धों में पारस्परिक आचरण एवं व्यवहार की मर्यादा है जो एकपक्षीय नहीं हो सकती। जबकि कृष्ण चित् का स्वातंर्त्य है। जिसका उद्देश्य है 'चिति: स्वतंत्रा विश्व सिद्धि हेतु:।Ó कृष्ण के लिए यह विश्व कोई नई रचना नहीं, बल्कि पहले से ही विद्यमान वस्तु प्रकटीकरण है - (प्रत्यभिज्ञा दर्शन)। प्रत्यभिज्ञा (= प्रति + अभिज्ञा) का शाब्दिक अर्थ है- पहले से देखे हुए को पहचानना, या, पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना। वे कहते हैं - अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, उन सब को तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ। इसीलिए महाभारत के युद्ध में सम्मिलित राजाओं के शरीर भी अनित्य हैं। फिर उनका शोक कैसा ?

त्रेतायुग की परिस्थितियों में धीरोदात्त महानायक की आवश्यकता थी, जिसने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया। जबकि द्वापरयुग में तात्कालिक रूप से अनीति के पीछे औचित्यपूर्ण नीति का उसे संरक्षण मिला है। यहाँ कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए राजनीतिज्ञ हैं। कृष्ण योगेश्वर कहलाये।

महर्षि व्यास ने स्वयं कहा है - 'यतो धर्मस्तत: कृष्णो, यत: कृष्णस्ततो जय: (शल्य. 62/32) - 'जहाँ धर्म है वहाँ कृष्ण है, जहाँ कृष्ण है वहीं विजय है।Ó

युद्ध के प्रति निराकार निषेध भी तब तक कोई विशेष अर्थ नहीं रखता, जब तक कि युद्ध के कारणों की खोजबीन और उन्हें समाप्त करने के उपायों का सार्थक विश्लेषण न हो।

- धर्मवीर भारती (अंधायुग)

(लेखक ख्यात शिशु रोग विशेषज्ञ हैं)                                                         

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